भारत को गंभीरता से लेने और उसे वैश्विक शक्ति का दर्जा देने को तैयार है चीन!
संबंधों में नयापन लाने के लिए सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की भारत यात्रा हुई और फिर मई 2015 में मोदी स्वयं चीन के दौरे पर गए।
[पवन चौरसिया]। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इस समय बड़ी अनिश्चिताओं का दौर है। पश्चिमी एशिया में एक ओर जहां अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा ओबामा शासन में लंबे कूटनीतिक संघर्षो के बाद ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को समाप्त करने की बात की जा रही है, सीरिया पर अमेरिका एवं मित्र देशों के हमले के बाद रूस और पश्चिमी राष्ट्रों के बीच तनाव में बढ़ोतरी हो रही है, वहीं दूसरी ओर दुनिया की दो विशाल सैन्य एवं आर्थिक महाशक्तियां चीन और अमेरिका एक-दूसरे के साथ व्यापार-युद्ध में जाते हुए दिखाई दे रही हैं। इन सब वैश्विक उथलपुथल की परिस्थितियों के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अनौपचारिक चीन दौरा वैश्विक-शासन, विश्व-शांति और वैश्विक-व्यापार की दृष्टि से दोनों देशों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी राहत की खबर लेकर आया है। मध्य चीन के वुहान शहर में प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की अनौपचारिक मुलाकात कई मायनों में बेहद खास रही।
संबंध सुधारने के प्रयास
वैसे तो 2014 में चुनाव जीतने के बाद से ही प्रधानमंत्री मोदी ने चीन से संबंध सुधारने के लिए ढेरों प्रयास किए हैं, लेकिन उन्हें अब तक कोई विशेष सफलता नहीं मिल सकी है। संबंधों में नयापन लाने के लिए सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की भारत यात्रा हुई और फिर मई 2015 में मोदी स्वयं चीन के दौरे पर गए। हालांकि उसके बाद से दोनों देशों के बीच अविश्वास बढ़ता ही गया और कई मुद्दों पर असहमति और गतिरोध बना। अब यह मुलाकात ऐसे समय में हुई है जब पिछले साल सिक्किम के डोकलाम क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के कारण भारत-चीन संबंध अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुके थे। 73 दिनों तक चले उस गतिरोध के बाद दोनों ही देशों के लिए बहुत आवश्यक था कि वे विश्वास-बहाली और संबंधों को सुधारने के लिए कुछ असामान्य कदम उठाएं। ऐसे में वुहान में यह अनौपचारिक मुलाकात एक अलग ढांचे, अलग वातावरण में की गई, जिसमें किसी भी प्रकार के समझौते पर हस्ताक्षर करने का कोई दबाव नहीं था।
क्या कहते हैं जानकार
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हर्ष पंत का मानना है कि इस तरह की अनौपचारिक बैठक चीन सभी देशों के साथ नहीं करता है। इससे पहले उसने बराक ओबामा और ट्रंप के साथ ही ऐसी बातचीत की है और अब मोदी के साथ। इससे कहीं न कहीं वह यह संकेत दे रहा है कि अब वह भारत के नेतृत्व को गंभीरता से लेने, उसको वैश्विक शक्ति का दर्जा देने को तैयार है और भारत की बढ़ती छवि को स्वीकार करता है। ज्ञात रहे कि हाल ही के दिनों में अमेरिका द्वारा व्यापार-घाटे को कम करने के लिए संरक्षणवादी नीतियों को अपनाने के कारण चीन के सामने वैश्विक व्यापार की बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई है। वहीं दक्षिण चीन समुद्र विवाद को लेकर चीन के अपने पड़ोसी देशों से संबंध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं।
विकसित हो रही समझ
ऐसे में चीन को अपने सामान को बेचने के लिए नए बाजारों की आवश्यकता है, जो बिना मैत्री संबंधों के संभव नहीं है। शायद अब यह समझ भी विकसित हो रही है कि भले ही द्विपक्षीय मुद्दों पर असहमति हो, लेकिन बहुपक्षीय मुद्दों पर दोनों को साथ मिलकर चलाना ही होगा फिर चाहे वह जलवायु परिवर्तन को लेकर हो, वैश्विक आतंकवाद को लेकर या नई विश्व व्यवस्था को लेकर। दोनों नेताओं के शारीरिक हाव-भाव से इतना तो साफ जाहिर है कि दोनों देश अब नए वैश्विक समीकरण में रचनात्मक एवं सकारात्मक रूप से संबंध बनाना चाहते हैं, लेकिन देखना यह भी होगा कि क्या इस तरह की अनौपचारिक वार्ताएं वह कमाल कर पाएंगी जो शिखर सम्मलेन भी नहीं कर पाए हैं?
[शोधार्थी, जेएनयू]
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