गरुड़ पक्षी के मुंह से जलधारा फूटी तो गांव का नाम पड़ गया गरुड़ nainital news
देवभूमि उत्तराखंड में हर कदम में किंवदंतियां व पौराणिक कथाएं हजारों वर्षों से प्रचलित है। इन कथाओं में ही नगर गांव के कई पुराने रहस्य भी छुपे होते हैं।
बागेश्वर, जेएनएन : देवभूमि उत्तराखंड में हर कदम में किंवदंतियां व पौराणिक कथाएं हजारों वर्षों से प्रचलित है। इन कथाओं में ही नगर, गांव के कई पुराने रहस्य भी छुपे होते हैं। पहाड़ में तो नगरों, गांवों के नाम भी इन्हीं पौराणिक कथाओं से निकलते है।जो कालांतर में यहां की पंरपरा और पहचान बन गई। ऐसा ही बागेश्वर जिले का खूबसूरत कस्बा है गरुड़। जिसका गौरवशाली इतिहास भी रहा है। यह क्षेत्र एक दौर में कत्यूरी राजाओं की राजधानी भी रह चुका है।
गरुड़ के नाम को लेकर कई पौराणिक कथाएं व किंवदंतियां प्रचलित हैं। गरुड़ घाटी में बहने वाली नदी का पौराणिक नाम गारुड़ी था। मान्यता यह है कि द्यौनाई घाटी के ऊपर गोपालकोट की पहाड़ी के पास गरुड़ पक्षी के मुंह से नदी की धारा फूटी। जिससे यह नदी आगे बढ़ती गई। गरुड़ पक्षी के मुंह से निकलने वाली नदी के कारण इसे गरुड़ नदी कहा गया। गरुड़ को भगवान विष्णु का वाहन भी माना जाता हैं। आज यह गरुड़ नदी हजारों लोगों को जीवनदान दे रही है। जिस कारण इसे बड़ा पवित्र माना जाता है। एक तरह से यह मोक्षदायिनी भी है।
किंतवदंतियां है कि गरुड़ पक्षी के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम कदाचित गरुड़ पड़ा। प्राचीन समय में बाजार के मध्य में पूर्व में गरुड़ भगवान का एक मंदिर भी था। जो कालांतर में ध्वस्त कर दिया गया। इस मंदिर की स्थापना नागा बाबा महादेव गिरी महाराज ने की थी। इस मंदिर की देखरेख मथुरा प्रसाद कोठारी व उनके बंधु करते थे।उन्होंने मटेना के पंडित राम दत्त जोशी को मंदिर में पूजा के लिए नियुक्त किया था, जो नियमित मंदिर में पूजा अर्चना करते थे।
गरुड़, गरुड़ पड़ाव भी कहलाता था। पड़ाव का अर्थ होता है ठहरना या रुकना। गरुड़ कुमाऊं व गढ़वाल की व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र भी रहा है। वर्ष 1928 में गरुड़ में सड़क आई। अन्य स्थानों तक सड़क नहीं थी।तब गढ़वाल के देवाल, थराली, घेस, कर्णप्रयाग, देवाल, मुन्दोली आदि उच्च हिमालयी क्षेत्र दानपुर पट्टी कपकोट व पिथौरागढ़ के लोग गरुड़ में ही रुकते थे और यहीं से व्यापार करते थे। इसलिए यह गरुड़ पड़ाव कहलाया। गरुड़ में धान की फसल काफी मात्रा में होती है। इसलिए यहां से कुमाऊं व गढ़वाल, यहां तक कि तिब्बत तक गरुड़ का धान जाता था। गढ़वाल के क्षेत्रों से यहां आलू आता था। जो हल्द्वानी तक जाता था। तिब्बत से यहां नमक आता था।
कपकोट व पिथौरागढ़ से उच्च हिमालयी क्षेत्रों की बकरियां आती थी। जो पाये, दर्शानी व सिल्ली के सेरों में चरती थी।तब गरुड़ स्थित लालपुल के आसपास मात्र चार-पांच दुकानें हुआ करती थी। जहां आज गरुड़ की मुख्य बाजार है। तब वहां सेरा हुआ करता था। गरुड़ में गुड़, चना, आलू, कपड़े आदि सामान इकट्ठा होने के बाद उन्हें अन्य स्थानों में भेजा जाता था।तमाम क्षेत्रों के व्यापारी यहीं ठहरते थे।आज भी बुजुर्ग लोग इसे गरुड़ पड़ाव के नाम से ही जानते हैं।