Jammu Kashmir Election 2024: जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध जारी, ट्रिब्यूनल ने गृह मंत्रालय के फैसले पर लगाई मुहर
जमात-ए-इस्लामी पर लगे प्रतिबंध को बरकरार रखने के ट्रिब्यूनल के फैसले ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में उसकी भागीदारी की अटकलों पर विराम लगा दिया है। 37 साल बाद संविधान की शपथ लेकर चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने की उम्मीदों को झटका लगा है। जमात का चुनावी इतिहास प्रतिबंध का कारण हालिया लोकसभा चुनाव में भागीदारी और कश्मीर की राजनीति पर प्रभाव का विश्लेषण।
नवीन नवाज, श्रीनगर। आगामी विधानसभा चुनाव में जमात-ए-इस्लामी के 37 वर्ष बाद पुन: भारतीय संविधान की शपथ लेकर चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने की सभी अटकलों पर अब पूर्ण विराम लग गया है।
कारण: जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध को दिल्ली स्थित गैर कानूनी गतिविधियों की रोकथाम ट्रिब्यूनल ने सही ठहराया है और उस पर फिलहाल अगले पांच वर्ष तक रोक जारी रहेगी।
हालांकि, चंद दिन पहले तक इस बात की पूरी उम्मीद जताई जा रही थी कि कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद की जननी कहलाने वाली जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर पर लगा प्रतिबंध हट जाएगा और जम्मू कश्मीर में एक बड़ा राजनीतिक बदलाव देखने को मिलेगा। यह उम्मीद यूं ही नहीं बनी थी, बल्कि जमात-ए-इस्लामी के कई नेताओं ने केंद्र सरकार के साथ इस विषय में संवाद बहाल होने का दावा किया था।
जमात-ए-इस्लामी का चुनावी रिकॉर्ड
जम्मू कश्मीर में 1972 में हुए विधानसभा चुनाव में जमात-ए-इस्लामी के 22 में से पांच, 1977 के विधानसभा चुनाव में 19 में एक प्रत्याशी ने जीत दर्ज की जबकि 1983 के चुनाव में इसने 26 उम्मीदवार मैदानमें उतारे और सभी हार गए।
अलबत्ता, 1987 में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंटकेबैनर तले कश्मीरमें सभी प्रमुख संगठनों ने नेशनल कान्फ्रेंस-कांग्रेस गठजोउ़ के खिलाफअपने उम्मीदवार उतारे। फ्रंट के सिर्फ चार उम्मीदवार जीते थे और यह सभी जमात-ए-इस्लामी से संंबंधित थे। इनमें से तीन दक्षिण कश्मीर से ही जीते थे।
2014 में पांच वर्ष के लिए लगा था प्रतिबंध
जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर पर केंद्र सरकार ने फरवरी 2014 में पांच वर्ष के लिए प्रतिबंध लगाया था। इस प्रतिबंध को इसी वर्ष फरवरी में पुन: पांच वर्ष के लिए बढ़ाया गयाहै। कश्मीर मामलों के जानकार अच्छी तरह जानते हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और जमात-ए-इस्लामी का ही कश्मीर के हर गली मोहल्ले में कैडर है।
आज से तीन दशक पहले तक शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जिसका सबंध जमात-ए-इस्लामी या फिर नेशनल कान्फ्रेंस से न हो। दोनों एकदूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी ने 1987 के चुनाव तक जम्मू कश्मीर की चुनावी राजनीति का हिस्सा रही है और उसके बाद कश्मीरमें चुनाव बहिष्कार के अभियान की यही सूत्रधार रही है।
कश्मीर में सभी आतंकी औरअलगाववादी संगठनों के कैडर का लभग 95 प्रतिशत जमात की पृष्ठभूमि से जुढ़ा हुआ है। ऑल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेंस में सैयद अली शाह गिलानी जमात-ए-इस्लामी के प्रतिनिधि के तौर पर ही शामिल थे।
लोकसभा चुनाव में जमात-ए-इस्लामी के नेताओं ने डाला वोट
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में बड़ी संख्या में जमाते ए इस्लामी के नेता और कार्यकर्ता भी अपने मताधिकार का प्रयाेग करते नजर आए। इन सभी ने जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली और चुनाव प्रक्रिया का स्वागत करते हुए कहा कि चुनाव बहिष्कार सही नहीं रहा है। इसलिए सभी को अपने मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए।
इन्होंने विधानसभा चुनाव में भी भाग लेने की इच्छा जताई और कहा कि अगर प्रतिबंध हटेगा तो यह जरुर चुनाव लड़ेंगे।इससे कश्मीर की सियासत का माहौल बदलता महसूस हुआ। गत माह जमाते इस्लामी ने अपने संविधान में भी संशोधन का संकेत दिया। इसनेअपने संविधान मे जम्मू कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र और संयुक्त राष्ट्र की सिफारिशों को लागू किए जाने की बात हटाने की प्रक्रिया शुर करने के लिए एक समिति भी गठित की।
जमात ने यकीन दिलाया कि वह अपने संविधान में जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा परिभाषित करने जा रही है। यहां यह बताना असंगत नहीं होगा कि जमात-ए-इस्लामी जम्मू कश्मीर वर्ष 1952 से पहले जमात-ए-इस्लामी हिंद का ही हिस्सा थी। इसने 1952 में खुद को जमात-ए-इस्लामी हिंद से अलग करते हुए अपने संविधान में भी बदलाव किया था और यह कश्मीर मुददे पर मजहब के आधार पर पाकिस्तान समर्थक हो गई।
लोसभा चुनाव मे जमात-ए-इस्लामी के नेताओं की खुली भागीदारी से उत्साहित केंद्र सरकार ने भी जमात के विस चुनाव में शामिल होने की संभावनाओं पर पद्रे के पीछे प्रयास शुरू किया।
गत जुलाई में जमाते इसलामी के नेता अब्दुल हमीद गनई उर्फ हमीद फैयाज ने भी इसकी पुष्टि करते हुएबताया कि गुलाम कादिर वानीके नेतृत्व में हमारी एक समिति विस चुनाव में शामिल होने के मुद्दे पर केंद्र के साथ बातचीत कर रही है। अलबत्ता, ट्रिब्यूनल द्वारा प्रतिबंध को सही ठहराए जोनके साथ ही मौजूदा विधानसभा चुनाव प्रक्रिया में जमाते इसलामी के शामिल होने की अटकलें बंद हो गई हैं।
कश्मीर मामलों के जानकार बिलाल बशीर ने कहा कि जमात-ए-इस्लामी बेशक चुनाव में भाग नहीं ले रही है,लेकिन वह मतदान में शामिल होगी और उसका कैडर दक्षिण कश्मीरमें किसी भी प्रत्याशी का भाग्य बदलेगा। उन्होंने कहा कि पीडीपी अगर कश्मीर में एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनी तो जमात-ए-इस्लामी के सहयोग से ही बनी है। जमात-ए-इस्लामी से जुड़े लोगों ने चुनाव में उसका साथ दिया,उसके पक्ष में मतदान किया।
जमात-ए-इस्लामी ने 2008 के चुनाव में कई जगहों पर उसका साथ नहीं दिया और वह सत्ताच्युत हो गई। वर्ष 2014 में जमात के प्रभाव वाले इलाकों में उसका वोट बैंक फिर बना और वह सत्ता मे लौटी,लेकिन वर्ष 2019 और 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी हार का कारणभी कहीं न कहीं जमात कैडर की नाराजगी रहा है।
उन्होंने कहा कि अगर आप लोकसभा चुनाव का भी आकलन करें तो पाएंगे कि पीडीपी और जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी ने जमात-ए-इस्लामी के कैडर को अपने साथ जोड़ने के लिए एक बार नहीं कई बार जमात-ए-इस्लामी की पृष्ठभूमि वाले विभिन्न नेताओं के साथबैठक की और अभी भी कई लाेग उसके साथ संपर्क बना रहे हैं