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Sawan 2024: लोक कल्याण के लिए देवों के देव महादेव ने किया था विषपान

मंदराचल पर्वत को मथानी तथा उसे आधार प्रदान करने के लिए भगवान श्रीहरि ने स्वयं ही कच्छपरूप धारण करके अपनी पीठ पर उसे धारण किया। शेषनाग जी को रस्सी बनाकर मंथन प्रारंभ किया गया। हृदय ही सागर है जिसमें अनेकानेक आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान और भक्ति रूपी दिव्यरत्न भरे हुए हैं। आज भी संसार में सकारात्मक और नकारात्मक विचारधारा के लोगों के मध्य द्वंद्व चलता रहता है।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 29 Jul 2024 05:12 PM (IST)
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Sawan 2024: भगवान शिव को क्यों कहा जाता है नीलकंठ ?

आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। श्रीमद्भागवतमहापुराण, श्रीविष्णुपुराण और महाभारत जैसे ग्रंथों में समुद्र मंथन का वर्णन है, जिसका आध्यात्मिक स्वरूप अत्यंत विलक्षण और गूढ़ातिगूढ़ है। किसी भी शब्द में भाव, दर्शन और प्रतीक, ये तीन अर्थ निहित होते हैं। श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध में समुद्र मंथन की कथा वर्णित है, जिसके अनुसार देवताओं और दैत्यों ने परस्पर विद्वेष को दूर करने के लिए यह निर्णय लिया था कि समुद्र का मंथन किया जाना चाहिए, उसमें से जो भी नवनीत स्वरूप रत्नादि प्राप्त होंगे, उसे हम देव-दानव आपस में बांट लेंगे।

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देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन आरंभ किया। मंदराचल पर्वत को मथानी तथा उसे आधार प्रदान करने के लिए भगवान श्रीहरि ने स्वयं ही कच्छपरूप धारण करके अपनी पीठ पर उसे धारण किया। शेषनाग जी को रस्सी बनाकर मंथन प्रारंभ किया गया। हृदय ही सागर है, जिसमें अनेकानेक आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान और भक्ति रूपी दिव्यरत्न भरे हुए हैं। आज भी संसार में सकारात्मक और नकारात्मक विचारधारा के लोगों के मध्य द्वंद्व चलता रहता है। यह द्वंद्व घर, समाज, कार्यस्थल और विभिन्न राजकीय और अराजकीय विभागादि में देखने-सुनने में आता रहता है।

सर्वविदित है कि मंथन से 14 रत्न निकले, जिसमें सबसे पहले कालकूट विष निकला, जिसकी ज्वाला से चराचर जलने लगा। तब भगवान शिव ने लोककल्याण की दृष्टि से उसे पान कर अपने कंठ में स्थान दिया, जिससे वे नीलकंठ के नाम से अखिल ब्रह्मांड में वंदनीय और पूजनीय हो गए। यह परमात्मा रूपी अमृत हमारे हृदय रूपी सागर में ही स्थित है। यदि हमें इसका पान करना है तो भक्ति, ज्ञान और वैराग्य रूपी मथानी से इसे मथना पड़ेगा। सबसे हमारे मन का विकार रूपी विष ही बाहर निकलेगा।

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इस विष को भगवद्भक्ति के अवलंबन से हमें ग्रहण करना होगा, यदि हमें अमृतपान की अभिलाषा है। जब हम अपने मन को मंथन करेंगे तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर निकलेंगे। यही बुरे विचार ही विषतुल्य हैं। यहां अपरोक्ष रूप से यह संदेश प्राप्त होता है कि लोक कल्याण के लिए यदि आपको तिरस्कार, उपेक्षा, शारीरिक या मानसिक वेदना स्वरूप विष पीना पड़ता है, तो न ही उसे किसी से अभिव्यक्त करना और ना ही स्वयं उससे व्यथित होना चाहिए अर्थात उसे न ही बाहर निकालें और ना ही अंदर स्थान दें। इससे समाज विकृत नहीं होगा और स्वयं भी वेदना नहीं होगी।

भगवान शिव कल्याण के प्रतीक हैं। संसार में शिवत्व उसे ही प्राप्त होता है, जो सबकी वेदना को दूर करने के लिए स्वयं को समर्पित कर देता है। समुद्र मंथन से जो 14 रत्न निकले, उनका सूक्ष्म और आध्यात्मिक अर्थबोध है- पांच कर्मेन्द्रियां (वाक, हाथ, पैर, गुदा, लिंग) पांच ज्ञानेंद्रियां (कान, नेत्र, रसना, नासिका, त्वचा) और अंतःकरण की चार वृत्तियाँ-मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। इन 14 को जब भगवद्भक्ति के प्रेम रस से सराबोर कर दिया जाता है, तब सारे विकार दूर हो जाते हैं और साधक को सर्वव्यापक भगवान का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दर्शन रूपी अमृत सुलभ हो जाता है।