राघवेंद्र प्रसाद तिवारी। इस समय 18वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव प्रक्रिया जारी है। राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए तमाम घोषणाएं और उम्मीदवारों का चयन कर रहे हैं। ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दृष्टि से लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए चुनाव से संबंधित समस्त पहलुओं पर समग्रता से चिंतन-मनन करने का यह अनुकूल समय है। इस संदर्भ में दो यक्ष प्रश्न हमारे विचार-प्रक्रिया के केंद्रबिंदु में होने चाहिए। क्या उम्मीदवारों के चयन के लिए ‘जीतने की क्षमता’ एकमात्र मानदंड होना चाहिए?

क्या मतदाताओं को प्रतिनिधियों को केवल स्वीकारने या अस्वीकारने के लिए मतदान करना चाहिए अथवा इससे परे विचार कर मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए? सार्वजनिक जीवन में अनुभव, सद्कार्यों के जरिये जनता में लोकप्रियता, ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता, जन कल्याण के लिए प्रतिबद्धता एवं राष्ट्रहित आदि गुणों के आधार पर उम्मीदवारों का चयन होना चाहिए। निर्वाचित प्रतिनिधियों को विकास के एजेंडा के निर्धारण एवं क्रियान्वयन में सक्षम होना चाहिए। उनमें समावेशी एवं सतत विकास के लिए जरूरी विमर्श में जनआकांक्षाओं को रेखांकित करने की क्षमता होनी चाहिए।

असल में चुनाव मतदाताओं के लिए कई विकल्प खोलते हैं। उनसे पता चलता है कि कौनसा राजनीतिक दल समसामयिक विषयों पर बेहतर कानून बना सकता है, लोककल्याण के लिए बेहतर निर्णय ले सकता है, समावेशी एवं टिकाऊ सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नीतियां एवं कार्यक्रम बनाकर उन्हें प्रभावी ढंग से लागू कर सकता है। किस राजनीतिक दल में संसद एवं संसद के बाहर जनआकांक्षाओं को सर्वोत्तम तरीके से अभिव्यक्त करने का कौशल है। कौनसा दल वैश्विक शांति के लिए अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकता है। यह भी देखना चाहिए कि कौनसे राजनीतिक दल राष्ट्रहित के मुद्दों को ताक पर रखकर मुफ्तखोरी की संस्कृति, जाति, संप्रदाय, धनबल, बाहुबल एवं अन्य प्रभावों के माध्यम से मतदाताओं को लुभा रहे हैं।

चुनाव वास्तविक अर्थों में जनता के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्रों में प्रस्तावित विभिन्न माडलों के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सुरक्षा, पर्यावरणीय, सामाजिक, भावनात्मक, नैतिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, विदेश नीति एवं राष्ट्रहित आदि विषयों पर सहमति या असहमति व्यक्त करने का अवसर होते हैं। राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तुत इन विषयों से संबंधित सर्वोत्तम माडल को ही जनप्रतिनिधियों के चयन में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

इससे जन एवं राष्ट्र-कल्याण के लिए नीति निर्माण एवं कार्यक्रमों के संदर्भ में राजनीतिक दलों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पनपेगी। चुनाव अभियानों के दौरान राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों का इन बिंदुओं पर ही मूल्यांकन होना चाहिए। लोक कल्याण के लिए तत्पर, निष्पक्ष तरीके से सुशासन करने की क्षमता एवं राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नीतियों के बारे में सोचने तथा नवाचार करने की क्षमता ही उम्मीदवारों के चयन के लिए राजनीतिक दलों के साथ मतदाताओं की भी प्रमुखता होनी चाहिए।

सार्वजनिक जीवन में जो लोग पुनः चयनित होना चाहते हैं, उन्हें जनता को लोकतंत्र और चुनावों के स्वस्थ तरीकों के बारे में शिक्षित करना चाहिए। प्रचार के दौरान उन्हें विकास एवं सुशासन का वैकल्पिक माडल पेश करना चाहिए तथा अपने पूर्व-प्रदर्शन के मूल्यांकन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए।

प्रबुद्ध समाज को भी सभी दलों के उम्मीदवारों के लिए साझा मंच उपलब्ध कराने चाहिए, जहां सघन विमर्श के द्वारा जनमानस राष्ट्रीय महत्व के बिंदुओं पर उनके सोच-समझ के आधार पर समुचित निर्णय ले सकें। राजनीतिक दलों को सही उम्मीदवारों के चयन के लिए बेहतर मानदंड चुनने के लिए बाध्य करने में नोटा सहायक नहीं है।

राजनीतिक दलों ने इस प्रविधान से कतई सीख नहीं ली है। पाल टैमब्या नामक विद्वान का मत है कि ‘मतदान कोई विवाह नहीं है। यह एक सार्वजनिक परिवहन है। आप उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं। आप बस में चढ़ रहे हैं और यदि कोई बस आपके गंतव्य तक नहीं जा रही है, तो आप घर पर बैठकर उदास नहीं होते। आप वह बस चुनते हैं, जो आपको आपके गंतव्य के सबसे नजदीक ले जाए।’

इसका तात्पर्य है कि सर्वोत्तम विकल्प चुनाव से दूर रहना नहीं, अपितु ऐसे उम्मीदवारों का चयन है, जिसकी रीति-नीति आपके जीवन-मूल्यों के सन्निकट हो। इस संदर्भ में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए मीडिया सार्थक भूमिका अदा कर सकता है। वह उन मुद्दों को रेखांकित करे, जिनसे जनमानस प्रभावित होते हैं और जिनसे उपलब्ध विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चयन करने में जनता को मदद मिले।

अक्सर कुछ लोग यह सोचकर मतदान करने से बचते हैं कि मेरा वोट कोई महत्व नहीं रखता। यह रवैया सही नहीं है। मतदान के अधिकार का प्रयोग न करने से अयोग्य उम्मीदवार एवं अक्षम सरकार बनने की आशंका बढ़ जाती है एवं लोकतांत्रिक प्रणाली अव्यवस्था की शिकार होती है, जिसकी कीमत सभी को चुकानी पड़ती है। तथ्य यह है कि मतदान अधिकार के साथ ही राष्ट्रधर्म भी है। अनेक राष्ट्र-नायकों ने भारत को लोकतंत्र की जननी बनाने के लिए बलिदान दिया है। मतदान कर हम उनके जीवन मूल्यों को जीवंत करते हैं।

ऐसी सद्भावनाएं ही हमें मतदान के लिए प्रेरित कर सुयोग्य सरकार के गठन में अधिकतम जनभागीदारी सुनिश्चित करेंगी। वास्तव में यह संसदीय चुनाव भारत के लिए दुनिया के समक्ष अनुकरणीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं राष्ट्रधर्म के उच्चतम आदर्श स्थापित करने का अवसर है, जिससे यह भावना दृढ़ हो जाए कि निःसंदेह भारत ही लोकतंत्र की जननी है।

(लेखक पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के कुलपति हैं)