एक पेड़ के नाम से जाना जाता है पहाड़ों पर बसा ये खूबसूरत शहर, जानें- इसकी खासियत
हल्द्वानी शहर का नाम हल्दू के पेड़ पड़ा। पर अब तेजी से कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हल्द्वानी में अब यह पेड़ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए छटपटा रहा है।
By Skand ShuklaEdited By: Updated: Fri, 09 Nov 2018 03:56 PM (IST)
नैनीताल [जागरण स्पेशल]। उत्तराखंड का हल्द्वानी, जिसे गेटवे ऑफ कुमाऊं भी कहा जाता है। अद्वितीय खूबसूरती और हरे-भरे पहाड़ इसकी पहचान हैं। यहां का शांत और शुद्ध वातावरण किसी का भी मन मोह सकता है। क्या आपको पता है कि उत्तराखंड के इस खूबसूरत शहर का नाम हल्द्वानी कैसे पड़ा?
हल्द्वानी की पहचान उसके खूबसूरत जंगल और हरियाली है, लिहाजा इस शहर का नाम भी यहां के एक खास स्थानीय पेड़ पर पड़ा है। इस पेड़ का नाम है हल्दू। हल्दू पेड़ की वजह से ही इस इलाके को पहले हल्दीवन या हल्दूवन के नाम से भी जाना जाता था। इस पेड़ ने इस शहर का नाम तो आबाद कर दिया, लेकिन अब खुद बर्बादी की कगार पर खड़ा है। हो सकता है आने वाली पीढ़ी इस पेड़ को न देख पाए।
तेजी से कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो रहे हल्द्वानी में अब यह पेड़ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए छटपटा रहा है। एक समय था, जब यह पेड़ खुद ही उग जाया करता था। अब इस पेड़ के बीज जमीन में गिरते भी हैं तो पर्याप्त नमी नहीं होने के चलते अंकुरित नहीं हो पाते हैं। इससे इन पेड़ों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। यह हकीकत वन अनुसंधान केंद्र ने उजागर की है। यही वजह है कि वन अनुसंधान केंद्र अब हल्दू के पेड़ को संरक्षित करने में जुट गया है।
इस पेड़ की ऊंचाई 110 फिट और चौड़ाई 20 फीट तक देखी गई है। इसकी लकड़ी डिजाइनर फर्नीचर बनाने के काम आती है। इस वजह से भी इसका कटान तेजी से हुआ है। इसका वानस्पतिक नाम हल्डिना कार्डीफोलिया है।
जैव विविधता के लिए भी उपयोगी
यह पेड़ जैव विविधता के लिए भी बहुत अधिक महत्व रखता है। सामान्य पेड़ों की अपेक्षा हल्दू का पेड़ कई गुना अधिक शुद्ध हवा देता है। काफी बड़ा और ऊंचा होने के कारण काफी संख्या में पक्षी इस पर अपना आवास बनाते हैं। पक्षियों के अलावा ये पेड़ लंगूर, बंदर, गिद्ध व चील आदि को भी आसरा देता है। इसकी पत्तियां जानवरों के हरे चारे के लिए उपयोग में लाई जाती हैं। टहनियां जलाने के काम आती हैं। बीज अंकुरित होने के लिए चाहिए पर्याप्त नमी
वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट बताते हैं, हल्दू का बीज बहुत बारीक होता है। एक किलो बीज में करीब एक करोड़ दाने होते हैं। यही वजह है कि पहले हल्द्वानी आसपास इस पेड़ के जंगल हुआ करते थे। इन बीजों को अंकुरित होने के लिए पर्याप्त नमी चाहिए, जो शहरीकरण की वजह से अब नहीं मिल पा रही है। इसलिए इनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।फर्नीचर की खूबसूरती देखते ही बनती है
हल्दू की लकड़ी मजबूत ही नहीं होती, बल्कि इसकी चमक देखते ही बनती है। इसलिए अलमारी व दुकानों में रैक बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस लकड़ी में डिजाइन करना भी आसान है। इसलिए फर्नीचर के रूप में इस लकड़ी का इस्तेमाल अधिक किया जाता रहा है।
छाल से प्राकृतिक रंग के रूप में इस्तेमाल
हल्दू पेड़ की छाल का रंग पीला होता है। इस छाल से प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। कृषि अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट कहते हैं, इस रंग का उपयोग कई जगह किया जा सकता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में भी इसका प्रयोग हो सकता है।
शिवालिक पहाडिय़ों की तलहटी में पनपने की बेहतरीन जगह
हल्दू के पेड़ का हैबिटेट शिवालिक पहाड़ी की तहलटी है। खासकर हल्द्वानी सबसे उपयुक्त जगह है। चम्पावत के टनकपुर से लेकर तलहटी वाले क्षेत्रों में यह पेड़ पाया जाता है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र बेहतर माना जाता है। 2017 में मोटाहल्दू में काट दिया था विशाल पेड़
हल्द्वानी के मोटाहल्दू क्षेत्र में हल्दू का एक बहुत पुराना और विशाल पेड़ था। सड़क चौड़ीकरण के चलते यह पेड़ विकास की भेंट चढ़ गया। इसके अलावा इस प्रजाति के अधिकांश पेड़ आबादी बढ़ने और लकड़ी की जरूरत पूरी करने के चलते कट गए। तमाम पेड़ों को माफियाओं ने ही अवैध तरीके से काट डाला। इस तरह संरक्षित किया जा रहा ये पेड़
वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट के अनुसार हल्दू पेड़ की उपयोगिता को देखते हुए इसे संरक्षित करना शुरू कर दिया गया है। इसके लिए पौधालय तकनीक विकसित की गई है। बीज अंकुरित करने के साथ ही वर्धी प्रजनन अथवा वानस्पतिक पुनरोत्थान के माध्यम से पौध तैयार किए जा रहे हैं। स्कूल परिसर, वन क्षेत्रों, सार्वजनिक स्थानों में इन पोधौं का रोपण किया जा रहा है। इन पौधों का अस्तित्व बचाने के लिए हल्द्वानी के अलावा दिल्ली और उत्तर प्रदेश को भी भेजा जा रहा है। फर्नीचर की खूबसूरती देखते ही बनती है
हल्दू की लकड़ी मजबूत ही नहीं होती, बल्कि इसकी चमक भी देखते ही बनती है। इसलिए अलमारी व दुकानों में रैक बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस लकड़ी में डिजाइन करना भी आसान है। इसलिए फर्नीचर के रूप में इस लकड़ी का इस्तेमाल अधिक किया जाता रहा है।
छाल से प्राकृतिक रंग के रूप में इस्तेमाल
हल्दू पेड़ की छाल का रंग पीला होता है। इस छाल से प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। कृषि अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट कहते हैं, इस रंग का उपयोग कई जगह किया जा सकता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में भी इसका प्रयोग हो सकता है।
शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में पनपने की बेहतरीन जगह
हल्दू के पेड़ का हैबिटेट शिवालिक पहाड़ी की तहलटी है। इसलिए हल्द्वानी इसके लिए सबसे उपयुक्त जगह है। चम्पावत के टनकपुर से लेकर तलहटी वाले क्षेत्रों में यह पेड़ पाया जाता है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र इस पेड़ के लिए बेहतर माना जाता है। यह भी पढ़ें : जवान होते प्रदेश को विकास का इंतजार : राज्य स्थापना दिवस आज
यह भी पढ़ें : पहाड़ में आज भी जिंदा है च्यूड़े से सिर पूजने की परंपरा
आपके शहर की हर बड़ी खबर, अब आपके फोन पर। डाउनलोड करें लोकल न्यूज़ का सबसे भरोसेमंद साथी- जागरण लोकल ऐप।यह पेड़ जैव विविधता के लिए भी बहुत अधिक महत्व रखता है। सामान्य पेड़ों की अपेक्षा हल्दू का पेड़ कई गुना अधिक शुद्ध हवा देता है। काफी बड़ा और ऊंचा होने के कारण काफी संख्या में पक्षी इस पर अपना आवास बनाते हैं। पक्षियों के अलावा ये पेड़ लंगूर, बंदर, गिद्ध व चील आदि को भी आसरा देता है। इसकी पत्तियां जानवरों के हरे चारे के लिए उपयोग में लाई जाती हैं। टहनियां जलाने के काम आती हैं। बीज अंकुरित होने के लिए चाहिए पर्याप्त नमी
वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट बताते हैं, हल्दू का बीज बहुत बारीक होता है। एक किलो बीज में करीब एक करोड़ दाने होते हैं। यही वजह है कि पहले हल्द्वानी आसपास इस पेड़ के जंगल हुआ करते थे। इन बीजों को अंकुरित होने के लिए पर्याप्त नमी चाहिए, जो शहरीकरण की वजह से अब नहीं मिल पा रही है। इसलिए इनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।फर्नीचर की खूबसूरती देखते ही बनती है
हल्दू की लकड़ी मजबूत ही नहीं होती, बल्कि इसकी चमक देखते ही बनती है। इसलिए अलमारी व दुकानों में रैक बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस लकड़ी में डिजाइन करना भी आसान है। इसलिए फर्नीचर के रूप में इस लकड़ी का इस्तेमाल अधिक किया जाता रहा है।
छाल से प्राकृतिक रंग के रूप में इस्तेमाल
हल्दू पेड़ की छाल का रंग पीला होता है। इस छाल से प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। कृषि अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट कहते हैं, इस रंग का उपयोग कई जगह किया जा सकता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में भी इसका प्रयोग हो सकता है।
शिवालिक पहाडिय़ों की तलहटी में पनपने की बेहतरीन जगह
हल्दू के पेड़ का हैबिटेट शिवालिक पहाड़ी की तहलटी है। खासकर हल्द्वानी सबसे उपयुक्त जगह है। चम्पावत के टनकपुर से लेकर तलहटी वाले क्षेत्रों में यह पेड़ पाया जाता है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र बेहतर माना जाता है। 2017 में मोटाहल्दू में काट दिया था विशाल पेड़
हल्द्वानी के मोटाहल्दू क्षेत्र में हल्दू का एक बहुत पुराना और विशाल पेड़ था। सड़क चौड़ीकरण के चलते यह पेड़ विकास की भेंट चढ़ गया। इसके अलावा इस प्रजाति के अधिकांश पेड़ आबादी बढ़ने और लकड़ी की जरूरत पूरी करने के चलते कट गए। तमाम पेड़ों को माफियाओं ने ही अवैध तरीके से काट डाला। इस तरह संरक्षित किया जा रहा ये पेड़
वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट के अनुसार हल्दू पेड़ की उपयोगिता को देखते हुए इसे संरक्षित करना शुरू कर दिया गया है। इसके लिए पौधालय तकनीक विकसित की गई है। बीज अंकुरित करने के साथ ही वर्धी प्रजनन अथवा वानस्पतिक पुनरोत्थान के माध्यम से पौध तैयार किए जा रहे हैं। स्कूल परिसर, वन क्षेत्रों, सार्वजनिक स्थानों में इन पोधौं का रोपण किया जा रहा है। इन पौधों का अस्तित्व बचाने के लिए हल्द्वानी के अलावा दिल्ली और उत्तर प्रदेश को भी भेजा जा रहा है। फर्नीचर की खूबसूरती देखते ही बनती है
हल्दू की लकड़ी मजबूत ही नहीं होती, बल्कि इसकी चमक भी देखते ही बनती है। इसलिए अलमारी व दुकानों में रैक बनाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। इस लकड़ी में डिजाइन करना भी आसान है। इसलिए फर्नीचर के रूप में इस लकड़ी का इस्तेमाल अधिक किया जाता रहा है।
छाल से प्राकृतिक रंग के रूप में इस्तेमाल
हल्दू पेड़ की छाल का रंग पीला होता है। इस छाल से प्राकृतिक रंग तैयार किया जाता है। कृषि अनुसंधान केंद्र के प्रभारी मदन बिष्ट कहते हैं, इस रंग का उपयोग कई जगह किया जा सकता है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में भी इसका प्रयोग हो सकता है।
शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में पनपने की बेहतरीन जगह
हल्दू के पेड़ का हैबिटेट शिवालिक पहाड़ी की तहलटी है। इसलिए हल्द्वानी इसके लिए सबसे उपयुक्त जगह है। चम्पावत के टनकपुर से लेकर तलहटी वाले क्षेत्रों में यह पेड़ पाया जाता है। इसके लिए उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र इस पेड़ के लिए बेहतर माना जाता है। यह भी पढ़ें : जवान होते प्रदेश को विकास का इंतजार : राज्य स्थापना दिवस आज
यह भी पढ़ें : पहाड़ में आज भी जिंदा है च्यूड़े से सिर पूजने की परंपरा