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देवभूमि की विलुप्त होती लोक कलाओं का होगा संरक्षण, जानिए कैसे

उत्तराखंड में लोककलाओं के संरक्षण के लिए परंपरागत ढोलवादकों को प्रोत्साहित करने के साथ ही उनकी पारंपरिक विधा को संरक्षण देने की पहल की गई है।

By Edited By: Updated: Sat, 13 Jul 2019 09:00 PM (IST)
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देवभूमि की विलुप्त होती लोक कलाओं का होगा संरक्षण, जानिए कैसे

देहरादून, केदार दत्त। देवभूमि में विलुप्त होती लोककलाओं को सहेजने के लिए सरकार सक्रिय हो गई है। इस कड़ी में राज्य के परंपरागत ढोलवादकों (बाजगियों और ढोलियों) को प्रोत्साहित करने के साथ ही उनकी पारंपरिक विधा को संरक्षण देने की पहल की गई है। उन्हें निश्शुल्क वाद्ययंत्रों और वेशभूषा का वितरण करने के साथ ही उनकी कला को जीवित रखने के लिए अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र बनाए जा रहे हैं। इन सांस्कृतिक केंद्रों में परंपरागत ढोलवादक और लोककला से जुड़े लोग न सिर्फ रिहर्सल कर सकेंगे, बल्कि वहां परंपरागत वाद्ययंत्र भी सहेजे जाएंगे। 

उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संजोये रखने में यहां के परंपरागत ढोलवादकों (बाजगियों और ढोलियों) की अहम भूमिका है। ढोलवादन की उनकी पारंपरिक विधा का अदभुत संसार है और यहां सोलह संस्कार तो उनके बिना अधूरे हैं। इस बीच वक्त ने करवट बदली और आधुनिकता की चकाचौंध का असर यहां के परंपरागत ढोलवादकों के साथ ही उनकी पारंपरिक विधा पर भी पड़ा। आज स्थिति ये है कि परंपरागत ढोलवादकों की संख्या अंगुलियों में गिनने लायक रह गई है। ऐसे में उनके पारंपरिक ज्ञान और लोककला पर भी संकट के बादल मंडराने लगे हैं। 

असल में राज्य गठन के बाद सरकारों ने यहां की लोककलाओं के संरक्षण के दावे तो किए, मगर इसके लिए गंभीरता से पहल नहीं की गई। लोककला से जुड़े अनुसूचित जाति के परंपरागत ढोलवादकों के रोजगार और लोककला के उनके परंपरागत ज्ञान को सहेजने के प्रति अनदेखी अधिक भारी पड़ी। ऐसे में लोककला के इन संवाहकों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाला ज्ञान सिमटने लगा। 

स्थिति ये है कि वर्तमान में राज्य में अनुसूचित जाति के महज 91 ढोलवादकों को ही पेंशन मिल पा रही है। अब जबकि पानी सिर से ऊपर बहने लगा है तो सरकार का ध्यान ढोलवादकों और उनकी लोककला को संरक्षण देने की तरफ गया है। संस्कृति विभाग ने अनुसूचित जाति उपयोजना में अनुसूचित जाति की विलुप्त होती लोककला को जीवित रखने के उद्देश्य से अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र खोलने की पहल की है। संस्कृति विभाग की निदेशक बीना भट्ट के अनुसार वर्ष 2018-19 में अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र भवन के चार प्रस्ताव आए। इनमें चकरेड़ा (टिहरी), दुगड्डा में भवन तैयार हो चुके हैं, जबकि भरपूर (टिहरी) और जसपुर (द्वारीखाल) में निर्माणाधीन हैं। इस वर्ष बागेश्वर में दो और टिहरी में एक सांस्कृतिक केंद्र भवन प्रस्तावित है। 

ये होंगे फायदे 

-सांस्कृतिक केंद्र के भवन में लोकवादकों के साथ ही अन्य लोगों को रिहर्सल को मिलेगी जगह 

-ढोल-दमाऊ समेत अन्य परंपरागत वाद्य यंत्रों को भी रखेंगे सहेजकर 

-सांस्कृतिक केंद्र में लोककला संरक्षण को चलेंगे प्रशिक्षण केंद्र 

-धीरे-धीरे संबंधित गांव होंगे सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित 

-परंपरागत लोककला से संबंधित ज्ञान का भी होगा संरक्षण 

संस्कृति मंत्री सतपाल महाराज का कहना है कि पारंपरिक लोककलाकारों और लोककला के संरक्षण के मद्देनजर अनुसूचित जाति उपयोजना में गुरु-शिष्य परंपरा के तहत जगह-जगह प्रशिक्षण शुरू किए गए हैं। अनुसूचित जाति के लोककलाकारों को निश्शुल्क वाद्य यंत्र व वेशभूषा दी जा रही है। विलुप्त होती लोककला को अक्षुण्ण बनाए रखने को अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र बनाए जा रहे हैं। इस मुहिम को तेजी दी जाएगी।

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