विपक्ष की रणनीतिक दुर्बलता, राष्ट्रीय एजेंडा क्या है और राष्ट्रीय नेतृत्व कौन करेगा?
Loksabha Election 2024 आइएनडीआइए न तो अपना राष्ट्रीय वजूद रख सका और न ही सरकार की नीतियों पर समन्वित आक्रमण कर सका। वह अपनी वैकल्पिक नीतियां भी मतदाता के समक्ष नहीं रख पाया। उसके घटक दल अपने-अपने राज्यों में अपनी राजनीतिक जमीन बांटने को तैयार नहीं हुए। राष्ट्रीय स्तर पर उनमें सीटों मुद्दों और रणनीतियों पर भी कोई आम सहमति नहीं बनी।
डा. एके वर्मा। लोकसभा चुनावों में मतदाताओं की उदासीनता चिंता का विषय है। सत्ता पक्ष और विपक्ष उसे अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर रहे हैं। अकादमिक जगत में कम मतदान संबंधी कोई सर्वमान्य सिद्धांत नहीं, जो बता सके कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है? प्रधानमंत्री मोदी के ‘चार सौ पार’ के आह्वान से भाजपा समर्थक निश्चिंत और भाजपा विरोधी उदासीन हो गए हैं, जिससे मतदान प्रतिशत गिरा है।
मतदाता मोदी को तो चाहता है, लेकिन भाजपा के स्थानीय सांसदों से वह कुछ कुपित है। इसलिए विजयी भाजपा प्रत्याशियों की जीत का अंतर संभवतः कम होगा। इस बार चुनावी स्पर्धा में विपक्ष गंभीर राष्ट्रीय विमर्श नहीं गढ़ सका। विपक्ष का दायित्व है कि वह सरकार की नीतियों पर तर्कपूर्ण एवं तथ्यात्मक सवाल उठाए तथा उसे जवाब देने के लिए विवश करे, लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो सका। आइएनडीआइए न तो अपना राष्ट्रीय वजूद रख सका और न ही सरकार की नीतियों पर समन्वित आक्रमण कर सका। वह अपनी वैकल्पिक नीतियां भी मतदाता के समक्ष नहीं रख पाया। उसके घटक दल अपने-अपने राज्यों में अपनी राजनीतिक जमीन बांटने को तैयार नहीं हुए। राष्ट्रीय स्तर पर उनमें सीटों, मुद्दों और रणनीतियों पर भी कोई आम सहमति नहीं बनी। परिणामस्वरूप वे भाजपा पर वहां प्रहार कर रहे हैं, जहां वह सबसे मजबूत है। वे ‘मोदी हटाओ’ पर केंद्रित हैं, जबकि अन्य नेताओं के मुकाबले प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की स्वीकार्यता 65 से 70 प्रतिशत तक है।
विपक्ष की दूसरी रणनीतिक दुर्बलता है कि वह भाजपा के किले के कमजोर दरवाजों को चिह्नित नहीं कर पाया। प्रहार करना तो दूर विपक्षी दल अब आरोप लगाने तक सिमट गए हैं। कह रहे हैं कि मोदी लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। वह संविधान बदल देंगे। आरक्षण समाप्त कर देंगे। क्या यह सब जनता के गले उतरेगा? जनता भूली नहीं है कि 1975 में आपातकाल लगाकर संपूर्ण विपक्ष को ‘मीसा’ और ‘डीआइआर’ जैसे काले-कानूनों में जेल भिजवा कर तथा प्रेस पर ‘सेंसरशिप’ लगाकर कांग्रेस ने किस तरह लोकतंत्र की हत्या की थी। जनता भूली नहीं है कि कांग्रेस ने 42वें संविधान संशोधन द्वारा अपने स्वार्थ के लिए लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की वरिष्ठता को दरकिनार कर न्यायमूर्ति एएन रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। आज देश में लोकतंत्र नहीं होता तो विपक्ष को पीएम मोदी के विरुद्ध आरोप, अशिष्टता और अभद्र भाषा के प्रयोग का अवसर मिलता क्या?
विपक्ष की तीसरी रणनीतिक दुर्बलता है कि वह यह नहीं बता सका कि उसका राष्ट्रीय एजेंडा क्या है और उसमें राष्ट्रीय नेतृत्व कौन करेगा? आइएनडीआइए के अंतर्विरोध सार्वजनिक हैं और घटक दलों में समन्वय हेतु कोई राष्ट्रीय इकाई भी नहीं। यह राष्ट्रीय सरकार के गठन का सवाल है। भले ही कांग्रेस और मीडिया राहुल को मोदी के विकल्प के रूप में पेश करते रहते हैं, लेकिन क्या यह संभव है कि बहुमत प्राप्त करने की स्थिति में, जिसकी संभावना बहुत कमजोर है, आइएनडीआइए के घटक दल राहुल गांधी के अपरिपक्व नेतृत्व को स्वीकार करें?
विपक्ष के पास विदेश-नीति, प्रतिरक्षा-नीति, शिक्षा-नीति, कृषि-नीति, आर्थिक-नीति आदि पर कोई भी रोडमैप नहीं। ऐसे में, क्या जनता उनके ‘न्याय की अमूर्त परिकल्पनाओं’ और कुछ अव्यावहारिक आश्वासनों के आधार पर सत्ता सौंपेगी? इस कारण विपक्ष मोदी को केवल कमजोर व्यक्तिगत चुनौती दे पा रहा है, नीतिगत चुनौती नहीं। परिणामस्वरूप मोदी को अवसर मिल गया कि वह स्वयं राष्ट्रीय विमर्श स्थापित करें। उन्होंने ‘अबकी-बार, चार सौ पार’ का ऐसा विमर्श उछाल दिया, जिसका कोई विशेष अर्थ नहीं। अभी भी अपने सहयोगियों सहित उनके पास 350 के आसपास का बहुमत है। यदि वह 400 पार हो भी जाए तो सत्तारूढ़ दल के शक्ति और प्रभाव संरचना में क्या मौलिक परिवर्तन आएगा, लेकिन इससे मोदी ने विपक्ष को प्रतिरक्षात्मक बना दिया? राजनीतिक विमर्श इस पर केंद्रित हो गया कि ‘चार सौ पार’ होगा या नहीं? विपक्ष ने मोदी को अवसर दे दिया कि वह जनता के सामने अपनी सरकार के पिछले दस वर्ष का रिपोर्ट कार्ड रखें। स्वतंत्रता के सौ वर्ष पूर्ण होने पर देश की उन्नत स्थिति की अपनी कल्पना का चित्रांकन करें और अपनी समावेशी राजनीति की स्वीकार्यता को तीसरी बार भी सतत राजनीतिक वैधता प्रदान करें। यह आसान नहीं।
अपने कार्यकाल में मोदी ने करीब 18 राज्यों में भाजपा को सत्ता दिलाई। जातीय रूप से विखंडित हिंदू समाज को एकीकृत किया। मुस्लिम समाज से भाजपा की दूरी घटाई। भाजपा को ‘ब्राह्मण-बनिया-मध्यवर्गीय-शहरी’ पार्टी की छवि से मुक्त कर उसे सर्वसमाज का बहुरंगी स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने जातीय राजनीति का मिथक तोड़कर उसे चार वर्गीय (महिला, युवा, किसान एवं गरीब) राजनीति से जोड़ दिया। इसमें मोदी ने टेक्नोलाजी और तटस्थता, समावेशन और समानता तथा कर्मठता एवं कौशल का ऐसा प्रयोग किया जो भावी नेताओं के लिए प्रतिमान होगा।
इस चुनाव में विपक्ष न केवल राष्ट्रीय विमर्श गढ़ने में असफल रहा, बल्कि सटीक मुद्दे भी नहीं उठा पाया। विपक्ष महंगाई, बेरोजगारी और सामाजिक न्याय के जो मुद्दे उठा रहा है, वे स्वतंत्रता के समय से बने हुए हैं और आगे भी बने रहेंगे। जिस देश की जनसंख्या प्रतिवर्ष बेल्जियम, क्यूबा या सूडान की जनसंख्या के बराबर बढ़ जाती हो, वहां कोई भी सरकार सभी को रोजगार नहीं दे सकती और न महंगाई को स्थायी रूप से रोक सकती है। यह एक राष्ट्रीय चुनौती है। इसलिए जो भी दल महंगाई कम करने और रोजगार देने के आश्वासन पर सत्ता में आएगा, वह संभवतः उसका आत्मघाती कदम होगा।
सामाजिक न्याय की दुहाई देने वाले दलों को बाबासाहब आंबेडकर का संविधान सभा में अंतिम भाषण याद रखना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि बिना समानता के स्वतंत्रता तथा बिना बंधुत्व के समानता और स्वतंत्रता दोनों अर्थहीन हैं। अतः एकता, अखंडता और बंधुत्व के ‘फ्रेमवर्क’ में सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु सभी दलों विशेषकर विपक्ष को अर्थपूर्ण राजनीतिक स्पर्धा के लिए सार्थक राजनीतिक विमर्श, प्रभावी मुद्दे, जनोन्मुखी चुनाव प्रचार, मजबूत संगठन और कुशल नेतृत्व पर ध्यान देना होगा।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)