जानें कैसे एसएलवी-3 की सफलता ने देश को स्वावलंबन की राह पर अग्रसर होने में की मदद
एसएलवी-3 विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर (वीएसएससी) द्वारा विकसित चार चरणों वाला ठोस प्रणोदक राकेट था जो 22 मीटर लंबा था। प्रक्षेपण वाहन सात मंजिला इमारत जितना लंबा था। इसका वजन 17 टन था जो लो अर्थ आर्बिट में 40 किलो वर्ग का पेलोड स्थापित करने में सक्षम था।
नई दिल्ली, फीचर डेस्क। सैटेलाइट लांच व्हीकल-3 (एसएलवी-3) भारत का पहला प्रायोगिक उपग्रह प्रक्षेपण यान था। जब 1980 में एसएलवी-3 ने श्रीहरिकोटा से आरएस-1 (रोहिणी उपग्रह) को कक्षा में स्थापित करने के लिए उड़ान भरी, तो इसकी कामयाबी ने भारत को दुनिया का ऐसा छठा देश बना दिया, जिसने उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में सक्षमता हासिल कर ली थी। स्वाधीनता के 75वें वर्ष में अमृत महोत्सव शृंखला के तहत जानें कैसे एसएलवी-3 की सफलता ने इस क्षेत्र में देश को स्वावलंबन की राह पर अग्रसर होने में मदद की...
अंतरिक्ष में दबदबा कायम करने के लिए यह जरूरी था कि भारत के पास भी अपना उपग्रह प्रक्षेपण यान हो। जब भारत में एसएलवी-3 की शुरुआत हुई तो डा. एपीजे अब्दुल कलाम इस परियोजना के निदेशक थे। उनके नेतृत्व में पहला लांच व्हीकल बनाया गया था। हालांकि अगस्त 1979 में पहली प्रायोगिक उड़ान विफल रही थी, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इसके बाद एसएलवी-3 को 18 जुलाई, 1980 को श्रीहरिकोटा रेंज से सफलतापूर्वक लांच किया गया। जब रोहिणी उपग्रह आरएस-1 को कक्षा में सफलता के साथ स्थापित किया गया तो इसके साथ ही भारत दुनिया का ऐसा छठा देश बन गया, जो खुद के बल पर उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने में सक्षम था।
एसएलवी-3 की कामयाबी: इस सफल मिशन के साथ भारत ने दुनिया को दिखा दिया कि वह अतंरिक्ष में और ऊंचाइयां हासिल कर सकता है। इस मिशन से यह भी साफ हो गया कि भारत मल्टी-डिसिप्लिनरी लांच व्हीकल में महारत हासिल करने में सक्षम है। 1980 की सफल उड़ान के बाद केवल दो और एसएलवी मिशन 1981 और 1983 में हुए। एसएलवी के बाद संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (एएसएलवी) ने इसरो को और बेहतर प्रक्षेपण यान बनाने में सक्षम बनाया।