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प्रसव के बाद पर्याप्त नींद न लेने पर होती हैं स्वास्थ्य संबंधी ये परेशानियां, जानें- क्या कहता है रिसर्च

यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया लास एंजिलिस के शोधकर्ताओं ने 33 माताओं पर अध्ययन किया। शोध की मुख्य लेखिका जूडिथ कैरोल और यूसीएलए में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जार्ज एफ सोलोमोन ने बताया कि प्रसव के बाद शुरुआती महीनों में कम सोने का प्रभाव लंबे समय तक पड़ता है।

By Neel RajputEdited By: Updated: Sun, 08 Aug 2021 11:51 AM (IST)
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यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया लास एंजिलिस के शोधकर्ताओं ने 33 माताओं पर किया अध्ययन
वाशिंगटन, एएनआइ। प्रसव के बाद बच्चे की देखभाल के कारण माताओं की नींद में खलल पड़ना कोई नई बात नहीं है। इसके कारण उन्हें स्वास्थ्य संबंधी कई परेशानियां भी हो जाती हैं। लेकिन अब एक और समस्या सामने आई है। यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया लास एंजिलिस (यूसीएलए) के विज्ञानियों ने बताया कि नींद की कमी के कारण नई माताओं में बुढ़ापा (एजिंग) भी तेज हो जाता है। यानी बुढ़ापे के लक्षणों में तेजी आ जाती है। यह शोध स्लीप हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने 23 से 45 साल की 33 महिलाओं का गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के एक साल बाद तक अध्ययन किया। इस दौरान महिलाओं के रक्त नमूने के डीएनए का विश्लेषण किया गया। देखा गया कि उनकी वास्तविक उम्र (क्रोनोलाजिकल एज) और जैविक उम्र (बायोलाजिकल एज) में फर्क होता है। उन्होंने पाया कि जिन महिलाओं ने बच्चे को जन्म देने के एक साल में कम से कम छह महीने रात में सात घंटे से कम नींद ली, उनमें सात या इससे अधिक समय सोने वाली नई माताओं की तुलना में तीन से सात साल तक ज्यादा उम्र के लक्षण प्रतीत हुए।

इतना ही नहीं, जिन माताओं ने सात घंटे से कम नींद ली, उनके व्हाइट ब्लड सेल्स (डब्ल्यूबीसी) में टेलोमेयर (गुणसूत्र के छोर पर पाई जाने वाली एक यौगिक संरचना) का आकार भी छोटा था। यह संरचना जूते के फीते के छोर पर लगे प्लास्टिक जैसे सुरक्षा कैप की तरह काम करता है। टेलोमेयर के छोटा होने से कैंसर, कार्डियोवास्कुलर (हृदय तथा रक्तवाहिका संबंधी) और अन्य रोगों के खतरे के साथ ही जल्द मौत का भी जोखिम बढ़ता है।

शोध की मुख्य लेखिका जूडिथ कैरोल और यूसीएलए में मनोविज्ञान के प्रोफेसर जार्ज एफ सोलोमोन ने बताया कि प्रसव के बाद शुरुआती महीनों में कम सोने का प्रभाव लंबे समय तक पड़ता है। एक शोध से पता चला है कि रात में सात घंटे से कम सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है या यह बढ़ती उम्र संबंधी रोगों का जोखिम भी बढ़ाता है।

उन्होंने बताया कि शोध में शामिल महिलाएं रात को औसतन पांच से नौ घंटे सोती थीं, लेकिन इनमें से आधे से ज्यादा छह महीने या सालभर तक सात घंटे से कम ही सोती थीं।

यूसीएलए के जेन एंड टेरी सेमेल इंस्टीट्यूट फार न्यूरोसाइंस एंड ह्यूमैन बिहेवियर में कजन्स सेंटर फार साइको न्यूरो इम्युनोलाजी की सदस्य कैरोल के मुताबिक, पाया गया कि हर अतिरिक्त घंटे की नींद से नई माताओं की जैविक उम्र कम दिखने लगती है। उन्होंने कहा कि मैं और अन्य स्लीप साइंटिस्ट मानते हैं कि स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार से खानपान और व्यायाम का महत्व है, उसी तरह नींद भी अहम है।

कैरोल नई माताओं को सलाह देती हैं कि दिन में जब कभी बच्चा सोया हो तो उन्हें भी उसी समय कम से कम झपकी तो लेनी ही चाहिए और बच्चे की देखभाल में परिवार या मित्रों की भी मदद लेनी चाहिए। इस तरह से अपनी नींद का ख्याल कर आगे भी अपनी और बच्चे की बेहतर देखभाल की जा सकती है।

शोध की सह-लेखिका क्रिस्टीन डंकेल शेटर के मुताबिक, डीएनए में होने वाले बदलाव के विश्लेषण में आधुनिकतम तकनीक, जिसे एपिजेनेटिक एजिंग भी कहते हैं, का सहारा लिया गया ताकि बायोलाजिकल एजिंग का सही-सही आकलन किया जा सके। डीएनए प्रोटीन के उत्पादन का कोड उपलब्ध कराता है। यह प्रोटीन कोशिकाओं और शरीर में कई प्रकार का काम करता है। एपिजेनेटिक्स यह बताता है कि इस कोड के क्षेत्र खुले हैं या बंद।

कैरोल बताती हैं कि डीएनए को आप एक ग्रासरी स्टोर मान सकते हैं, जिसमें खाना बनाने के लिए तमाम तरह के आइटम हैं, लेकिन ये यदि किसी गलियारे में फैल जाएं यह स्टोर बंद हो जाएगा और आप जरूरी सामान नहीं ले सकते, जिसके कारण आप खाना भी नहीं बना पाएंगे। इसी तरह जब डीएनए बंद हो जाए तो खास प्रकार के प्रोटीन के कोड नहीं मिल पाएंगे और आखिरकार यह प्रक्रिया बंद हो जाएगी।

चूंकि डीएनए का विशिष्ट स्थान उम्र के साथ खुलता और बंद होता है, इसलिए यह प्रक्रिया घड़ी की तरह चलती है। इससे विज्ञानी किसी व्यक्ति की जैविक उम्र (बायोलाजिकल एज) का अनुमान लगाते हैं। किसी व्यक्ति की बायोलाजिकल या एपिजेनेटिक एज जितनी अधिक होगी, उसे रोग और मौत का खतरा उतना ही ज्यादा होगा।