चीन के आंखों की किरकिरी बना ताइवान आखिर कैसे बना एक स्वतंत्र राष्ट्र
ताइवान को लेकर चीन से उसके तनाव भरे रिश्ते किसी से अछूते नहीं रहे हैं। लेकिन ताइवान के चीन से अलग होने और पूरे विवाद की जानकारी हममें से कई नहीं जानते हैं।
By Kamal VermaEdited By: Updated: Thu, 03 Jan 2019 11:43 AM (IST)
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। चीन और ताइवान के बीच काफी समय से तनाव है। यहां पर इसका जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने एक दिन पहले ही ताइवान को लेकर दो बड़ी बातें कही हैं। ताइवान के सभी लोगों को साफतौर पर इस बात का अहसास होना चाहिए कि ताइवान की आजादी ताइवान के लिए सिर्फ गंभीर त्रासदी लाएगी। हम शांतिपूर्ण एकीकरण के लिए व्यापक स्थान बनाने को तैयार है, लेकिन हम अलगाववादी गतिविधियों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ेंगे। इसके साथ ही उन्होंने यह भी साफ कर दिया है कि एकीकरण के लिए वह सेना का इस्तेमाल न करने का वादा नहीं कर सकते और सभी जरूरी विकल्प को सुरक्षित रखते हैं। यह बात उन्होंने बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ पीपल्स में ताइवान नीति से जुड़े कार्यक्रम के दौरान कही है। शी ने इस दौरान अमेरिका को भी चेतावनी दी है कि ताइवान और चीन के अंदरूनी मामलों में उसको किसी भी बाहरी देश की दखल कतई मंजूर नहीं है। शी जिनपिंग का बयान उस वक्त सामने आया है जब इसके एक दिन पहले ही ताइवान के राष्ट्रपति तसाई इंग-वेन की तरफ से कहा गया था कि बीजिंग को ताइवान के अस्तित्व को स्वीकार करना चाहिए और शांतिपूर्ण ढंग से मतभेद सुलझाने चाहिए। तसाई ने इस दौरान यहां तक कहा था कि चीन को आजादी और लोकतंत्र में रह रहे 2.3 करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।
ताइवान से अन्य देशों के संबंध
चीन लगातार उसे अपना हिस्सा बताता रहा है वहीं ताइवान अपने को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर चुका है। इतना ही नहीं एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर उसके कई अन्य देशों से संबंध भी हैं। आपको बता दें कि विश्व के करीब 17 देश ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर मान्यता देते हैं। इनमें से 16 देशों के ताइवान में दूतावास भी हैं। वहीं करीब 50 देशों के ताइवान से डिप्लोमेटिक रिलेशन नहीं हैं। इसके बाद भी इन देशों के यहों पर ट्रेड ऑफिस भी हैं। इनमें अमेरिका समेत भारत, रूस समेत दूसरे देश भी शामिल हैं। लेकिन इसके बाद भी चीन और ताइवान के बीच की कहानी को कम ही लोग जानते हैं। आज हम आपको इसका ही जवाब दे रहे हैं।
चीन से अलग होकर यूं सामने आया था ताइवान
दरअसल, चीन में दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1946 से 1949 तक राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्ट पीपुल्स आर्मी के बीच गृह युद्ध हुआ था। 1949 में खत्म हुए इस युद्ध में राष्ट्रवादी हार गए और चीन की मुख्यभूमि से भागकर ताइवान नाम के द्वीप पर चले गए। उन्होंने ताइवान को एक स्वतंत्र देश घोषित किया और उसका आधिकारिक नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना रख दिया गया। आपको बता दें कि चीन का आधिकारिक नाम पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना है। तनाव के बाद भी दोनों पक्षों के बीच गहरे कारोबारी, सांस्कृतिक और निजी व्यक्तिगत संबंध हैं। लेकिन लोकतंत्र के मुद्दे पर चीन और ताइवान में काफी अंतर है। ताइवान जहां लोकतांत्रिक शासन में विश्वास रखता है वहीं चीन एकपार्टी शासन में विश्वास रखता है।
चीन की विस्तारवादी नीति
आपको यहां पर बता दें कि चीन की विस्तार नीति का ही हिस्सा था कि 1951 में तिब्बत पर हमला कर उसको अपने कब्जे में ले लिया गया। 1959 में चीन ने ल्हासा को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेकर उसको अपना हिस्सा घोषित कर दिया था। तिब्बत के लोगों की आजादी की मांग को दरकिनार करते हुए चीन इस हिस्से को लगातार अपना अभिन्न अंग बताता रहा है। इतना ही नहीं वह भारत के अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना हक जताता रहा है। इसी तरह से वह ताइवान समेत पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के द्वीपों पर भी पर भी अपना दावा जताता है। दक्षिण चीन सागर भी उसकी विस्तारवादी नीति का ही परिणाम है, जिस पर अमेरिका और चीन आमने सामने हैं।चीन का आक्रामक रुख
यह बात काफी रोचक है कि हाल के कुछ वर्षों में चीन अपनी संप्रभुता को लेकर आक्रामक रुख दिखा रहा है। जहां तक ताइवान की बात है तो वह अन्य देशों को भी ताइवान से अलग से रिश्ते रखने पर आक्रामक होता रहा है। इस बात के लिए बाध्य भी करता है कि वे या तो चीन के साथ कूटनीतिक रिश्ते रखें या ताइवान के साथ। इतना ही नहीं वर्ष 2018 में चीन ने अंतरराष्ट्रीय एयरलाइन कंपनियों और होटल कंपनियों को भी अपनी वेबसाइट पर ताइवान को चीन का हिस्सा बताने के लिए बाध्य किया था।अमेरिका को लेकर चीन खफा
ताइवान को लेकर चीन की बड़ी परेशानी अमेरिका भी है। वह दोनों देशों की नजदीकी से काफी खफा है। वहीं अमेरिका की बात करें तो वह ताइवान को अपना करीबी साझेदार मानता है। चीन के आक्रामकता को दरकिनार करते हुए अमेरिका ताइपे को हथियार और अत्याधुनिक लड़ाकू विमान भी मुहैया कराता है। 2018 में अमेरिका ने ताइवान रिलेशंस एक्ट और ताइवान ट्रैवल एक्ट भी पास किए. इनके तहत दोनों देशों के आम नागरिक और उच्च अधिकारी एक दूसरे के यहां आसानी से आ जा सकते हैं। इसको लेकर भी चीन ने अपनी आपत्ति जताई थी। हालांकि चीन को लेकर भी अमेरिका की मौजूदा सरकार न चाहते हुए भी वन चाइना पॉलिसी को जारी रखे हुए है।दोनों की सोच काफी अलग
अमेरिका ताइवान का डब्ल्यूटीओ, एपेक, एशियाई विकास बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में उसकी सदस्यता का समर्थन करता है। ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका की अलग-अलग सोच है। चीन जहां विस्तारवादी नीति की तरफ आगे बढ़ रहा है वहीं अमेरिका एशिया में अपनी पैंठ बनाने और सैन्य अड्डा बनाने की तरफ आगे बढ़ रहा है। ताइवान की भौगोलिक स्थिति अमेरिका के लिए काफी बेहतर भी है। वह यहां से चीन समेत दूसरे देशों पर करीब से नजर रख सकता है। वहीं इस इलाके के छोटे देशों के लिए वह सुरक्षा की गारंटी भी हो सकता है।आखिर कौन हैं वो दो महिलाएं जिन्होंने सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर तोड़ी थी परंपरा
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