यहां लोग चीन सीमा पर जवानों संग लहराते थे तिरंगा, अब जिंदा हैं यादें
बगोरी गांव के लोगों के लिए 15 अगस्त उल्लास लेकर आता है। 1962 से पहले यहां के लोग सेना के जवानों के साथ चीन सीमा पर नेलांग में तिरंगा फहराते थे। अब सिर्फ यादें ही जिंदा हैं।
By BhanuEdited By: Updated: Thu, 02 Aug 2018 09:12 AM (IST)
उत्तरकाशी, [शैलेंद्र गोदियाल]: जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से 76 किमी दूर भागीरथी और जाड़गंगा नदी के संगम पर बसे बगोरी गांव के लोगों के लिए 15 अगस्त उल्लास लेकर आता है। इस दिन लोग देश और प्रदेश के विभिन्न हिस्सों से अपने गांव पहुंचते हैं और सामूहिक रूप से स्वतंत्रता का जश्न मनाते हैं। इस दौरान छोले-पूरी के भोज के साथ पारंपरिक वस्त्रों में लोकनृत्य की प्रस्तुति आकर्षण का केंद्र होती है।
हालांकि, 1962 से पहले यहां के लोग सेना के जवानों के साथ चीन सीमा पर नेलांग में तिरंगा फहराते थे। लेकिन, भारत-चीन युद्ध के समय नेलांग और जादुंग के ग्रामीणों का अपने गांव से नाता टूट गया और वो विस्थापित होकर बगोरी में आ बसे। जिसकी यादें और टीस अब तक लोगों के मन में बसी हुई है।उत्तरकाशी जनपद में गंगोत्री हाईवे से हर्षिल होते हुए एक किमी की दूरी तय कर बगोरी गांव पहुंचा जा सकता है। रास्ते में जाडग़ंगा नदी पर सात छोटे-छोटे पुल बने हुए हैं। सेब उत्पादन यहां के लोगों की आर्थिकी का मुख्य जरिया है। वहीं लकड़ी के खूबसूरत घरों पर की गई कारीगरी भी बरबस ध्यान खींचती है।
1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान चीन सीमा से लगे नेलांग और जादुंग गांव को सुरक्षा की दृष्टि से खाली करा दिया गया था। इन दोनों गांवों में भोटिया और जाड़ जनजाति के लोग रहते थे। उस दौरान नेलांग से 40 और जादुंग से 50 परिवार हर्षिल घाटी के बगोरी गांव में आ बसे थे। वहीं कई परिवार उत्तरकाशी के समीप डुंडा गांव में चले गए थे।
वर्तमान में बगोरी में 150 से अधिक परिवार रहते हैं। गांव में मंदिर के साथ-साथ बौद्ध मठ भी है। हालांकि यह गांव जितना खूबसूरत है, वहां की भौगोलिक परिस्थितियां उतनी ही विषम हैं। सर्दियों में भारी बर्फबारी के दौरान यहां रास्ते बंद हो जाते हैं तब यहां के लोग डुंडा और उत्तरकाशी के आसपास बसे दूसरे गांवों में चले जाते हैं। गंगोत्री धाम के कपाट खुलते ही लोगों के वापस लौटने का सिलसिला शुरू हो जाता है। सेब की फ्लावरिंग तक तो लगभग सभी लोग आ जाते हैं। यहां के लोगों की अपनी विशेष सांस्कृतिक पहचान है और वो हर त्योहार विशेष तरीके से मनाते हैं। स्वतंत्रता दिवस मनाने का अंदाज भी उनमें से एक है।
बगोरी गांव के प्रधान भवान सिंह राणा बताते हैं, 1962 से पहले हम अपने मूल गांवों नेलांग और जादुंग में सेना के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाते थे। तब इस दिन की अलग ही रौनक हुआ करती थी, कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। लेकिन, अब नेलांग घाटी इनर लाइन में होने के कारण वहां प्रवेश की प्रक्रिया काफी जटिल हो गई है। हम चाहते हैं कि अपने मूल गांव में वापस जाएं, वहां हमारे घर भी हैं। लेकिन, सुरक्षा कारणों से यह संभव नहीं है।
गांव के एक अन्य निवासी महेंद्र राणा बताते हैं कि अब हम बगोरी में ही लाल देवता मंदिर परिसर में स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। इस दिन गांव के लोग एक साथ एकत्र होते हैं और पूरी-छोले का भोज दिया जाता है। इस दौरान विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां भी दी जाती हैं। गांव की महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में लोकनृत्य प्रस्तुत करती हैं। समापन पर बच्चों को मिठाई वितरित की जाती है। गांव के बुजुर्ग ईश्वर सिंह कहते हैं कि बाजारीकरण के कारण लोगों में सामूहिकता की भावना खत्म हो रही है, लेकिन कोई त्योहार हो या स्वतंत्रता दिवस हमने सामूहिक आयोजन की संस्कृति अभी भी बरकरार रखी है।
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