अनूठा है दुर्गापुर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र, झंडा बिल्ला तो दूर प्रचार की टोपी भी लगाकर गांव नहीं आ सकते प्रत्याशी
दुर्गापुर पश्चिम के भाजपा प्रत्याशी लखन घोरूई ने बताया कि गांव की पंरपरा का हम सम्मान करते हैं। हर चुनावों में हमने भी परंपरा को माना। हमारे दो वाहन भूलवश गांव में प्रवेश कर गए हमें भी दुख हुआ। तब मैंने लिखित रूप से माफी भी मांगी।
By Sanjay PokhriyalEdited By: Updated: Sat, 10 Apr 2021 09:10 AM (IST)
हृदयानंद गिरि, दुर्गापुर। West Bengal Assembly Election 2021 बंगाल में सियासी संग्राम में प्रचार और हिंसा तो आम है। यहां के गांव हों या शहर हर जगह बैनर पोस्टर और दीवार लेखन दिखेगा, लेकिन बंगाल में एक ऐसा भी गांव है, जहां चुनाव प्रचार के दौरान न तो किसी दल का झंडा लगता है, ना दीवार लेखन होता है। पोस्टर-बैनर भी लगाना वर्जित है। हम बात कर रहे हैं दुर्गापुर के 20 हजार की आबादी वाले कारंगापाड़ा की। दुर्गापुर रेलवे स्टेशन के नजदीक बसे इस गांव के नियम खास हैं। इनका मानना है कि मतदान सभी करें लेकिन चुनाव के नाम पर गांव के आपसी भाईचारे पर कोई असर न पड़े। वोट मांगने वाले नेताओं को भी यहां का दस्तूर पता है। इसलिए वह भी यहां बगैर गाजे-बाजे और बैनर-पोस्टर के सादगीपूर्ण तरीके से गांव वालों से व्यक्तिगत तौर पर मिलकर वोट मांगते हैं। प्रचार को कोई अन्य तरीका यहां नेता नहीं आजमाते।
इसी गांव के विश्वनाथ पड़ियाल पिछले विधानसभा चुनाव में दुर्गापुर पश्चिम सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीते थे। इस बार वह तृणमूल कांग्रेस से चुनाव मैदान में हैं। गांव के चार लोग पार्षद भी हैं। 30 नंबर वार्ड जहां यह गांव है वहां की रूमा पडिय़ाल, 23 नंबर वार्ड के देबब्रत साईं, 40 नंबर वार्ड के चंद्रशेखर बनर्जी व 42 नंबर वार्ड की प्रियांकी पांजा पार्षद हैं। सियासी बिसात पर यह गांव अहम हैसियत रखता है। बावजूद भाईचारे को कायम रखने के लिए बरसों पहले जो परंपरा शुरू की गई, वह आज तक कायम है।
आज बंगाल में जब चुनावी माहौल में हर इलाका राजनीतिक सरगर्मी से तप रहा है। वहीं, पहली नजर में इस गांव में सन्नाटा नजर आता है। न किसी घर पर राजनीतिक दल का झंडा और न पोस्टर-बैनर। न कहीं दीवार लेखन। पता ही नहीं चलता कि यह बंगाल का एक गांव है। साइकिल से बाजार जा रहे सायन हमें देख रुक गए। उनसे पूछा क्या यह विश्वनाथ पडिय़ाल उर्फ बिशु दा का गांव है, तो वह बोले, हां दादा एखाने ही बिशु दा थाकेन। जब पूछा यहां तो कोई झंडा-बैनर नहीं है तो बोले एई ग्रामे प्रचार होय ना। गांव के 60 साल के सिद्धार्थ दत्त तब तक वहां आ गए। उन्होंने बताया कि हमने अपनी याद में कभी किसी राजनीतिक दल का झंडा-बैनर यहां नहीं देखा। यह परंपरा वर्षों से है। गांव की सीमा दत्त कहती हैं, चुनाव में हिंसा की घटनाएं लगातार होती रहती हैं, लेकिन हमारा गांव इससे बचा रहता है। गांव के सुब्रत मुखर्जी कहते हैं, इस परंपरा से आपसी भाईचारा और मजबूत होता है।
हमारा गांव तो पूरे देश के गांवों के लिए मिसाल है। गांव के मध्य हरि मंदिर है। पास में ही कारंगापाड़ा ग्राम उन्नयन समिति का कार्यालय। इसके अध्यक्ष 76 बरस के परिमल दत्ता हैं। उन्होने बताया कि जब मैंने पहली बार वोट डाला था तब भी गांव में झंडे-बैनर नहीं लगे थे। बुजुर्ग बताते थे कि पहले किसी चुनाव के दो भाई-भाई में मारपीट हो गई थी। तब गांव के बड़ों ने फैसला लिया था कि गांव में प्रचार नहीं होने देंगे। कोई किसी को वोट दे, लेकिन दुनिया को झंडा लगाकर नहीं दिखाएंगे कि हम किसे समर्थन कर रहे। यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कायम है। चुनाव के समय राजनीतिक दलों के प्रत्याशी गांव आते हैं, मगर उनके पास न कोई झंडा होता न माइक। घर घर लोगों से मिल अपनी बात कह लौट जाते हैं। प्रत्याशी व उनके समर्थकों को इस गांव में अपने दल की टोपी पहनकर भी घुसना मना है। गांव के पेशे से वकील देवब्रत साईं शहर के 23 नंबर वार्ड के पार्षद भी हैं। उन्होंने बताया कि गांव में पांच मतदान केंद्र हैं। खास बात ये कि इनको भी ग्रामीणों की इच्छा के अनुरूप ही बनाया जाता है।
भाजपा प्रत्याशी को मांगनी पड़ी माफी: गांव की इस परंपरा से हर राजनीतिक दल अवगत है। कुछ दिन पहले भाजपा प्रत्याशी लखन घोरूई का रोड शो हो रहा था। काफिले में शामिल झंडा-बैनर लगे दो वाहन गांव में प्रवेश कर गए। जानकारी होते ही लखन ततल ग्राम समिति के कार्यालय गए और लिखित रूप से माफी मांगी।
दुर्गापुर पश्चिम के विधायक विश्वनाथ पडिय़ाल ने बताया कि गांव की पंरपरा वर्षों से चली आ रही है। हम उसे कायम रखे हैं। वर्ष 1997-2017 तक पार्षद रहा। 2016 से विधायक हूं, लेकिन गांव की ऐतिहासिक परंपरा का शिद्दत से पालन कर रहे हैं। इस परंपरा पर हमें गर्व है।
दुर्गापुर पश्चिम के भाजपा प्रत्याशी लखन घोरूई ने बताया कि गांव की पंरपरा का हम सम्मान करते हैं। हर चुनावों में हमने भी परंपरा को माना। हमारे दो वाहन भूलवश गांव में प्रवेश कर गए, हमें भी दुख हुआ। तब मैंने लिखित रूप से माफी भी मांगी।
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