इस बार यदि उत्तर और दक्षिण कोरिया में नहीं बनी बात तो स्थिति होगी बेहद खतरनाक!
सांकेतिक रूप में उत्तर कोरिया के नेता ने अलग समय निर्धारण रेखा को समाप्त कर दक्षिण कोरिया के टाइम जोन को अपना लिया है।
[प्रो. सतीश कुमार]। पिछले दिनों उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे इन के बीच शिखर वार्ता हुई। इस वार्ता को ऐतिहासिक तो माना जा रहा है, लेकिन साथ ही इसने कई प्रश्न को भी जन्म दिया है, जिनका प्रभाव विश्व राजनीति पर भी होगा। उत्तर कोरिया ने इस वार्ता को ऐतिहासिक बताते हुए राष्ट्रीय सुलह, एकता, शांति और समृद्धि के एक युग की शुरुआत की बात स्वीकार की है, लेकिन वार्ता की शुरुआत परमाणु हथियारों को लेकर हुई है। हालांकि जिस परमाणु मुक्त कोरियाई प्रायद्वीप के साझा लक्ष्य की अब बात की जा रही है, उस संदर्भ में अभी कोई ठोस रूप रेखा नहीं बनी है, न ही इसके लिए कोई समय सीमा तय की गई है, लेकिन जोंग ने दक्षिण कोरिया को विश्वास दिलाया है कि जून में उनकी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शिखर वार्ता के पहले उत्तर कोरिया एकमात्र भूमिगत परमाणु परीक्षण केंद्र पर ताला लगा देगा। ऐसा होने के पहले जोंग परमाणु विशेषज्ञों और पत्रकारों को निमंत्रण देंगे जो मुख्यत: अमेरिका और दक्षिण कोरिया से आएंगे।
हालांकि सांकेतिक रूप में उत्तर कोरिया के नेता ने अलग समय निर्धारण रेखा को समाप्त कर दक्षिण कोरिया के टाइम जोन को अपना लिया है। 2015 में उत्तर कोरिया ने एक अलग राष्ट्र की छवि बनाने के लिए अपने टाइम जोन को 30 मिनट पीछे खींच लिया था। उसने तर्क दिया था कि जापान के आधिपत्य के पूर्व कोरिया की समय सारणी ऐसी ही थी। जाहिर है यह पानमूनजोम उद्घोषणा पत्र कई प्रश्नों के साथ विश्व राजनीति को झकझोरने का काम कर रहा है। पहला, क्या उत्तर कोरिया अपने परमाणु हथियारों को खत्म करने का मन बना चुका है या महज एक छलावा है? दूसरा, क्या अमेरिका उत्तर कोरिया के अंतरराष्ट्रीय परमाणु प्रक्षेपास्त्र की मारक क्षमता से डर गया है? तीसरा, दोनों कोरिया के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी चीन है। क्या चीन को अलग-थलग कर कोरियाई सम्मेलन अपने सुनिश्चित मुकाम पर पहुंच सकता है। चौथा, अगर एकता की बात बन भी जाती है तो इसका आर्थिक परिणाम क्या होगा?
किम जोंग उन ने अपने तेवर में बुनियादी बदलाव को परिभाषित करते हुए कहा कि उत्तर कोरिया किसी भी कीमत पर 1950 की दुखद युद्ध की गाथा कभी नहीं दोहराएगा, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि एक तानाशाह शासक का हृदय परिवर्तन कैसे हो गया? जोंग एक महीने पहले अमेरिका को बर्बाद करने की बात कर रहे थे, अचानक वार्ता के लिए तैयार कैसे हो गए? उत्तर कोरिया निरंतर आर्थिक प्रतिबंधों के कारण लगभग तबाह हो चुका है। उत्तर कोरिया की आधी आबादी कुपोषण की शिकार है। बेरोजगारी बड़े पैमाने पर फैली हुई है। हर दिन दैनिक आवश्यकताओं की किल्लत गले की फांस बनती जा रही है। क्या वह इस फांस से निकलने के लिए वार्ता की पहल कर रहा है या सही मायने में अपनी सैनिक बुनियाद को बदलकर एक सम्मानजनक राष्ट्र की नींव स्थापित करना चाहता है? बहरहाल इन बातों को समझने के लिए पृष्ठभूमि की व्याख्या जरूरी है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उत्तर कोरिया एक साम्यवादी देश है, पर वहां साम्यवाद के साथ सैनिक हुकूमत और राजशाही का मिश्रण भी है। पिछले 70 सालों से किम परिवार एक राजवंश की तरह शासन कर रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में ही यह व्यवस्था जोड़ दी गई कि किम इल सुंग के परिवार का ही कोई उत्तराधिकारी उसका नेता होगा और उत्तर कोरिया पर शासन करेगा। इसका ऐतिहासिक कारण है किम के परिवार ने देश को बनाने और औपनिवेशिक शक्तियों से बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जोंग के दादा ने कोरिया की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रखने के लिए विश्व की शक्तियों का बुद्धिमतापूर्ण प्रयोग किया था। कभी स्टालिन का तो कभी चीन के नेता माओत्से तुंग का। उद्देश्य केवल कोरिया को एक स्वतंत्र इकाई बनाना था, जिसमें औपनिवेशिक शक्तियों का वर्चस्व नहीं हो। किम इल सुंग दोनों कोरिया को एक सूत्र में बांधने के हिमायती थे। उन्होंने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण करके कोरिया के एकीकरण की पहल की थी।
चीन और रूस दोनों की मदद से उत्तर कोरिया की सेना दक्षिण कोरिया के बड़े क्षेत्र को हड़पने में सफल हो गई। पुन: अमेरिका ने दक्षिण कोरिया को बचाने के लिए युद्ध में छलांग लगा दी। फिर अमेरिका समर्थित पश्चिमी देश भी दक्षिण कोरिया के पक्ष में उतर गए। स्थिति तृतीय विश्वयुद्ध की बनने लगी। तीन वर्ष तक युद्ध चला। लाखों लोग मारे गए। किसी की हार या जीत नहीं हुई। दोनों पक्षों को अपनी मूल सीमाओं से संतोष करना पड़ा। इसी से दोनों कोरिया अपने ढंग से अपने को पूरे कोरिया का असल मालिक मानते हैं। चूंकि कोरिया युद्ध का स्वरूप वैश्विक हो चुका था इसलिए युद्ध के उपरांत उनकी शक्ल भी दो विपरीत खंडों में बंट गई। शीत युद्ध की तपिश में एक पूंजीवादी बन गया तो दूसरा साम्यवादी।
पूर्व सोवियत रूस के प्रभाव के कारण उत्तर कोरिया में कम्युनिस्ट शासन प्रणाली स्थापित हुई और अमेरिका के प्रभाव के कारण दक्षिण कोरिया में पूंजीवादी व्यवस्था की नींव पड़ गई। उत्तर कोरिया के तेवर उत्तर कोरिया की आबादी तकरीबन ढाई करोड़ है, लेकिन उसके पास दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना है। नियमित सैनिकों की संख्या 12 लाख से अधिक है। अर्थात चीन, भारत, अमेरिका के बाद सबसे बड़ी सेना उत्तर कोरिया की है। अगर इसमें अर्धसैनिक बल और आरक्षित सेना को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या 92 लाख से ऊपर पहुंच जाती है।
इतनी विशाल सेना का होना न केवल कोरिया प्रायद्वीप के लिए अतिरंजना है, पूरे विश्व के लिए भी चुनौती है, क्योंकि सैनिक तानाशाही के साथ परमाणु शक्ति का जुटना ज्यादा घातक बन गया है। उत्तर कोरिया का परमाणु शक्ति बनना कम खतरनाक नहीं है। अमेरिका सहित पूरी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुए उत्तरी कोरिया ने इसका अहसास करा भी दिया है। उसका मानना है कि वह मात्र एक ऐसा देश है जिसके ऊपर नाभिकीय छतरी नहीं है। शेष अन्य देशों को यह सुरक्षा अमेरिका द्वारा दी गई है जिसमें दक्षिण कोरिया और जापान भी शामिल हैं। यह अलग बात है कि ट्रंप के आने के बाद से अन्य देशों की सुरक्षा व्यवस्था संदेह के घेरे में पड़ गई है।
उत्तर कोरिया ने 2006 में अपने परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत कर दी थी। इस प्रयास में चीन और पाकिस्तान की मदद उसको मिलती रही। स्थिति विस्फोटक तब बन गई, जब वहां के सैनिक तानाशाह ने यह घोषणा कर दी कि अब उसके पास अंतरदेशीय प्रक्षेपास्त्र बनकर तैयार हो गए हैं, जिनकी मारक क्षमता अमेरिका तक है। पिछले महीने जोंग और ट्रंप की तू-तू मैं-मैं में बात बहुत बिगड़ गई। डर और संशय न केवल उत्तर कोरिया को हुआ, बल्कि अमेरिका भी डर गया। यही कारक बना उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच इस शांति वार्ता का। उत्तर कोरिया पूरी तरह से आर्थिक प्रतिबंध में झुलस गया है। ऐसे हालात में वार्ता के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं बचा था।
क्या हो भारत की नीति 1950-53 के कोरियाई युद्ध के बाद भारत ने बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाई थी। भारत का संबंध दोनों कोरियाई देशों से था। चूंकि दक्षिण कोरिया का आर्थिक ढांचा मजबूत है इसलिए संबंध की लकीर उसके साथ ज्यादा गहरी है। इस वर्ष दक्षिण कोरिया की महत्वपूर्ण कार कंपनी आंध्र प्रदेश में अपना प्लांट खोल रही है। दूसरी तरफ परमाणु परीक्षण के प्रयासों की वजह से भारत ने उत्तर कोरिया से अपना व्यापार बंद कर दिया है। भारत की सोच शांति और परमाणुहथियारों को खत्म करने की है इसलिए भारत इस शिखर वार्ता की सफलता की कोशिश कर रहा है।
ऐसे में यह कहना कि यह संधि महज दो कोरियाई देश के बीच है, गलत होगा। इसमें अमेरिका, चीन, जापान और रूस की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। यह भी समझना गलत होगा कि कोरिया प्रायद्वीप की स्थिति केवल उत्तर कोरिया के कारण बिगड़ी है। बाहरी शक्तियों ने भी स्थिति को बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अब दोनों देशों में मुख्य वार्ता जून में होगी। अगर बात बनी तो विश्व राजनीति के लिए नया अध्याय होगा। 2000 में भी एक प्रयास हुआ था। केवल पहल के आधार पर ही दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति को नोबेल शांति पुरस्कार दे दिया गया था, लेकिन बात बनने के पहले ही बिगड़ गई। इस बात का संदेह आज भी है। अगर ऐसा हुआ तो स्थिति और खतरनाक बनेगी।
[विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय]
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