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पहाड़ के गांव और जल-जंगल-जमीन जानने का अभियान है 50 साल पुराना Askot Arakot Campaign, 45 दिन में सामने आएगा सच

Askot Arakot Campaign 1974 में पहला अभियान महान क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन के जन्मदिन 25 मई को अस्कोट से शुरू हुआ। आज इस अभियान को 50 वर्ष हो चुके हैं। 25 मई को पांगू से शुरू हुई यह अभियान यात्रा उत्तरकाशी जनपद में पहुंच चुकी है। 1150 किलोमीटर से अधिक लंबी यह पांगू अस्कोट आराकोट अभियान 45 दिन में 8 जुलाई को आराकोट पहुंचने पर पूरा होगा।

By Shailendra prasad Edited By: Nirmala Bohra Published: Fri, 05 Jul 2024 11:44 AM (IST)Updated: Fri, 05 Jul 2024 11:44 AM (IST)
Askot Arakot Campaign: स्रोत से संगम है इस बार की थीम

शैलेंद्र गोदियाल, उत्तरकाशी । Askot Arakot Campaign: यूं तो सदियों से उत्तराखंड में हिमालय और यात्राएं एक दूसरे के पूरक रही हैं। ये अधिकांश यात्राएं धार्मिक, आध्यात्मिक के अलावा हिमालय की यायावरी की रही हैं। परंतु एक जनधारित यात्रा अभियान ऐसा भी है जो उत्तराखंड के पूर्वी कोने पांगू अस्कोट (पिथौरागढ़) से लेकर पश्चिमी कोने आराकोट (उत्तरकाशी) तक संचालित होता है।

25 मई को पांगू से शुरू हुई यह अभियान यात्रा उत्तरकाशी जनपद में पहुंच चुकी है। 1150 किलोमीटर से अधिक लंबी यह पांगू अस्कोट आराकोट अभियान 45 दिन में 8 जुलाई को आराकोट पहुंचने पर पूरा होगा।

1974 में शुरू हुए इस अभियान को 50 वर्ष हो चुके हैं। हिमालय क्षेत्र अनुसंधान के लिए पीपुल्स एसोसिएशन (पहाड़) के नेतृत्व में यह अभियान यात्रा हर दस वर्ष में संचालित होता है। जो मध्य हिमालय क्षेत्र के 350 से अधिक गांवों का सामाजिक, आर्थिकी परिवर्तन का अध्ययन, जल-जंगल जमीन जैसी प्राकृतिक संपदा के दोहन व उपयोग का आंकलन करती है।

ऐसा कोई दिन नहीं था जब जलते हुए जंगल नहीं दिखे

अस्कोट आराकोट अभियान के मुख्य संयोजक इतिहासकार व पद्मश्री प्रो. शेखर पाठक ने कहा कि 25 मई को जब उन्होंने पांगू से अस्कोट आराकोट अभियान के शुरुआती 28 दिनों के दौरान ऐसा कोई दिन नहीं था जब जलते हुए जंगल नहीं दिखे। दूसरा जिन स्रोतों पर पिछली यात्राओं के दौरान खूब पानी होता था, वे स्रोत इस बार सूखे मिले या फिर बहुत कम पानी मिला।

सुखद पहलू के रूप में बालिका शिक्षा को लेकर सुदूरवर्ती क्षेत्र के ग्रामीण भी जागरूक हुए हैं। गांवों में जंगली जानवरों की बड़ी समस्या सामने आई। प्रो. शेखर पाठक कहते हैं कि अस्कोट से आराकोट तक और आसपास पड़ने वाली छोटी-बड़ी नदियों का भी अध्ययन किया जा रहा है। ‘स्रोत से संगम और संगम से स्रोत'' के अध्ययन में पाया है कि आपदाओं के कारण नदियों के स्वरूप में कई बदलाव आए हैं।

सड़क कटिंग का मलबा भी नदियों डाला जा रहा हैं। चारधाम यात्रा मार्गों पर नदियों में स्वच्छता की स्थिति बेहद ही चिंताजनक है। मंदाकनी घाटी में घोड़े-खच्चरों की लीद भी मंदाकनी में गिर रही है। यही स्थिति यमुनोत्री में यमुना की है।

युवा कवि हर्ष काफर कहते हैं कि यह अभियान मनोरंजन अथवा सैर-सपाटे के लिए नहीं, बल्कि वर्चुअल दुनिया में कैद रूह को अपने जड़ों से जोड़ने का एक माध्यम है। स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी अपने-अपने इलाके की नदियों, जंगल, गांव की संस्कृति के संरक्षण करने को लेकर प्रेरित किया जा रहा है।

गेरी के बजाय पैरी में रुकना पड़ा

अभियान दल में शामिल प्रो. गिरजा पांडे कहते हैं कि ऊंचाई वाले इलाके में एक बदलाव यह भी दिखा कि पूरा गांव बुग्याल क्षेत्र में पिछले दो माह से कीड़ा जड़ी निकालने गया है। यह एक आर्थिक पहलू भी हो सकता है। उन्हें कई लोगों ने बताया कि जिस मात्रा में कीड़ा जड़ी पहले मिलती थी, अब नहीं।

गांव खाली होने की स्थिति में उनके अभियान दल को गेरी गांव के बजाय पैरी में रात्री विश्राम के लिए रुकना पड़ा। इस अभियन में उन्हें सबसे खूबसूरत स्कूल पाणा गांव का मिला। यहां तैनात दो शिक्षकों ने इसे बेहतर बनाया। जो स्कूल के एक कमरें में रहते हैं।

होमस्टे का खास मॉडल

प्रो. गिरजा पांडे कहते हैं मुनस्यारी के सरमोली गांव में होम स्टे का बहुत अच्छा मॉडल दिखा है। रोस्टर के अनुसार होमस्टे में पर्यटक ठहरते हैं। पूरे ग्रामीणों को समान रूप से रोजगार मिल रहा है। गांव में जो भोजन परोसा जाता है वह पूरी तरह से स्थानीय और विविधता से भरा होता हैं। ग्रामीणों को हाउस कीपिंग का प्रशिक्षण और अपने परिवेश की जानकारी भी अच्छी है।

ऐसे शुरू हुआ अभियान

अस्कोट आराकोट अभियान की शुरुआत प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से हुई। 1974 में पहला अभियान महान क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन के जन्मदिन 25 मई को अस्कोट से शुरू हुआ। तब इस अभियान में प्रो. शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुँवर प्रसून और प्रताप ‘शिखर'' शामिल हुए। फिर 1984, 1994, 2004, 2014 में अभियान की यात्राएं हुई।

महिलाओं के स्वास्थ्य से खिलवाड़

उत्तराखंड महिला मंच की सदस्य माया ने कहा कि पांगू से उन्होंने शुरू की। इस यात्रा का उद्देश्य महिलाओं की स्थिति को जाने का रहा है। जनजातीय क्षेत्र में महिलाओं का शिक्षा का स्तर, सोच और समाज का स्तर अच्छा मिला। परंतु अन्य पहाड़ी गांवों में पुरुष वर्चस्व अधिक दिखाई दिया।

शिक्षा में कुछ सुधार हुआ, परंतु गर्भवती महिलाओं की जांच और टीकाकरण नहीं हो पा रहा है। दुरस्थ गांवों में पीरियड के दौरान महिलाओं को घर से बाहर पुरानी गोशाला में रहना पड़ रहा है। जो बदबूदार और सुविधाविहीन होते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ यह बड़ा खिलवाड़ है। यही नहीं महिलाओं को इस दौरान खाना भी अलग दिया जाता है और शौचालय व पानी का भी अलग उपयोग करती हैं।


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