नई दिल्ली, विवेक तिवारी । उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग से अब तक 1300 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जल चुका है। इसे रोकने के लिए कई तरह के प्रयास हो रहे हैं। वैज्ञानिक इस आग के लिए जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी को जिम्मेदार मान रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंस के वैज्ञानिकों के अध्ययन के मुताबिक बढ़ती गर्मी के चलते पिछले एक दशक में उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग के मामले 47 गुना बढ़ गए हैं। वैसे, जलवायु परिवर्तन के चलते जंगलों में आग लगने की घटनाएं पूरी दुनिया में बढ़ी हैं। आने वाले दिनों में गर्मी बढ़ने पर ऐसी घटनाओं में भी इजाफा हो सकता है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंस के वैज्ञानिकों के अध्ययन के मुताबिक 2002 में उत्तराखंड में जंगलों में आग लगने के 922 मामले दर्ज किए गए थे। 2019 में इनकी संख्या 41600 हो गई। इस अध्ययन में शामिल प्रोफेसर ऊषा मीणा इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराते हुए कहती हैं, रिमोट सेंसिंग के जरिए लिए गए आंकड़ों में आग की घटनाओं का बढ़ना साफ देखा जा सकता है। दरअसल, उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ के अनेक पेड़ हैं। इसकी पत्तियां गर्मियों में बेहद ज्वलनशील हो जाती हैं। मौसम में बदलाव से चीड़ की पत्तियों के झड़ने का समय भी बदला है। गर्मी के चलते इन पत्तियों में नमी की मात्रा भी बहुत कम रह जाती है। ऐसे में एक छोटी सी लापरवाही कुछ ही घंटों में बड़ी घटना बन जाती है। आने वाले दिनों में अगर गर्मी बढ़ती है तो आग लगने की घटनाओं में भी बढ़ोतरी होगी।

बांबी बकेट से जंगलों में पानी का हो रहा छिड़काव

उत्तराखंड सरकार जंगलों में लगी आग को नियंत्रित करने के लिए रूसी तकनीक से बनी बांबी बकेट का इस्तेमाल कर रही है। मुख्य वन संरक्षक एवं हरिद्वार और देहरादून में आग को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए नोडल अधिकारी डॉ पराग मधुकर धकाते कहते हैं कि एयर फोर्स के हेलिकॉप्टर की मदद से बांबी बकेट के जरिए पानी का छिड़काव किया जा रहा है। सभी जिलाधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं कि जरूरत के मुताबिक इन हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल करें। ये हेलिकॉप्टर भीमताल या नैनीताल झील से पानी लेकर जंगलों में लगी आग पर डालते हैं। वहीं जंगलों की आग को बुझाने के लिए काउंटर फायर तकनीक भी कारगर साबित हो रही है। इसमें आग से कुछ दूरी पर नए सिरे से आग लगा कर वहां की पत्तियों या अन्य ज्वलनशील चीजों को नष्ट कर दिया जाता है। इससे आग नियंत्रित हो जाती है।

क्या होता है बांबी बकेट

भारतीय वायु सेना के MI 17 V5 हेलीकॉप्टर के जरिए उत्तराखंड के नैनीताल जिले में लगी आग को बुझाने के लिए बांबी बकेट का इस्तेमाल किया जा रहा है। बांबी बकेट एक हल्का कंटेनर होता है जो हेलीकॉप्टर के नीचे आग बुझाने के लिए निश्चित क्षेत्र में पानी छोड़ता है। बांबी बकेट कई आकार में उपलब्ध होती है। चिनूक हेलिकॉप्टर में में 2,600 गैलन (9,842 लीटर) क्षमता वाली बांबी बकेट लगाई जा सकती है।

भारत में संभव नहीं है केमिकल की बारिश

पश्चिमी देशों में जंगलों में आग को नियंत्रित करने के लिए हवाई जहाज से केमिकल की बारिश की जाती है। डॉ पराग धकाते कहते हैं कि भारत में इस तरह के केमिकल की बारिश संभव नहीं है। पश्चिमी देशों में जंगल कई किलोमीटर में होते हैं और उनमें इंसान नहीं रहते। उत्तराखंड के जंगलों में और उनके आसपास बड़ी संख्या में आम लोग रहते हैं। ऐसे में यहां कैमिकल की बारिश संभव नहीं है।

जंगल की आग ओजोन परत को पहुंचा रही नुकसान

जंगल की आग पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचा ही रही है, इस आग से निकलने वाला धुआं और कैमिकल ओजोन की परत को नुकसान पहुंचा रहा है। साइंस जर्नल नेचर में छपी मसाचुसैट्स इंस्टीट्य़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये कण ओजोन की परत से रासायनिक प्रतिक्रिया शुरू कर देते हैं जिससे ओजोन की परत को नुकसान पहुंचता है। इस केमिकल रिएक्शन के चलते ओजोन परत में छेद बनने लगे हैं। इस छेद से सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणें धरती के वायुमंडल में प्रवेश कर जाती हैं जिससे पेड़ पौधों और जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचता है। इंसानों में पराबैंगनी किरणों के चलते त्वचा का कैंसर, सांस से संबंधित रोग, अल्सर, मोतियाबिंद जैसी बीमारियां हो सकती हैं।

मसाचुसैट्स इंस्टीट्य़ूट ऑफ टेक्नोलॉजी के शोधकर्ताओं ने दिसंबर 2019 से जनवरी 2020 के बीच पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में लगी जंगल की आग से निकलने वाले धुएं पर अध्ययन किया तो पाया कि इस आग के चलते वायुमंडल में 10 लाख टन से भी ज्यादा धुआं पहुंच गया। अध्ययन में पाया गया है कि धुएं में मौजूद कण ऐसी रासायनिक प्रतिक्रियाएं शुरू कर देते हैं जिससे ओजोन की परत को नुकसान पहुंचता है। रिपोर्ट के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग से ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के कई हिस्सों पर ओजोन की परत को नुकसान पहुंचा। वैज्ञानिकों ने पाया कि जंगल की आग से निकले धुएं का असर ध्रुवीय क्षेत्र पर भी देखने को मिला जिससे अंटार्कटिका के ऊपर का ओजोन परत का छेद 25 लाख वर्ग किलोमीटर चौड़ा हो गया था।

तेजी से बढ़ रहे आग लगने के मामले

भारतीय वन सर्वेक्षण (एफएसआई) की ओर से सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों के अध्ययन में पाया गया कि 2023 में 1 मार्च से 12 मार्च के बीच जंगल में आग लगने के लगभग 42,799 मामलों का पता चला। 2022 में इस दौरान आग लगने के 19,929 मामले दर्ज किए गए थे।

यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के प्रभारी वैज्ञानिक और पर्यावरणविद डॉ. फैयाज खुदसर कहते हैं कि जंगलों में आग लगने की दो बड़ी वजहें हैं। पहली वजह है जलवायु परिवर्तन। इसके चलते मौसम शुष्क हो रहा है और हवा में नमी कम हो रही है। इस साल फरवरी में काफी गर्मी रही। वहीं सर्दियां भी जल्दी खत्म हो गईं। शुष्क मौसम में जंगल में आग तेजी से लगती है। जंगलों की वनस्पतियों के साथ छेड़छाड़ भी आग लगने का बड़ा कारण है। पहाड़ों में पहले देवदार के जंगल होते थे। उनकी जगह अब चीड़ के पेड़ों ने ले ली है। जंगल में दूर दूर तक चीड़ की पत्तियां बिखरे होने के कारण आग तेजी से दूर तक फैल जाती है। जंगल में आग को रोकने के लिए स्थानीय पेड़ों को बढ़ाने की जरूरत है।