'हिमाचल पथ परिवहन निगम का नहीं कोई मुकाबला', एचआरटीसी को नए रंग देने वाले इस पूर्व प्रशासनिक अफसर ने ऐसा क्यों कहा
कई बार बेआराम होते हुए भी बस की सवारी में एक अदभुत आनंद और आकर्षण है। धरती से हजारों मील ऊपर विमान में उड़ना भले ही रोमांचक हो किंतु रंगों से भरी दुनिया का सबसे अच्छा अनुभव बस की यात्रा में ही मिलता है...। दो अक्टूबर को स्थापना के 50 वर्ष पूरे कर रहा है हिमाचल पथ परिवहन निगम जानिए ऊबड़खाबड़ पथ पर घुमावदार किंतु प्रेरक यात्रा।
तरुण श्रीधर। चार साल के बेटे ने पूछा, "हिमाचल पथ परिवहन निगम यानी एचआरटीसी क्या है और एमडी कौन है?" जवाब में मैंने कहा, "एचआरटीसी बसें चलाती है और एमडी उनका प्रबंधन देखता है।," ...पर यह उसे समझ नहीं आया। 1997 की बात है, स्थानांतरण के बाद दोनों बेटे मेरे साथ मंडी से शिमला जा रहे थे।
कार को डीसी के लहराते झंडे की आभा से मुक्त देख बेटे अपने पिता की प्रतिष्ठा और प्रभाव के प्रति चिंतित थे, क्योंकि एमडी एचआरटीसी के पद से वे अपरिचित थे। मां तो स्थानांतरण के बाद डीसी ही तैनात हुई। क्या मैं इस बार जिलाशीध न बन कर उन्हें निराश कर रहा था?
मैंने उन्हें बसों की गिनती करने के खेल में लगाया। सड़क पर एचआरटीसी की बसों की पहचान करो। जैसे ही वे कोई बस दिखाते, मैं गर्व से कहता कि यह हमारी बस है। कुछ ही समय में दर्जनों एचआरटीसी बसों को देखकर उन्हें संतोष हुआ कि उनके पिता डीसी बेशक ना हों, असफल नहीं हैं। उत्सुकता ने सवालों की झड़ी लगा दी थी और अचानक शह और मात हुई, "पापा, ड्राइवर बस चलाता है और कंडक्टर टिकट जारी करता है; आप क्या करोगे?" छोटे बेटे के प्रश्न ने मुझे स्तब्ध कर दिया।
ड्राइवर चलाए बस, टिकट काटे कंडक्टर...एमडी का क्या काम
वास्तव में यही वह सवाल है जो मैं प्रबंध निदेशक के रूप में हर दिन स्वयं से पूछता था क्योंकि एचआरटीसी एक जीवंत संगठन या संस्थान है, अन्य की भांति निर्जीव नही। कार्यबल के प्रत्येक सदस्य को आत्मनिरीक्षण के लिए प्रोत्साहित किया, "वे क्या कर रहे हैं...इससे भी अधिक यह कि वे क्या कर सकते हैं?" सरकार में व्याप्त संदेह के माहौल के बीच यहां प्रतिक्रिया में उत्साह और सकारात्मकता थी, ताजा हवा के झोंके जैसी।
तरुण श्रीधर, पूर्व अधिकारी, भारतीय प्रशासनिक सेवा
मोहम्मद तकी बोला, मैं चलाऊंगा साहब की गाड़ी
छोटा, लेकिन यादगार, कार्यकाल समाप्त हो गया और मैं प्रतिनियुक्ति पर मसूरी चला गया। एक सप्ताहांत मैं अपनी मारुति कार चला कर शिमला जा रहा था जब देहरादून में एक अज्ञात युवक ने बीच सड़क में मेरी कार रोकी। बोला, "सर, हमें पता चला कि एमडी साहब खुद गाड़ी चलाकर शिमला जा रहे हैं, इसलिए मैं आपकी गाड़ी चलाने के लिए आया हूं।"
यह था नाहन डिपो का ड्राइवर मोहम्मद तकी। मैं एमडी नहीं था अब। सेवा और निष्ठा का यह भाव अपरिहार्य था, अभिभूत करने वाला। तकी ने आने वाले कई अवसरों पर यह सेवा जारी रखी। एचआरटीसी के कर्मचारियों के चरित्र को परिभाषित करता है तकी... संस्थान पर गर्व और नेता पर नाज़, भले ही वह अतीत का हो। विषम वित्तीय स्थिति, दयनीय बुनियादी ढांचे, जीर्ण-शीर्ण संपत्तियां इस संगठन की पहचान थी। असंभव सा लगता था इसे पटरी पर लाना। उत्कृष्ट मानव संसाधन ने कुशलतापूर्वक सहजता से संचालन कर इसे संरक्षित रखा। उत्कृष्टता हालांकि संगठन के हर स्तर पर थी, नीला कालर श्रमिकों में अधिक प्र्रत्यक्ष थी; संयोग से, नीला एचआरटीसी बसों का प्रमुख रंग भी था। यही वह वर्ग था जिसने इसके डूबते भाग्य को पुनर्जीवित करने के लिए सबसे अमूल्य योगदान दिया।
दोबारा शुरू की बसों की खरीद
एचआरटीसी की तुलनात्मक श्रेष्ठता लंबे मार्गों पर दिखती है, विशेषत: अंतरराज्यीय मार्गों पर इसका दबदबा है। लेकिन कौन ऐसी जर्जर बस में लंबे समय तक यात्रा करना पसंद करेगा जिसमें सीटें बेहद असुविधाजनक हों। कर्मचारियों ने आग्रह किया कि आपकी प्रबंधन पद्धति कितनी भी प्रभावी क्यों न हो, जब तक यात्रियों की सुरक्षा और आराम सुनिश्चित नहीं किया जाता, स्थिति बेहतर नहीं होगी। एक दशक के बाद लक्जरी डीलक्स कोच फिर से शुरू किए गए; इन बसों को अतीत में की गई खरीद में विवाद के कारण बंद कर दिया गया था और तब से किसी ने भी अनावश्यक आरोप झेलने में बुद्धिमानी नहीं समझी। कर्मचारियों ने एक बार फिर से इन बसों को खरीदने के लिए मुझे प्रोत्साहित किया और आश्वस्त किया कि विपरीत परिस्थिति में भी वह इस निर्णय का समर्थन करेंगे।
महिलाएं लिपस्टिक लगाकर उम्र छुपाएं तो बसों पर रंग क्यों नहीं हो सकता
कुछ डीलक्स बसों ने अंतरराज्यीय यात्रा में सुविधा तो बढ़ा दी, लेकिन हमारे अंतरराज्यीय यात्रियों में से अधिकांश ने अपनी निष्ठा, ना चाहते भी, निजी ऑपरेटरों को दे दी थी। बस परिवहन के निजीकरण के बाद इनके पास अधिकतर नई बसें थी। परिचालन कर्मचारियों के साथ अक्सर मैं अनौपचारिक बैठकें करता था।
एक बस चालक ने शानदार प्रस्ताव दिया, देहाती अंदाज में, "ढलती उम्र में महिला मेकअप, गहरी लिपस्टिक इत्यादि से आयु छुपाती है; हम अपनी पुरानी बसों का भी इसी तरह मेकअप क्यों नहीं करते? यात्री बस चुनने से पहले इंजन या गियरबॉक्स की जांच तो करता नहीं।" सरल लेकिन शानदार सुझाव। तुरंत एक नई रंग योजना की शुरूआत और प्रत्येक डिपो को कम से कम पांच बसों को फिर से रंगने का लक्ष्य एक ही महीने में यह सनसनी पैदा करने के लिए पर्याप्त था कि एचआरटीसी पुराने बेड़े को बदल बड़े पैमाने पर नई खरीद कर रही है। ऑक्यूपेंसी में वृद्धि हुई और प्रतियोगियों को प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए नई रणनीति बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
सर जी, यह बोलो, 'आधी सवारी को मिलेगी पूरी सीट'
कर्मचारियों से बातचीत में मैं उन मुद्दों को उजागर करता था जिन्हें सामूहिक रूप से संबोधित करने की आवश्यकता थी। प्रति बस घटती औसत ऑक्यूपेंसी एजेंडे में प्रमुख रहती क्योंकि हम लगभग 50 प्रतिशत की दर से संघर्ष कर रहे थे।
मैं समझाता कि इसका मतलब है कि बस की आधी सीटें खाली हैं। इस स्तर की ऑक्यूपेंसी पर संचालन बनाए रखना कठिन है, मै दोहराता। एक हाजिरजवाब युवा कंडक्टर ने ललकारा, "अगर बस में आधी सीटें खाली हैं, तो हमने यह घोषणा क्यों की है कि आधी सवारी को सीट नहीं मिलेगी; यह क्यों नहीं कहते कि आधी सवारी को पूरी सीट मिलेगी?" शानदार सुझाव; लागत शून्य। इसके क्रियान्वयन से न केवल राजस्व में वृद्धि हुई, बल्कि संगठन की प्रतिष्ठा भी बढ़ी।
रफ्तार...जीटी रोड ते दुहाइयां पावे, यारां दा ट्रक बल्लिए
इक्के-दुक्के अनुभव हैं यह जो प्रमाणित करते हैं कि एचआरटीसी की पहचान अपने कर्मचारियों की व्यवसायिकता और प्रतिबद्धता से है जो प्रतिकूल परिस्थितियों और बाधाओं में दायित्वों का निर्वहन करते हैं; इनमें जो अदम्य कौशल और साहस है बहुतों में नहीं पाया जाता।
लंबे रूटों पर रात्रि बस सेवा एचआरटीसी की देन है। 'जीटी रोड ते दुहाइयां पावे नी यारां दा ट्रक बल्लिए' जोशीला पंजाबी गाना है। रात को जीटी रोड पर दुहाइयां एचआरटीसी की हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि एचआरटीसी को रातों का राजा की उपाधि दी गई है।
और अंत में...रफ्तार नाम था एचआरटीसी की अपनी पत्रिका का। रफ्तार? संकीर्ण घुमावदार सड़कों पर? जी हां, क्योंकि सीधी सड़कों पर क्या पता चलेगा कि कौन चालक कुशल है, कौन नहीं।
लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी हैं, हिमाचल प्रदेश में अतिरिक्त मुख्य सचिव रहने के बाद केंद्र सरकार में सचिव पद से सेवानिवृत्त हैं।