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तो ये वजह थी जिसने दुर्गा पूजा को बंगाल का सबसे बड़ा पर्व बना दिया

इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है।

By Preeti jhaEdited By: Updated: Sat, 30 Sep 2017 01:25 PM (IST)
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तो ये वजह थी जिसने दुर्गा पूजा को बंगाल का सबसे बड़ा पर्व बना दिया

बंगाल में दशहरा पर्व दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। नवरात्र में शुरू होने वाला यह बंगालियों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरे बंगाल में पांच दिनों तक ये उत्‍सव मनाया जाता है। इसके लिए यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। देश भर के नामी कलाकार दुर्गा की मूर्ति तैयार करते हैं। इसके साथ अन्य देवी द्वेवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं।

त्योहार के दौरान दुर्गा पूजा पडाल के आस पास छोटे मोटे स्टाल भी लगाये जाते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जाता है। उसके बाद सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा की जाती है। अष्टमी के दिन महापूजा और कहीं कहीं बली भी दी जाती है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। प्रसाद चढ़ाया जाता है और प्रसाद वितरण किया जाता है।

पुरुष आपस में आलिंगन करते हैं, जिसे कोलाकुली कहते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, देवी को विदाई देती हैं। इसके साथ ही वे आपस में एक दूसरे के सिंदूर लगाती हैं। इस रीति को सिंदूर खेला कहते हैं। देवी प्रतिमाओं को बड़े-बड़े वाहनों में रख कर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है। विसर्जन की यात्रा भी बड़ी शोभनीय और दर्शनीय होती है।

तो ये वजह थी जिसने दुर्गा पूजा को बंगाल का सबसे बड़ा पर्व बना दिया

पश्चिम बंगाल का दशहरा इन सबसे अलग है। 10 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के दौरान वहां का पूरा माहौल शक्ति की देवी दुर्गा के रंग का हो जाता है। बंगाली हिंदुओं के लिए दुर्गा और काली की आराधना से बड़ा कोई उत्सव नहीं है। वे देश-विदेश जहां कहीं भी रहें, इस पर्व को खास बनाने में वे कोई कसर नहीं छोड़ते।

ऐसे में एक स्वाभाविक सी जिज्ञासा उठती है। आखिर वह कौन सी घटना या परंपरा रही जिसके चलते बंगाल में शक्ति पूजा ने सभी त्योहारों में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया।

 कृत्तिबासी रामायण ने ही बंगाल में दशहरा लोकप्रिय बनाया

 वा​ल्मीकि रामायण की बांग्ला भाषा में पुनर्प्रस्तुति​ इस सोच का नतीजा थी। आलोचकों के अनुसार राम की कहानी के जरिए कृत्तिबास ओझा समाज में न्याय और अन्याय के द्वंद् को दिखाना चाहते थे। उनका मकसद था कि लोग समझें कि जीत अंतत: सत्य, न्याय और प्रेम की होती है। वे बताना चाहते थे कि रावण और उसके जैसे तमाम आतताइयों को एक दिन हारना ही होता है।आलोचकों का मानना है कि उनकी इस रचना का मकसद केवल भक्ति करना नहीं। बल्कि लोगों में इतिहास और मानव सभ्यता के प्रति समझ विकसित करना भी था।उनके अनुसार इस प्रसंग का आशय यही था कि केवल नैतिक बल से अन्याय को हराया नहीं जा सकता। उसकी हार तो तभी होती है जब न्यायी और सत्य के साथ खड़ा इंसान ‘मौलिक’ रास्ते का भी अनुसरण करे। 

बंगाल में नारी-पूजा की परंपरा प्राचीन समय से प्रचलित है। इसलिए वहां शक्ति की पूजा करने वाले शाक्त संप्रदाय का काफी असर है। दूसरी ओर वहां वैष्णव संत भी हुए हैं, जो राम और कृष्ण की आराधना में यकीन रखते हैं। पहले इन दोनों संप्रदायों में अक्सर संघर्ष होता था। कृत्तिबास ओझा ने अपनी रचना के जरिए शाक्तों और वैष्णवों में एकता कायम करने की काफी कोशिश की। आलोचकों के अनुसार राम को दुर्गा की आराधना करते हुए दिखाकर वे दोनों संप्रदायों के बीच एकता और संतुलन कायम करने में सफल रहे। इस प्रसंग से राम का नायकत्व तो स्थापित हुआ ही, शक्ति यानी नारी की अहमियत भी बरकरार रही।

 कृत्तिबासी रामायण में तमाम चुनौतियों के बीच सुंदर सामंजस्य होने के चलते यह धीरे-धीरे पूरे बंगाल में मशहूर होती चली गई. इसके साथ दुर्गा भी वहां के जनमानस में लोकप्रिय होती गईं। यही नहीं पिछली पांच शताब्दियों में दुर्गा पूजा और दशहरा न केवल बंगाल बल्कि देश के दूसरे इलाकों का भी महत्वपूर्ण त्योहार बन चुका है। इस पर बंगाल का असर यदि देखना हो तो दुर्गा की प्रतिमाओं की बनावट को देखा जा सकता है जिन पर बंगाली मूर्तिकला का साफ असर है।

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