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कैसी पड़ी RG कर अस्पताल की नीव? मांगी भीख तो बेचनी पड़ी संपत्ति, बेहद गौरवशाली है इतिहास

कोलकाता के सरकारी आरजी (राधागोविंद) कर मेडिकल कालेज अस्पताल का बेहद गौरवशाली इतिहास है। डा. कर को ब्रिटिश शासित बंगाल में चिकित्सा विज्ञान का पुनर्जागरण पुरुष कहा जाता है। उन्होंने पूरे जीवन बंगाल के लोगों के लिए चिकित्सा प्रणाली को सुलभ बनाने को संघर्ष किया। डा. कर का जन्म हावड़ा जिले के बेतड़ नामक स्थान पर 23 अगस्त 1852 को हुआ था।

By Jagran News Edited By: Nidhi Avinash Updated: Sun, 18 Aug 2024 10:30 PM (IST)
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कलंकित आरजी कर अस्पताल का है बेहद गौरवशाली इतिहास (Image: ANI)

राज्य ब्यूरो, कोलकाता। जूनियर महिला डॉक्टर से दरिंदगी की घटना से 'कलंकित' हुए कोलकाता के सरकारी आरजी (राधागोविंद) कर मेडिकल कालेज अस्पताल का बेहद गौरवशाली इतिहास है। इस अस्पताल का नामकरण ऐसे दयालु डॉक्टर पर हुआ है, जो गरीब मरीजों के इलाज के लिए कड़ी धूप में झोला लेकर साइकिल पर कोलकाता के विभिन्न इलाकों में घूमा करते थे। उनके ज्यादातर मरीज फीस देना तो दूर, दवा खरीदने में भी असमर्थ थे।

वे न सिर्फ मुफ्त में उनका इलाज करते थे बल्कि दवा खरीदने के लिए पैसे भी देते थे। डा. राधागोविंद कर विदेश से डॉक्टरी की पढ़ाई करके लौटे थे। एक तरफ जहां बहुत से एमबीबीएस डाक्टर गांवों में जाकर काम करने से कतराते हैं, वहीं डा. कर ने विदेश से डिग्री लेने के बावजूद गांवों के गरीब लोगों का इलाज करना चुना।

सिस्टर निवेदिता के साथ मिलकर प्लेग महामारी को किया नियंत्रित

मार्च, 1899 में कोलकाता में प्लेग महामारी की तरह फैल गया था। उस समय सिस्टर निवेदिता कोलकाता की गलियों में मरीजों की सेवा कर रही थीं और डा. कर, जो जिले के स्वास्थ्य अधिकारी थे, मरीजों को बचाने के लिए अथक प्रयास कर रहे थे। दोनों ने मिलकर महामारी को नियंत्रित कर मृत्यु दर को कम किया।

बंगाल में चिकित्सा विज्ञान के पुनर्जागरण पुरुष

डा. कर को ब्रिटिश शासित बंगाल में चिकित्सा विज्ञान का पुनर्जागरण पुरुष कहा जाता है। उन्होंने पूरे जीवन बंगाल के लोगों के लिए चिकित्सा प्रणाली को सुलभ बनाने को संघर्ष किया। डा. कर का जन्म हावड़ा जिले के बेतड़ नामक स्थान पर 23 अगस्त, 1852 को हुआ था। उनके पिता दुर्गादास कर ने ढाका में मिडफोर्ड हास्पिटल की स्थापना की थी। डा. कर बेहद प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्होंने हेयर स्कूल से प्रवेश परीक्षा पास करके 1880 में चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने के लिए कलकत्ता मेडिकल कालेज में दाखिला लिया।

पढ़ाई के साथ वे रंगमंच की ओर भी आकर्षित थे। 1883 में वे स्काटलैंड गए और 1887 में वहां के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में आनर्स के साथ स्नातक किया और एमआरसीपी बने। रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों, सभी ने उन्हें इंग्लैंड में रहकर डाक्टरी करने की सलाह दी लेकिन वे अपनी जन्मभूमि व मातृभूमि बंगाल लौट आए और राज्य के असंख्य असहाय गरीब लोगों के इलाज में जुट गए।

डा. कर की चिकित्सा विज्ञान पर आधारित पहली पुस्तक 'विषगबंधु' 1871 में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने कई और पुस्तकें लिखीं। सभी पुस्तकें बांग्ला में थीं लेकिन अंग्रेजी जानने वाले मेडिकल छात्र भी इन्हें पढऩा पसंद करते थे।

अस्पताल खोलने के लिए बेच दी सारी संपत्ति, मांगी भीख

डा. कर ने महसूस किया कि मरीजों की समस्याओं का समाधान के लिए सिर्फ चिकित्सा विज्ञान की पुस्तकें लिखना पर्याप्त नहीं है इसलिए उन्होंने बंगाल के लोगों के लिए एक अस्पताल खोलने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने अपनी सारी संपत्ति बेच दी। यहां तक कि कोलकाता के धनी लोगों से भीख भी मांगी। अमीरों के घर में जब कोई खुशी का अवसर या शादी समारोह होता था तो डा. कर गेट के सामने खड़े होकर आमंत्रित अतिथियों से पैसे मांगते थे। सब चकित थे कि इंग्लैंड से लौटा एक एमआरसीपी डाक्टर भीख मांग रहा है।

डा. कर ने सैकड़ों अपमान सहे और अस्पताल खोलने के अपने मिशन में जुटे रहे। उन्होंने करीब 25,000 रुपये जुटाए और उससे बेलघरिया में 12 बीघा जमीन खरीदी और वहां 30 बेड वाला अस्पताल खोला। प्रिंस अल्बर्ट विक्टर ने अस्पताल के दौरे के समय 18,000 रुपये दान किए थे इसलिए अस्पताल का नाम 'अल्बर्ट विक्टर अस्पताल रखा गया।

क्यों नाम बदलने की उठी थी मांग

1904 में डा. कर की पहल पर कॉलेज आफ फिजिशियन व सर्जन ऑफ बंगाल का विलय हुआ। इसके 10 साल बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से इसे मंजूरी मिली और बेलघरिया मेडिकल कालेज की स्थापना हुई लेकिन यह नाम ज्यादा दिन नहीं टिका। पांच जुलाई, 1916 को लार्ड कारमाइकल ने मेडिकल कॉलेज की दो मंजिला इमारत का उद्घाटन किया। उनके सम्मान में नाम बदल दिया गया। देश को आजादी मिलने तक इसे कारमाइकल मेडिकल कॉलेज के नाम से जाना जाता रहा।

1948 में गंभीर वित्तीय संकट के समय फिर से नाम बदलने की मांग उठी, हालांकि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. बिधान चंद्र राय ने इसकी अनुमति नहीं दी। बाद में डा. राय की पहल पर इसका नाम डा. कर के नाम पर रखा गया। आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय की आत्मकथा 'बंगाली केमिस्ट का जीवन और अनुभव के अनुसार डा. कर ने देश की पहली दवा कंपनी की स्थापना के दौरान स्वदेशी पद्धति से दवाइयों के उत्पादन में योगदान दिया था। डा. कर का निधन 19 दिसंबर, 1918 को इंफ्लूएंजा से हुआ। मृत्यु के समय डा. कर के पास कोई निजी संपत्ति नहीं थी। उन्होंने बेलघरिया में केवल एक घर बनवाया था, जिसे उन्होंने मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया था।

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