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India Canada Row: 'निज्जर कोई प्लंबर नहीं था...' US अधिकारी ने ओसामा से क्यों की तुलना? भारत-कनाडा विवाद में अमेरिका की एंट्री

भारत और कनाडा के बीच संबंधों में उस समय खटास आई जब पिछले साल कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने एक संसदीय संबोधन में दावा किया कि उनके पास खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत का हाथ होने के सबूत हैं। वहीं भारत ने कनाडा के इन आरोपों को खारिज कर दिया था। भारत और कनाडा के विवाद में अब अमेरिका की भी एंट्री हो गई है।

By Jagran News Edited By: Narender Sanwariya Updated: Wed, 16 Oct 2024 04:48 PM (IST)
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कनाडा के पीएम जस्टिन ट्रूडो। (File Photo)
एएनआई, वॉशिंगटन डीसी। भारत-कनाडा विवाद में अमेरिका की एंट्री हो गई है। अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट के वरिष्ठ फेलो और मिडिल ईस्ट फोरम में नीति विश्लेषण के निदेशक माइकल रुबिन ने तर्क दिया है कि खालिस्तानी तत्वों से केवल कनाडा को ही नहीं, अमेरिका को भी खतरा है।

अमेरिका स्थित नेशनल सिक्योरिटी जर्नल में 'खालिस्तानी चरमपंथ: अमेरिका और कनाडा में बढ़ता खतरा' नामक संपादकीय लेख में माइकल रुबिन ने कहा कि खालिस्तानी तत्वों की गतिविधियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

ट्रूडो के आरोप झूठे

माइकल रुबिन ने कहा, खालिस्तानी आतंकवाद और गिरोह हिंसा ने कनाडा में सुर्खियां बटोरी हैं, प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत पर वांछित आतंकवादी की हत्या का आरोप लगाया है। जाहिर तौर पर यह झूठा नजर आता है। खालिस्तानी चरमपंथ अब अमेरिका के लिए भी समस्या बनता जा रहा है। खालिस्तानी कार्यकर्ता कैलिफोर्निया और न्यूयॉर्क में अपना वर्चस्व फैला रहे हैं।'

मंदिरों में तोड़फोड़ पर चुप्पी क्यों?

उन्होंने कहा कि अमेरिकी लोग ईरानी छात्रों द्वारा तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर कब्जा करने या लीबियाई आतंकवादियों द्वारा बेनगाजी में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास पर हमला करने को आक्रोश के साथ याद करते हैं, लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि खालिस्तानी आतंकवादियों ने सैन फ्रांसिस्को में भारत के वाणिज्य दूतावास पर दो बार हमला किया है। राष्ट्रीय मीडिया अमेरिका के चर्चों पर इस्लामी हमलों को घृणा अपराध बताता है, लेकिन जब खालिस्तानी चरमपंथी मेलविले, न्यूयॉर्क से लेकर सैक्रामेंटो, कैलिफोर्निया और हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़ करते हैं, तो वे चुप रहते हैं।

नई पीढ़ी को बचाने की चुनौती

रुबेन ने आगे तर्क दिया कि खालिस्तानी समर्थकों ने कई स्थानीय संस्थानों पर कब्जा कर लिया है और हिंसा की संस्कृति फैला रहे हैं। व्हाइट हाउस और विदेश विभाग कुछ कॉलेज परिसरों की बेतुकी हरकतों को नियंत्रित नहीं कर सकते। हर कारण की वैधता नहीं होती, लेकिन कुछ को गले लगाने से और अधिक हिंसा की संभावना होती है। जैसे-जैसे खालिस्तानी समर्थक कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में फैल रहे हैं, वे स्थानीय संस्थानों पर कब्जा कर, नई पीढ़ी को हिंसा की संस्कृति सिखा रहे हैं।

धार्मिक पक्षपात के आरोप

तीन दशक पहले कुछ विश्लेषकों ने अलकायदा की अवधारणा को समय पर नहीं नकारा और वे अमेरिका के लिए खतरा बन गया। आज खालिस्तानियों को लेकर भी यही हो रहा है। उस समय काउंसिल ऑन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस या इस्लामिक सोसाइटी ऑफ नॉर्थ अमेरिका जैसे मुस्लिम ब्रदरहुड द्वारा संचालित संगठनों ने इस्लामी चरमपंथ की किसी भी आलोचना को 'इस्लामोफोबिक' करार दिया था। आज खालिस्तानी उग्रवादी संगठन का विरोध करने वालों पर धार्मिक पक्षपात के वही आरोप लग रहे हैं।

खालिस्तानियों से बढ़ता खतरा

  • रुबेन ने आगे तर्क दिया कि संयुक्त राज्य अमेरिका को ऐसे जाल में नहीं फंसना चाहिए।
  • किसी भी रूप में और किसी भी धर्म से उत्पन्न होने वाला उग्रवाद खतरा ही पैदा करता है।
  • खालिस्तानी उग्रवाद अपने पाकिस्तानी समर्थन के साथ एक गंभीर और बढ़ता हुआ खतरा बन सकता है।

ट्रूडो ने बहुत बड़ी गलती की

एएनआई से बात करते हुए पेंटागन के पूर्व अधिकारी ने कहा कि कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने खालिस्तान आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत के संबंध होने का आरोप लगाकर बहुत बड़ी गलती की है। मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री ट्रूडो ने बहुत बड़ी गलती की है। उन्होंने इस तरह से आरोप लगाए हैं, जिसका वे खुद अपनों का समर्थन नहीं ले पा रहे हैं।

आतंकवादी को क्यों पनाह दे रहा कनाडा

उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि पीएम ट्रूडो बिना सोचे समझे आरोप लगा रहे हैं और उनके पास सरकार के खिलाफ लगाए गए आरोपों का समर्थन करने के लिए सबूत नहीं हैं। ऐसे में उन्हें यह बताना होगा कि यह सरकार एक आतंकवादी को क्यों पनाह दे रही है? निज्जर कोई प्लंबर नहीं था, ठीक उसी तरह जैसे ओसामा बिन लादेन इंजीनियर नहीं था। उसके हाथ कई हमलों में खून से सने थे। प्रधानमंत्री ट्रूडो ने यह मुद्दा उठाया है, लेकिन उनके कहने का मतलब क्या था, इस पर आम सहमति नहीं थी।

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