राजनीतिक अस्थिरता का शिकार नेपाल, वामदलों के स्वार्थ का खामियाजा नेपाल की राजनीति और वहां की जानता को भुगतना पड़ रहा है
वामदलों की अदूरदर्शिता के कारण नेपाल भी चीन के चंगुल में फंसता जा रहा है। उनकी राजनीति का आधार ही भारत विरोध बन गया है जो न केवल भारत के साथ नेपाल के ऐतिहासिक संबंधों को खराब कर रहा है बल्कि उसकी प्रगति को भी बाधित कर रहा है। नेपाल की राजनीतिक दुर्गति के चलते आज वहां के लाखों युवा रोजगार और अच्छे जीवन की खोज में पलायन कर रहे।
डॉ ऋषि गुप्ता। बीते दिनों नेपाल में वामदलों की गठबंधन वाली सरकार ने संसद के निचले सदन (राष्ट्रीय सभा) में विश्वासमत प्राप्त कर लिया। यह चौथी बार है कि जब प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ पिछले 18 महीने के भीतर संसद के पटल पर विश्वासमत सिद्ध करने के लिए खड़े हुए थे। दरअसल गत 13 मई को उपप्रधानमंत्री उपेंद्र यादव के समूह वाली जनता समाजवादी पार्टी आपसी फूट के चलते प्रचंड सरकार से अलग हो गई थी। ऐसे में प्रधानमंत्री प्रचंड ने संविधान की धारा 100(2) के अंतर्गत विश्वासमत का प्रस्ताव रखा, जो 157 मतों के साथ बहुमत से पारित हो गया।
नेपाल में वर्ष 2022 में प्रधानमंत्री प्रचंड के नेतृत्व में वामदल वाली सरकार बनी थी, लेकिन वह ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई। फिर प्रचंड ने प्रजातांत्रिक पार्टियों के साथ मिलकर दूसरी बार सरकार बनाई, जिसमें नेपाली कांग्रेस भी शामिल थी, पर वह भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी। तीसरी बार प्रचंड ने पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी आफ नेपाल (एमाले), रवि लामिछाने की स्वतंत्रता पार्टी और उपेंद्र यादव की जनता समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाई, जो हाल में उपेंद्र यादव के इस्तीफे के चलते संवैधानिक संकट में आ गई। उसके चलते प्रचंड को एक बार फिर बहुमत हासिल करना पड़ा।
नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता सामान्य बात हो गई है। नेपाल में 2008 में लोकतंत्र की स्थापना के बाद से चार बार राष्ट्रीय चुनाव हो चुके हैं। वहां अब तक 12 से ज्यादा प्रधानमंत्री रह चुके हैं, लेकिन कोई भी सरकार पांच साल की अवधि पूरी करने में असमर्थ रही है। मौजूदा वामदल वाली सरकार में प्रधानमंत्री प्रचंड की माओवादी केंद्र पार्टी और केपी शर्मा ओली की एमाले दो धुर विरोधी समूह शामिल हैं, जिनके बीच शक्ति और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर लगातार खींचतान होती रही है।
हालांकि ओली ने प्रचंड सरकार को समर्थन दिया है, लेकिन पिछले कई मौकों पर सरकार केवल इसी वजह से गिरी, क्योंकि प्रचंड और ओली, दोनों ही प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करते रहे। इस बार भी प्रचंड सरकार को भले विश्वासमत मिल गया हो, लेकिन यह राजनीतिक स्थिरता की कोई गारंटी नहीं है। आने वाले दिनों में अगर वाम सरकार फिर गिरी तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी, क्योंकि ओली कभी भी प्रचंड सरकार से अपना समर्थन वापस ले सकते हैं।
इसका बड़ा कारण यह है कि 275 सदस्यों वाली राष्ट्रीय सभा में जो 165 सदस्य सीधे चुनकर आए हैं, उनमें से प्रधानमंत्री प्रचंड की माओवादी केंद्र के पास कुल 32 सीटें हैं, जबकि एमाले के पास 78 सीटें हैं। राजनीतिक गणित के हिसाब से गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते एमाले को प्रधानमंत्री पद का दावेदार होना चाहिए, लेकिन प्रचंड की हठ के चलते एमाले प्रमुख ओली को अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं से समझौता करना पड़ा। यदि ओली फिर से प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी करते हैं तो सरकार का गिरना तय है।
राजनीतिक दलों के स्वार्थ के चलते नेपाल आज सबसे अधिक पूर्व प्रधानमंत्रियों एवं मंत्रियों का ठिकाना बन गया है। वामदल नेपाल की विदेश नीति के साथ लगातार खिलवाड़ करते आ रहे हैं, जिसका सीधा नुकसान वहां की जनता को हो रहा है। नेपाल की कोई खुली सीमा नहीं है। उसके एक ओर एक विस्तारवादी देश चीन है और बाकी तीन तरफ से भारत। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि नेपाल एक स्थिर विदेश नीति अपनाए, लेकिन पिछले 75 वर्षों के आधुनिक राजनीतिक इतिहास में वह ऐसा करने में असमर्थ रहा है। भारत लंबे समय से नेपाल के विकास का समर्थक रहा है।
भारत के मित्रवत व्यवहार के बावजूद नेपाल के वामपंथी दल हमेशा भारत विरोधी रुख अपनाते रहे हैं। एमाले जैसी पार्टियों ने पिछले 10 वर्षों से भारत विरोधी आंदोलनों का नेतृत्व किया है। हाल में नेपाल के राष्ट्रपति के आर्थिक सलाहकार को इसलिए इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि उन्होंने वामपंथी सरकार के उस फैसले का विरोध किया, जिसके तहत वह सौ रुपये के नोटों पर एक विवादित नक्शा छाप रही है। यह वही नक्शा है, जिसे नेपाल की संसद ने 2020 में पारित किया था, जिसमें भारत के कुछ हिस्सों को नेपाल ने अपना बताया है। माना जा रहा है कि प्रचंड ने ओली के दबाव के चलते ऐसा किया।
ओली अपने भारत विरोध और चीन समर्थन के लिए जाने जाते हैं। उनका यह रवैया नेपाल के हित में कभी नहीं रहा, बल्कि इससे उसे नुकसान अधिक हो रहा है। यह बस उनके लिए राजनीतिक फायदा हासिल करने का एक जरिया बनकर रह गया है। गत दिनों नेपाल के उपप्रधानमंत्री नारायण काजी श्रेष्ठा भी अपनी पहली विदेश यात्रा पर चीन गए थे। वामदलों के इस भारत विरोध के बावजूद ज्यादातर नेपाली जनता चीन पर विश्वास नहीं करती, क्योंकि यह सर्वज्ञात है कि चीन छोटे देशों को अपने ‘ऋण जाल’ में फंसाकर उनकी राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य व्यवस्थाओं को अपने कब्जे में करने की कोशिश करता है।
वामदलों की अदूरदर्शिता के कारण नेपाल भी चीन के चंगुल में फंसता जा रहा है। उनकी राजनीति का आधार ही भारत विरोध बन गया है, जो न केवल भारत के साथ नेपाल के ऐतिहासिक संबंधों को खराब कर रहा है, बल्कि उसकी प्रगति को भी बाधित कर रहा है। नेपाल की राजनीतिक दुर्गति के चलते आज वहां के लाखों युवा रोजगार और अच्छे जीवन की खोज में लगातार पलायन कर रहे हैं। यदि नेपाल के नेता स्वार्थ त्यागकर देशहित में राजनीतिक अस्थिरता को दूर करें तो वह विश्व की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से घिरे होने का सबसे बड़ा फायदा उठा सकता है।
(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली में सहायक निदेशक हैं)