चीन सीमा पर सजग प्रहरी हैं नेलांग और जादुंग के ग्रामीण, पढ़िए पूरी खबर
चीन सीमा पर रहे रहे गांवों के लोग भी सजग प्रहरी की भूमिका में हैं। मवेशियों को लेकर अब भी वह नेलांग घाटी में विचरण करते हैं।
उत्तरकाशी, जेएनएन। चीन से जुड़ी उत्तराखंड की 345 किलोमीटर लंबी सीमा पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल (आइटीबीपी) के हिमवीरों की निगाहें तो चौकन्नी हैं ही, सीमा पर रहे रहे गांवों के लोग भी सजग प्रहरी की भूमिका में हैं। उत्तरकाशी जिले के नेलांग और जादुंग के ग्रामीण भले ही 58 साल पहले इन गांवों को खाली कर चुके हों, लेकिन मवेशियों को लेकर अब भी वह नेलांग घाटी में विचरण करते हैं और उनकी सतर्क निगाहें सीमा पर हर तरह की गतिविधियों पर भी नजर रखती हैं।
वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद उत्तरकाशी की नेलांग घाटी में बसे दो गांव नेलांग और जादुंग को सुरक्षा की दृष्टि से सेना ने खाली कराया तो ग्रामीण बगोरी, हर्षिल और डुंडा में बस गए। वहां से आए इन परिवारों की आजीवका का मुख्य साधन पशुपालन है। बगोरी के पूर्व प्रधान भवान सिंह राणा बताते हैं कि जब उनके परिवार नेलांग और जादुंग में रहते थे तब वे मवेशियों को लेकर मई से सितंबर तक घाटी के दूर-दराज के इलाकों में चले जाते थे, ये परंपरा आज भी बरकरार है। वह बताते हैं कि पहले इसके लिए अनुमति नहीं लेनी होती थी, अब इसके लिए गंगोत्री नेशनल पार्क से परमिट जारी किए जाते हैं। ऐसे में ग्रामीण पांच माह नेलांग के विभिन्न इलाकों में भ्रमण करते हैं। राणा बताते हैं कि इस दौरान ग्रामीण सीमा के आसपास होने वाली गतिविधियों पर भी निगाह बनाए रखते हैं और यदि कुछ असामान्य हो तो आइटीबीपी को सूचना देते हैं।
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पूजा के लिए वर्ष में एक बार मूल गांव जाते हैं ग्रामीण
नेलांग और जादुंग से दूर हुए भले ही ग्रामीणों को 58 साल हो गए, लेकिन अपनी माटी की सौंधी गंध आज भी उन्हें याद आती है। हर साल बगोरी, हर्षिल और डुंडा से ग्रामीण गर्मियों में एक दिन नेलांग और जादुंग जाकर देवता की पूजा करते हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें स्थानीय प्रशासन और सेना से अनुमति लेनी होती है। ग्रामीण वहां रात्रि विश्राम नहीं कर सकते, उन्हें शाम तक लौटना होता है। नेलांग के मूल निवासी 74 साल के सेवक राम भंडारी याद करते हुए कहते हैं कि वर्ष 1962 में वह कक्षा दस के छात्र थे। वह कहते हैं कि हमें अपनी सेना पर गर्व है, लेकिन गांव से दूर होने की टीस भी सालती है। हालांकि देश से बढ़कर कुछ नहीं है। वह बताते हैं कि वर्ष 1962 से पहले सब लोग गांव में स्वतंत्रता दिवस मनाते थे। हालांकि अब भी बगोरी गांव में सब लोग इस दिन एकत्रित होकर जश्न मनाते हैं, लेकिन गांव में इसका आनंद ही कुछ और था।
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