हरेंद्र प्रताप। इस बार के लोकसभा चुनाव में केरल को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी वामपंथी दल प्रभावी नहीं दिख रहे हैं। उस बंगाल में भी नहीं, जहां उन्होंने तीन दशक से अधिक समय तक शासन किया। वहां अब वे कांग्रेस के भरोसे हैं। यही हाल तमिलनाडु और उन अन्य राज्यों में भी हैं, जहां वे कभी थोड़ा-बहुत असर रखते थे। ध्यान रहे कि सोशलिस्ट पार्टी के बाद अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल नहीं रही।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाकपा को तमिलनाडु से केवल दो सीटें मिली थीं। चुनावों में निर्धारित मत प्रतिशत तथा सीटें नहीं मिलने के कारण पिछले साल उससे राष्ट्रीय पार्टी का तमगा छिन गया। ऐसा तब हुआ है जब सोवियत क्रांति के बाद मार्क्स और लेनिन एवं साम्यवादी विचार को मानवमुक्ति का महामंत्र घोषित कर दिया गया था। भारत के नेता और संगठन भी अपने को कम्युनिस्ट/सोशलिस्ट विचार का वाहक मानकर इतराते थे। भारत में जिस नेहरूवियन माडल की चर्चा होती है, उसमें समाजवाद भी शामिल था। साम्यवाद और समाजवाद एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जाते हैं। समाजवाद का भूत इस प्रकार सवार था कि आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने इसे संविधान की प्रस्तावना में शामिल कर दिया।

प्रथम लोकसभा के गठन के लिए देश में राज्य या केंद्रशासित प्रदेश मिलाकर 26 राज्यों में चुनाव हुए थे, जिनमें से कांग्रेस पार्टी ने 24 में जीत दर्ज की थी। जिन दो जगहों पर उसे सफलता नहीं मिली, उनमें से एक राज्य त्रिपुरा था, जहां दोनों सीटों पर कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जीते थे। तब त्रिपुरा के अलावा मद्रास, बंगाल तथा ओडिशा में उसे चुनावी सफलता मिली थी तथा वह कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर की पार्टी थी। 1957 के लोकसभा चुनाव में भी वह नौ राज्यों से 27 सीटें जीतकर देश की दूसरे नंबर की पार्टी बनी रही। 1962 के चुनाव में भी उसे सात राज्यों से 29 सीटें प्राप्त हुई थीं।

1964 में कम्युनिस्ट पार्टी का भाकपा और माकपा (मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी) के रूप में विभाजन हुआ। विभाजन के बाद भी दोनों वामपंथी दल नौ राज्यों से 42 सीटें जीते थे। 1967 के चुनाव में भाकपा माकपा से आगे थी, पर उसके बाद माकपा बड़ा भाई हो गई। माकपा को चीन समर्थक तथा भाकपा को सोवियत संघ समर्थक पार्टी कहा जाता है। चीन समर्थक कम्युनिस्टों ने 1962 के चीनी आक्रमण का समर्थन किया था। भारत के दुश्मन देश चीन और पाकिस्तान परमाणु शक्ति वाले देश हैं। इसे जानते हुए भी माकपा के इस बार के घोषणा पत्र में भारत को परमाणु शक्तिहीन बनाने की घोषणा उसके चीनपरस्त होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। चूंकि वैश्विक स्तर पर ही साम्यवाद का पतन हो गया, अतः आज भारत के साम्यवादी यानी कम्युनिस्ट भी अपनी पहचान के संकट के दौर से गुजर रहे हैं। भाकपा के बाद अब माकपा के ऊपर भी खतरा मंडरा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में उसे 22.96 प्रतिशत मत मिले, जो 2019 में घटकर 6.34 प्रतिशत रह गए। 2021 के बंगाल विधानसभा चुनाव में उसे मात्र 4.71 प्रतिशत मत मिले। विगत लोकसभा चुनाव में उसे तमिलनाडु से दो तथा केरल से सिर्फ एक सीट पर सफलता मिली थी। त्रिपुरा और बंगाल में दशकों सत्ता में काबिज रहने वाली यह पार्टी विगत चुनाव में किसी सीट पर दूसरा स्थान भी प्राप्त नहीं कर सकी। राष्ट्रीय दल की मान्यता बचाए रखने के लिए त्रिपुरा और बंगाल में इसे कांग्रेस के साथ समझौता करने को बाध्य होना पड़ा।

केरल को नजरअंदाज कर दें तो कांग्रेस-कम्युनिस्ट दलों के गठबंधन का इतिहास पुराना है। 1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी पर जब सभी गैर-कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त किया तो उस समय उन्होंने बंगाल और त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकारों को छोड़ दिया था। देश के प्रथम आम चुनाव में सोशलिस्ट कुछ राज्यों से 12 सीटें जीते थे। 1957 में उन्होंने अपना नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी कर लिया, फिर भी वे आठ राज्यों से 19 सीटें जीते। कम्युनिस्टों से पहले सोशलिस्टों का विभाजन हुआ। विभाजन के बाद भी 1962 में वे नौ राज्यों से 18 सीटों पर जीते। बाद में सोशलिस्ट कहे जाने वाले दल टुकड़ों में बंटते गए और अपनी राष्ट्रीय पहचान खोते चले गए। अंतिम बार 2009 के चुनाव में लालू प्रसाद की पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला, लेकिन 2014 में वह इसका दर्जा खो बैठी।

2019 के लोकसभा चुनाव के बाद भाकपा, तृणमूल और राकांपा राष्ट्रीय पार्टी की पहचान बनाए रखने मे सफल नहीं रहीं। अब ये राष्ट्रीय पार्टी नहीं हैं। राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए टीआरएस ने अपना नाम बदल कर बीआरएस किया, पर उसका यह सपना अधूरा रह गया। भ्रष्टाचार के आरोप में बीआरएस नेता की पुत्री के. कविता सलाखों के पीछे हैं। विभिन्न क्षेत्रीय या परिवारवादी राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए जिन तौर-तरीकों का उपयोग किया उनमें वे सफल नहीं हो पाए। राजद, तृणमूल, राकांपा के बाद अब आम आदमी पार्टी के ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। इसका कारण साम्यवादी और समाजवादी नेताओं का सोच और रवैया है। उनका विलासितापूर्ण जीवन अक्सर चर्चा का केंद्र बनता रहा है।

रोमानिया के कम्युनिस्ट तानाशाह के घर में सोने के नल लगे थे। भारत में भी सोशलिस्ट नेताओं के बेटे-बेटी नाम के समाजवादी रह गए हैं। उन्होंने करोड़ों रुपये की संपत्ति जुटाई है और विलासितापूर्ण तरीके से रहते हैं। सरकारी आवास में ऐशोआराम की चीजें जुटाने में ताजा नाम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का आया है। इसी वजह से जनता का साम्यवाद से मोहभंग हो रहा है। जनता के नकारने के चलते साम्यवादी और उनके साथ-साथ समाजवादी भी अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं।

(लेखक बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य हैं)