मगर आपको बता दें कि इजरायल और ईरान के बीच हमेशा तनाव भरे रिश्ते नहीं रहे हैं। एक ऐसा भी वक्त था जब दोनों देश एक-दूसरे को सहयोग भी देते थे। अक्टूबर 1980 में इजरायल ने इराक के खिलाफ ईरान को अमेरिकी F-4 लड़ाकू विमानों के 250 स्पेयर टायर की आपूर्ति भी की थी।
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दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। इस सिद्धांत का पालन 1960 की दशक में इजरायल और ईरान दोनों ने किया। इराक को निपटाने की खातिर इजरायली की खुफिया एजेंसी मोसाद और ईरान की सावाक ने हाथ मिलाया। दोनों खुफिया एजेंसियों ने इराकी शासन के खिलाफ कुर्द विद्रोहियों को खड़ा किया। इन विद्रोहियों ने इराक के नाक में दम कर दिया था।
पहली बार ईरान में खुला 'दूतावास'
ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी को इजरायल के प्रभाव के बारे में पता था। वह इजरायल के प्रभाव का इस्तेमाल अमेरिका के साथ संबंधों को मधुर बनाने में करना चाहते थे। दरअसल, उस वक्त ईरान और अमेरिका के बीच रिश्ते ठीक नहीं थे।
ईरान का मानना था कि इजरायल संबंधों को सुधारने में मदद कर सकता है। इजरायल और ईरान के बीच बेहतर संबंधों का नतीजा ही था कि 1960 में पहली बार तेहरान में एक स्थायी इजरायली प्रतिनिधिमंडल की स्थापना हुई। यह प्रतिनिधिमंडल दूतावास की तरह काम करता था।
शाह ने रिश्तों को नहीं किया सार्वजनिक
उन दिनों अरब देशों में इजरायल का भारी विरोध हो रहा था। इस वजह से ईरान के शाह ने कभी इजरायल के साथ अपने रिश्तों को सार्वजनिक नहीं किया। बाद में 1967 में हुए छह दिवसीय युद्ध के बाद ईरानी शाह ने इजरायल की आलोचना भी की थी।
साल 1979 में हुई इस्लामी क्रांति ने इजरायल और ईरान के रिश्तों को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया। इजरायल विरोधी लहर ईरान में भी तेज होने लगी। मगर विरोध के बावजूद ईरान की अयातुल्ला खुमैनी सरकार ने गुपचुप तरीके से इजरायल के साथ रिश्तों को जारी रखा। इसकी सबसे बड़ी मजबूरी इराक था।
इराक के खिलाफ इजरायल ने की ईरान की मदद
ईरान-इराक युद्ध 1980 से 1988 तक चला। इस दौरान इराक के शासक सद्दाम हुसैन के खिलाफ इजरायल ने ईरान का साथ दिया। दरअसल, सद्दाम हुसैन इजरायल विरोधी थे। उन दिनों सद्दाम हुसैन परमाणु हथियार बनाने की योजना पर काम कर रहे थे। इजरायल नहीं चाहता था कि परमाणु हथियार सद्दाम हुसैन के हाथ लगे। इसके जवाब में इजरायल ने ईरान को हथियार देने का निर्णय लिया। उधर, इराक को अमेरिका और रूस से हथियार मिल रहे थे।
अमेरिका के खिलाफ किया सैन्य समझौता
इजरायली प्रधानमंत्री मेनाचेम बेगिन ने 1980 में ईरान को सैन्य उपकरणों की बिक्री करने को मंजूरी दी। ईरान से इजरायल की दोस्ती का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह हथियार समझौता अमेरिका के विरुद्ध जाकर किया गया था। दरअसल, तेहरान में अमेरिका के 52 राजनयिक बंधक थे। इस वजह से अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा था। उसका कहना था कि जब तक हमारे नागरिक रिहा नहीं होंगे तब तक ईरान को कोई सैन्य मदद नहीं कर सकता है।
खोमैनी सरकार ने इजरायल को दिया था तोहफा
इजरायल के साथ हथियार समझौते से ईरान की खोमैनी सरकार बेहद खुश हुई थी। जवाब में उसने इजरायल को बड़ा तोहफा दिया। तोहफा यह था कि खोमैनी सरकार ने ईरान में रहने वाले 60 हजार यहूदियों को इजरायल और अमेरिका जाने की अनुमति दे दी।
क्या है ऑपरेशन फ्लावर?
इजरायल और ईरान के संबंधों पर सबसे अधिक चर्चा ऑपरेशन फ्लावर की होती है। यह दोनों देशों के बीच मिसाइल से जुड़ा एक गुप्त समझौता था। समझौते के तहत इजरायल को ईरान के लिए सतह से सतह मार करने वाली मिसाइलों को तैयार करना था। ये मिसाइलें परमाणु बम ले जाने में भी सक्षम होती। अग्रिम भुगतान के तौर पर साल 1978 में ईरान ने 260 मिलियन डॉलर का तेल इजरायल भेजा। हालांकि इस प्लान पर सिर्फ 1979 तक ही काम चला।
1990 के बाद बिगड़ने लगे रिश्ते
1990 के बाद ईरान और इजरायल के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे। ईरानी सरकार ने इजरायल के खिलाफ हिजबुल्लाह और हमास जैसे संगठनों के साथ रिश्ते मधुर बनाने को ज्यादा अहमियत दी। इन संगठनों की इजरायल से नहीं बनती थी। इसके बाद ही दोनों देशों के बीच रिश्ते बिगड़ने लगे।
2005 में महमूद अहमदीनेजाद ने ईरानी राष्ट्रपति का चुनाव जीता। महमूद ईरान को एक परमाणु ताकत बनाना चाहता थे। इनकी विदेश नीति भी आक्रामक थी। इजरायल के खिलाफ लगातार बयानबाजी ने रिश्तों को और बिगड़ दिया। इसके बाद ईरान ने इजरायल के खिलाफ 2006 युद्ध में हिजबुल्लाह और 2008 में हमास का साथ दिया।
जब इजरायल ने बनाया खुफिया गठबंधन
आज भले ही तुर्किये इजरायल के खिलाफ जहर उगलता हो मगर एक समय इजरायल, ईरान और तुर्किये ने मिलकर एक त्रिपक्षीय खुफिया गठबंधन तैयार किया था। इसका नाम ट्राइडेंट रखा गया था। तीनों देश इसी गठबंधन के तहत खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान करते थे। यही से इजरायल और ईरान के मजबूत संबंधों का नींव पड़ी थी।
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