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पढ़िये- मराठों की बहादुरी के बारे में और जानिये क्यों करते रहे दिल्ली पर बार-बार आक्रमण

राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के अध्यक्ष तरुण विजय के मुताबिक हमारे देश में पराजय का इतिहास पढ़ाया जाता है विजय का नहीं। कहते हैं कि उन्हें खुशी है कि पहली बार सरकार ने दिल्ली की सिख और मराठा विजय का लाल किले में सम्मानजनक उल्लेख कराने का निर्णय लिया है।

By Jp YadavEdited By: Updated: Sat, 21 Aug 2021 01:49 PM (IST)
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पढ़िये- मराठों की बहादुरी के बारे में और जानिये क्यों करते रहे दिल्ली पर बार-बार आक्रमण

नई दिल्ली/गुरुग्राम [प्रियंका दुबे मेहता]। अगर इतिहास की इक्की-दुक्की पुस्तकों के कुछ पन्नों को छोड़ दिया जाए तो उसके अलावा किसी भी पाठ्यपुस्तक में इस बात का जिक्र नहीं मिलता कि मराठों ने दिल्ली पर आठ आक्रमण किए। यहां तक कि पानीपत की पराजय का प्रतिशोध लेने के लिए भी मराठों ने दिल्ली पर हमला किया और जीत हासिल की थी। मराठाओं की दिलचस्पी केवल दिल्ली जीतने में कतई नहीं थी। वे अपने अपमान का बदला लेने और देश को आजाद करवाने के लिए दिल्ली पर बार-बार आक्रमण करते रहे। इतिहासकार मोहन शेटे बताते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए मराठों ने सौ वर्षों तक दिल्ली पर लगातार हमले किए। मराठा सरदार महादजी शिंदे (सिंधिया) के समय मराठों ने दिल्ली पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया था और लाल किले पर भगवा ध्वज लहराया था। बाजीराव पेशवा ने दिल्ली पर हमला किया और विजयी रहे थे।

राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण के अध्यक्ष तरुण विजय के मुताबिक यह दुखद है कि हमारे देश में पराजय का इतिहास पढ़ाया जाता है, विजय का नहीं। कहते हैं कि उन्हें खुशी है कि पहली बार सरकार ने दिल्ली की सिख और मराठा विजय का लाल किले में सम्मानजनक उल्लेख कराने का निर्णय लिया है। वे चाहते हैं कि स्कूलों से लेकर उच्चतर शिक्षा के पाठ्यक्रम में मराठों की शौर्य और विजयगाथा पढ़ाई जाए। इसके अलावा दिल्ली में उनके इतिहास को ससम्मान उल्लेखित किया जाए।

शिवाजी की पुत्रवधु को छुड़ाया

1689 में औरंगजेब ने शिवाजी के पुत्र संभाजी महाराज को मार डाला था और उनकी पत्नी यशोबाई को बंदी बना लिया था। वे तीस वर्षो तक कैद में रहीं। 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद यशोबाई को लालकिले में भेज दिया गया था। पहली बार पेशवा बाजीराव के पिता बालाजी विश्वनाथ भट्ट ने 1719 में शिवाजी की पुत्रवधु यशोबाई को लाल किले से छुड़ाने के लिए दिल्ली पर हमला किया था और सफल हुए थे। यशोबाई संभाजी महाराज की पत्नी (छत्रपति साहू जी महाराज की माता) थी। यशोबाई को छुड़ाने के बाद मराठों ने उत्तर की ओर रुख किया। बाजीराव पेशवा के नेतृत्व में अटक (पाकिस्तान में) तक भगवा लहराया। मराठों ने पहली बार अफगानों और रोहिल्लों को खैबर के उस पार भगाया था। अटक के बाद पेशावर पर भी कब्जा किया। मराठा सेनापति बापूजी त्रयंबक ने मुल्तान और डेरा गाजी खान पर भी अपना कब्जा कर लिया था लेकिन रघुनाथ राव और उनके सहयोगी मल्हार राव दिल्ली पर कब्जा करने को उत्सुक थे। 1759 में रघुनाथ राव, दत्ताजी शिंदे और जनकोजी शिंदे के साथ दिल्ली की ओर रवाना हुए।

मुगलों से जीती दिल्ली

ब्रिटिश और मुगल इतिहास के अनुसार पराक्रमी मराठा पेशवा बाजीराव ने अपने भाई रघुनाथ राव को मल्हार राव होलकर के साथ दिल्ली पर हमला करने भेजा था जिन्होंने अगस्त 1757 में दिल्ली की मुगल सल्तनत को परास्त करके अगले वर्ष 1758 में रोहिल्ला और अफगानों के सम्मिलित हमले में धूल चटाई। रोहिल्ला सेनापति नजीब खान ने मराठों के सामने समर्पण कर दिया और उनकी कैद में रहा। दिल्ली पर इस दौरान मराठों का राज हुआ और उन्होंने पराक्रम और परोपकार से दिल्ली को सींचा। लेखिका और इतिहासकार स्वपना लिडले अपनी पुस्तक ‘चांदनी चौक द मुगल सिटी आफ ओल्ड देहली’ में लिखती हैं कि मराठों ने 1760 में लाल किले के दीवान-ए-खास की छत से चांदी की परत को निकलवाकर नौ लाख रुपये की कीमत के सिक्के बनवा लिए थे। मराठा सेनापति सदाशिव भाऊ ने सावन की अमावस्या की रात को निगमबोध घाट पर स्नान करके ब्राrाणों और मुसलमान भिक्षुओं को दान दिया। इस घटना का जिक्र जादू लाल सरकार की पुस्तक ‘फाल आफ द मुगल एंपायर’ के दूसरे संस्करण में भी है।

मराठा सेना ने लाल किला पर चलाई तोपें

शाह आलम के साथ हुई घटना की जानकारी जब मराठों को मिली तो महादजी शिंदे ने अपने पोते (बाजीराव मस्तानी के पोते शमशेर बहादुर के बेटे) अली बहादुर और राणा खान भाई को भेजा। इन्होंने लाल किले पर तोप के गोले बरसाए तो गुलाम कादिर खान वहां से हथियार और अपने पठानों के साथ यमुना पार करके भाग निकला। मराठों ने उसका पीछा किया। गुलाम कादिर के पास बंदूकें थीं और मराठों के पास लंबे भाले और घोड़े। मराठों पर वह गोलियां बरसाता हुआ आगे निकलता जा रहा था लेकिन जहां तक उसकी बंदूकों की पहुंच थी, मराठे उससे कुछ पीछे ही चल रहे थे। अंत में मेरठ के पास उसे घेर लिया। यहां की अंधेरी रात में लड़ाई चली तो वह रात के अंधेरे में गुलाम कादिर बागपत की तरफ निकल भागा। बागपत के पास बामनौली में एक पंडित की कच्ची कुइंया में गिर पड़ा तो पंडित ने उसे उठाकर भोजन पानी दिया। जब मराठे वहां पहुंचे तो पंडित ने उसे अली बहादुर और मराठों के हवाले कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने उसके काम से खुश होकर उस गांव की पूरी जागीर पंडित को दे दी और 1952 तक वह उसी के नाम रही। बादशाह ने महादजी को खत लिखकर भेजा कि वे गुलाम कादिर की आंखें निकलवा कर भेजें और महाद जी ने ऐसा ही करवाया। अंत में उन्होंने शाह आलम को फिर से गद्दी पर बैठा दिया। इस समूचे घटनाक्रम के बाद महादजी को दिल्ली का सबसे पराक्रमी और शक्तिशाली नेतृत्व माना जाने लगा। बाद में बादशाह ने अमीर-अल-उमरा का खिताब उनके नाम किया लेकिन उन्होंने यह खिताब लेने से इन्कार कर दिया।

लाल किले पर लहराया केसरिया झंडा

इतिहास गवाह है कि 1771 और 1788 में महादजी शिंदे के नेतृत्व में दिल्ली पर मराठों का हमला तथा कब्जा हुआ था। दिल्ली की मुगलिया सल्तनत महादजी शिंदे के नियंत्रण में थी। वे लाल किले के तख्त पर बैठे थे। लगभग 15 वर्ष दिल्ली के लाल किले पर भगवा झंडा लहराया था। इस बारे में बताते हुए इतिहासकार और इतिहास प्रेमी मंडल के अध्यक्ष मोहन शेटे का कहना है कि जब मुगल बादशाह ने महादजी शिंदे से कहा कि वे उनसे प्रसन्न हुए और कुछ देना चाहते हैं। उसी वक्त महादजी शिंदे ने कहा कि वे चाहते हैं कि दिल्ली के लाल किले पर जो मुगलों का हरा झंडा लहरा रहा है, उसी के साथ मराठों का केसरिया या भगवा झंडा भी लहराया जाए। उसके बाद डेढ़ दशक तक भगवा झंडा लाल किले की शान बना रहा।

अंग्रेजों ने मुगलों से नहीं मराठों से छीनी थी दिल्ली

इसके बाद अंग्रेजों ने 11 सितंबर 1803 को पटपड़गंज में मराठों के साथ हुए युद्ध में दिल्ली को जीता था। ऐसे में अंग्रेजों ने दिल्ली को मुगलों से नहीं मराठों से लिया था। जिस मुगल बादशाह के साथ हुए प्रतिशोध का बदला लेने के लिए मराठों ने अपनी जान की बाजी लगा दी और दुश्मनों को धूल चटा दी, वही शाह आलम मराठों को दगा दे गया। 1772 में महादजी शिंदे की सेना ने शाह आलम द्वितीय को तमाम मुसीबत से निकालते हुए फिर से दिल्ली की गद्दी पर बैठाया तो बादशाह ने मराठों को सभी अधिकार दे दिए लेकिन कुछ ही समय में उसे लगने लगा कि वह मराठों की कठपुतली बन गया है। ऐसे में उसने ब्रिटिश जनरल गेरार्ड लेक से संरक्षण मांगा। अंग्रेजों को और क्या चाहिए था। मौका मिलते ही लेक की अंग्रेजी सेना और फ्रांसीसी कमांडर लुई बारक्विएन के नेतृत्व में मराठों की सेना के बीच 11 सितंबर 1803 को भयंकर युद्ध हुआ। यह युद्ध स्थल पटपड़गंज था। पटपड़गंज का यह युद्ध दिल्ली के युद्ध के नाम से ही जाना जाता है।

गोल्फ कोर्स में है युद्ध की कहानी

पटपड़गंज में हुए इस युद्ध का नक्शा भी मौजूद है और अंग्रेजों ने इस युद्ध के स्मृति स्वरूप का एक स्मारक भी बनाया है। अगर आप नोएडा के गोल्फ कोर्स जाएं तो पटपड़गंज के इस युद्ध की जानकारी वहां लगे स्मारक स्तंभ पर भी मिलती है। यह स्तंभ 1916 में लगाया गया था।