एस.के. सिंह, नई दिल्ली। यूरोप के औपनिवेशिक शासक एक संपन्न देश में आते हैं। धीरे-धीरे वहां का शासक बन जाते हैं और उस देश को अपना उपनिवेश बना लेते हैं। फिर उस देश के संसाधन अपने देश ले जाकर अपने हक में उनका इस्तेमाल करते हैं। इस प्रक्रिया में वह उपनिवेश जो पहले दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में गिना जाता था, गरीब बन जाता है तथा उपनिवेश बनाने वाला देश और अधिक संपन्न हो जाता है।

ये पंक्तियां निश्चय ही आपको भारत में ब्रिटिश शासन की याद दिला रही होंगी। ऐसे ही उपनिवेश और औपनिवेशिक शासक देशों के संबंधों पर शोध करने वाले तीन अर्थशास्त्रियों को वर्ष 2024 के लिए अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। ये हैं डेरॉन एसमोग्लु, साइमन जॉनसन और जेम्स रॉबिन्सन। डेरॉन एसमोग्लु (Daron Acemoglu) और साइमन जॉनसन (Simon Johnson) अमेरिका के मैसाचुसेट्स इंस्टटीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर हैं। प्रो. जेम्स रॉबिन्सन शिकागो यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं।

नोबेल अर्थशास्त्रियों के शोध का महत्व

इनके शोध से किसी देश की संपन्नता में सामाजिक संस्थानों के महत्व को समझने में मदद मिलती है। इससे यह भी पता चलता है कि विभिन्न देशों की संपन्नता के बीच अंतर क्यों है। जिस समाज में कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब है और जहां के संस्थान आबादी का शोषण करते हैं, वहां ग्रोथ लोगों की बेहतरी या बदलाव के लिए नहीं होते। इन अर्थशास्त्रियों ने बताया है कि ऐसा क्यों होता है।

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एसमोग्लु और रॉबिन्सन ने इस सिद्धांत पर मशहूर किताब ‘व्हाई नेशंस फेलः द ओरिजिंस ऑफ पावर, प्रॉस्पेरिटी एंड पॉवर्टी’ लिखी है। ‘द नैरो कॉरिडोरः स्टेट्स, सोसायटीज एंड द फेट ऑफ लिबर्टी’ और ‘इकोनॉमिक ओरिजिंस ऑफ डिक्टेटरशिप एंड डेमोक्रेसी’ इस विषय पर इन दोनों की अन्य किताबें हैं। तीनों अर्थशास्त्रियों ने एक साथ अनेक लेख भी लिखे हैं। इस विषय पर इनका एक लेख ‘द कोलोनियल ओरिजिंस ऑफ कम्परेटिव डेवलपमेंटः एन एम्पिरिकल इन्वेस्टिगेशन’ 2001 में अमेरिकन इकोनॉमिक रिव्यू में प्रकाशित हुआ था। इसमें इन्होंने बताया है कि यूरोपियंस ने अलग-अलग उपनिवेश में अलग नीतियां अपनाईं। जहां उनकी मृत्यु दर अधिक थी, जहां वे बस नहीं सकते थे, वहां उन्होंने शोषणकारी संस्थान बनाए।

विकास में संस्थानों की भूमिका

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर जागरण प्राइम से कहते हैं कि कई वर्षों से नोबेल के लिए इनके नामों की चर्चा हो रही थी। उपनिवेश और औपनिवेशिक शासक देशों के विकास पर इन तीनों ने काफी काम किया है और विकास में संस्थानों का महत्व बताया है।

दरअसल, जब यूरोपियंस ने दुनिया के अनेक देशों को अपना उपनिवेश बना लिया था, तब उन्होंने वहां के सामाजिक संस्थानों में बदलाव किए। लेकिन ये बदलाव हर जगह एक समान नहीं थे। कुछ जगहों पर उपनिवेश बनाने का कारण वहां के लोगों का शोषण करना तथा औपनिवेशिक शासक के फायदे के लिए संसाधनों का इस्तेमाल करना था। दूसरी जगहों पर औपनिवेशिक शासकों ने समावेशी राजनीतिक और आर्थिक सिस्टम का विकास किया ताकि यूरोप से आने वालों को आगे चल कर फायदा हो।

ज्यादातर समावेशी संस्थान उन देशों में बनाए गए जो उपनिवेश बनाए जाने के समय गरीब थे। दीर्घकाल में वहां के लोगों को इसका फायदा मिला और वहां संपन्नता बढ़ी। यह एक बड़ा कारण है कि जो पुराने उपनिवेश पहले अमीर थे, वे अब गरीब हैं तथा जो गरीब थे, वे अब अमीर हैं।

जिन देशों में शोषणकारी संस्थान थे वहां आर्थिक विकास की दर धीमी रही। समावेशी संस्थान से दीर्घकाल में सबको फायदा होता है, लेकिन शोषणकारी संस्थानों से सत्ता में बैठे लोगों को ही अल्पकालिक लाभ मिलता है। जब तक वे सत्ता में रहते हैं तब तक उनके आर्थिक सुधार के वादों पर कोई भरोसा नहीं करता। इसलिए वहां कोई सुधार भी नहीं होता।

अलग-अलग जगह विकास का स्तर अलग क्यों

प्रो. ठाकुर कहते हैं, पहले विकास के सिर्फ दो आयाम देखे जाते थे- उपनिवेश और औपनिवेशिक शासक। लेकिन इन अर्थशास्त्रियों ने उससे परे जाकर विकास की व्याख्या की। इनका कहना है कि विकास में सामाजिक और राजनीतिक संस्थानों की अहम भूमिका होती है। जिन देशों में ये संस्थान मजबूत हुए, वहां विकास भी अधिक हुआ। इनका तर्क था कि यूरोपियंस ने तो कनाडा (जैसे देश) को उपनिवेश बनाया और अफ्रीका को भी, लेकिन विकास सिर्फ कनाडा का हुआ, अफ्रीका का नहीं।

दरअसल यूरोपियंस ने दुनिया के अनेक देशों को अपना उपनिवेश बनाया। अमेरिका और कनाडा जैसे देशों में उन्हें वातावरण बहुत हद तक अपने देश जैसा मिला। इसलिए काफी यूरोपियन वहां बस गए और सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थान स्थापित किए। लेकिन अफ्रीका जैसी जगहों पर यूरोपियंस के लिए रहना मुश्किल था। वहांं उनकी मृत्यु दर बहुत अधिक थी। इसलिए उन्होंने ऐसे देशों के संसाधनों का अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू किया। वहां संस्थान विकसित नहीं किए।

उदार संस्थानों का फायदा

प्रो. ठाकुर के अनुसार, इन अर्थशास्त्रियों ने यह सवाल भी उठाया कि उपनिवेश तो ब्रिटेन के अलावा फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल ने भी बनाए। लेकिन जैसा साम्राज्य ब्रिटेन का बना वैसा स्पेन या पुर्तगाल का क्यों नहीं बना। इनका तर्क है कि जिन देशों में राजनीतिक और सामाजिक संस्थान उदार थे, उन्हें स्थिति का अधिक फायदा मिला। जिस समाज में कट्टरता अधिक थी वह उतना सफल नहीं हो सका। उदाहरण के लिए एक समय कैथोलिक समाज में ब्याज लेने को बुरा माना जाता था। लेकिन ब्रिटेन के समाज ने ब्याज आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया और वे आगे बढ़े।

दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार कहते हैं, नोबेल अर्थशास्त्रियों की थ्योरी में दो बातें मुख्य रूप से कही गई हैं। एक है संस्थाओं को मजबूत बनाना और दूसरा है कॉन्ट्रैक्ट का पालन। भारत के संदर्भ में देखें तो इन दोनों बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। हमारे यहां कॉन्ट्रैक्ट पालन की व्यवस्था मजबूत नहीं है। उदाहरण के लिए अगर किसी का चेक बाउंस हो जाता है तो उसे लंबे समय तक कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ते हैं। यही बात संस्थाओं के मामले में कही जा सकती है। हमने अमेरिका और यूरोप की नीतियों का तो अनुसरण किया, लेकिन उन नीतियों को लागू करने में हम उनसे काफी पीछे रह जाते हैं।

उनका कहना है, भारत के संदर्भ में कहें तो हमें इन दोनों मोर्चों पर काम करने की जरूरत है। हमें ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है जिनका हम आसानी से पालन कर सकें। हमने 1991 के बाद सुधार तो अनेक किए, लेकिन ज्यूडिशियल रिफॉर्म, पुलिस रिफॉर्म जैसे क्षेत्रों में अभी हमें बहुत काम करने की जरूरत है। तब विकास भी समावेशी होगा।

भारत पर भी लागू होती है बात

वर्ष 1700 के आसपास विश्व अर्थव्यवस्था में एक-चौथाई अकेले भारत की इकोनॉमी थी। प्रो. ठाकुर कहते हैं, वर्ष 1800 तक भारत तथा एशिया के और कई देशों की अर्थव्यवस्था काफी मजबूत थी। लेकिन उसके बाद यहां विकास धीमा हो गया। भारत में भी आधुनिक उद्योग से पहले जब लोग कृषि पर ज्यादा आश्रित थे, तब गंगा के किनारे बसे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल के क्षेत्र अधिक संपन्न थे। वहां के संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा लागू की। नतीजा यह हुआ कि धीरे-धीरे वे इलाके गरीब होते गए। आजादी के बाद भी पूर्वी राज्यों में सामंती व्यवस्था काफी हद तक बनी रही जिसका खमियाजा वहां विकास पर दिखता है।

जेएनयू के रिटायर्ड प्रो. अरुण कुमार ने इसी विषय पर ‘इंडियन इकोनॉमी सिंस इंडिपेंडेंस’ किताब लिखी है। इसमें इन्होंने बताया है कि कैसे ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की इकोनॉमी और यहां के सिस्टम को तहस-नहस किया गया। इसकी वजह से जो तरक्की होनी चाहिए थी वह नहीं हो पाई।

वे कहते हैं, “हमारे समाज में समस्या दो तरह से है। एक तो आर्थिक समस्या है। दूसरा, हमारे शासक वर्ग ने आम लोगों से नाता लगभग खत्म कर लिया है। आज भी लोग पुलिस के पास जाने से घबराते हैं। लोकतंत्र में जवाबदेही होनी चाहिए, लेकिन शासक और शासित वर्ग के बीच अंतर के कारण ऐसा नहीं हो पाता है। हमने आजादी के बाद से ‘ट्रिकल डाउन’ और ‘टॉप डाउन’ नीतियां अपनाई हैं। इससे वंचित वर्ग को जो मिलना चाहिए वह नहीं मिलता है। इससे गैर-बराबरी भी बढ़ी।”

इसलिए नीचे का तबका नेताओं पर विश्वास ही नहीं करता। वह सिर्फ इतना देखता है कि आज उसके हाथ में क्या मिलेगा। हमारी राजनीतिक व्यवस्था भी वैसी ही हो गई है। इसमें यह देखा जाता है कि आज हम लोगों को क्या देंगे, दीर्घकाल में उनका कैसे विकास हो इस पर कम ध्यान दिया जाता है। इस तरह समाज में दूरी बढ़ गई है, और जब दूरी बढ़ती है तो लोग शासक वर्ग पर भरोसा नहीं करते।

एक और महत्वपूर्ण बात है पॉलिटिकल इकोनॉमी। प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, इस पर जितना ध्यान देना चाहिए था वह नहीं दिया गया। विक्रम सेठ ने ‘ए सूटेबल बॉय’ किताब में लिखा है कि आजादी के बाद भारत का शासक वर्ग जमींदार वर्ग था। वह नहीं चाहता था कि गरीबों के बच्चों को शिक्षा मिले। मैंने कुछ समय ग्रामीण विकास पर काम किया है। उस दौरान (1976 में) मैंने देखा, जमींदार कहता था कि गरीबों के बच्चों को पढ़ाएंगे तो हमारे यहां गड़रिया का काम कौन करेगा।

उनका कहना है, किसी देश में संस्थान तो तब बनेंगे जब पॉलिटिकल इकोनॉमी सही होगी। बिना शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था के हम विकसित देश कैसे बन पाएंगे? अमर्त्य सेन ने 1986 में एक लेख में बताया था कि दक्षिण पूर्व एशिया के मलेशिया, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया जैसे देश 1947 में गरीबी, अशिक्षा जैसे मामलों में एक स्तर पर थे, लेकिन उन देशों ने 1965 तक काफी तरक्की कर ली। उनके सभी बच्चे स्कूलों में पढ़ रहे थे, उन्होंने स्वास्थ्य व्यवस्था में काफी सुधार किया, इससे उनका श्रमिक काफी प्रोडक्टिव हो गया। हमने भी सभी बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य रखा था लेकिन वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है।

नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीनों अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सकारात्मक बदलाव के वादे पर लोगों का भरोसा न करना लोकतंत्र लाने का एक कारण है। विद्रोह का खतरा बढ़ने पर सत्ता में बैठे लोग दुविधा में फंस जाते हैं। वे सत्ता में तो रहना चाहते हैं, लेकिन दूसरी तरफ आम लोगों को आर्थिक सुधारों का दिलासा भी देते हैं। लेकिन लोगों को उनकी बातों पर भरोसा नहीं होता, और आखिरकार सत्ता हस्तांतरण होता है और लोकतंत्र आता है।

इनके नामों की घोषणा के बाद नोबेल पुरस्कार चयन समिति के प्रमुख जेकब स्वेन्सन ने कहा, विभिन्न देशों के बीच संपन्नता के विशाल अंतर को कम करना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है। तीनों अर्थशास्त्रियों ने इसे हासिल करने में सामाजिक संस्थानों के महत्व को दर्शाया है।

1969 से दिया जा रहा है अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार

वैसे तो नोबेल पुरस्कार 1901 से दिए जा रहे हैं, लेकिन अर्थशास्त्र के लिए इस पुरस्कार की शुरुआत 1969 में हुई। स्वीडन के केंद्रीय बैंक स्वेरियस रिक्सबैंक (Sveriges Riksbank) ने नोबेल पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की याद में 1968 में ‘स्वेरियस रिक्सबैंक प्राइज इन इकोनॉमिक साइंसेज’ की स्थापना की। पुरस्कार राशि बैंक ही देता है। यह राशि अन्य नोबेल पुरस्कारों के बराबर होती है। दूसरे नोबेल पुरस्कारों की तरह स्टॉकहोम स्थित रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज ही हर साल पुरस्कार विजेता का चयन करती है। इसके सिद्धांत वही हैं जो दूसरे नोबेल पुरस्कारों के लिए होते हैं।

अर्थशास्त्र का पहला नोबेल 1969 में रैगनर फ्रिश्ख और जैन टिंबरजेन को दिया गया। वर्ष 2023 तक 55 बार में 93 अर्थशास्त्रियों को यह पुरस्कार दिया गया, जिनमें तीन महिलाएं हैं। यह पुरस्कार पाने वाले सबसे युवा अर्थशास्त्री एस्थर डुफ्लो हैं। उन्हें वर्ष 2019 में 46 साल की उम्र में ‘दुनिया से गरीबी दूर करने के व्यावहारिक नजरिए’ के कारण यह पुरस्कार मिला था। नोबेल पाने वाले सबसे बुजुर्ग अर्थशास्त्री लियोनिड हरविज हैं जिन्हें वर्ष 2007 में 90 साल की उम्र में ‘मेकैनिज्म डिजाइन थ्योरी’ के कारण यह पुरस्कार मिला था।

2023ः महिला लेबर फोर्स पर प्रो. क्लॉडिया गोल्डिन को पुरस्कार

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रो. क्लॉडिया गोल्डिन ने लेबर मार्केट में महिलाओं के साथ पक्षपात और उनकी कमाई पर रिसर्च की। उन्होंने 200 साल के आंकड़ों की स्टडी के आधार पर बताया कि जेंडर का रोजगार और कमाई पर क्या असर होता है। उन्होंने बताया कि पुरुषों और महिलाओं के वेतन में अंतर कैसे बदलता रहा- जब इकोनॉमी कृषि पर आधारित थी, जब इंडस्ट्री पर आधारित हुई और जब इकोनॉमी में सर्विसेस का योगदान बढ़ा।

उन्होंने बताया कि जब स्त्री-पुरुष साथ शुरुआत करते हैं तो दोनों उस समय बराबर होते हैं, लेकिन जब महिला का पहला बच्चा होता है उसके बाद से उसकी ग्रोथ नीचे चली जाती है। अमेरिका की अर्थव्यवस्था जब कृषि आधारित थी, तब लेबर फोर्स में महिलाओं की भागीदारी 60% के आसपास थी। उद्योग बढ़ने के साथ यह अनुपात घटने लगा। सर्विसेज का दौर शुरू होने पर महिलाओं का पार्टिसिपेशन रेट बढ़ा। इसके लिए उन्होंने कुछ और कारण गिनाए। क्लॉडिया ने बताया कि आधुनिकीकरण के साथ महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ा। इसके अलावा गर्भनिरोधक गोलियां आने से भी महिलाओं की आजादी बढ़ी कि कब मां बनना है, कब करियर में आगे बढ़ना है। इससे उनके पार्टिसिपेशन रेट में वृद्धि हुई।

2022ः बैंकों की भूमिका पर शोध के लिए तीन अर्थशास्त्रियों को नोबेल

वर्ष 2022 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार तीन अर्थशास्त्रियों को मिला था। इनमें अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन और वॉशिंगटन स्थित ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के बेन एस. बर्नान्के (Ben S. Bernanke), शिकागो यूनिवर्सिटी के डगलस डब्लू. डायमंड (Douglas W. Diamond) और वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के फिलिप एच. डिबविग (Philip H. Dybvig) शामिल हैं। इन्हें आर्थिक संकट के समय बैंकों की भूमिका पर शोध के लिए पुरस्कार दिया गया। बर्नान्के 2007-08 के आर्थिक संकट के समय फेड रिजर्व के प्रमुख थे। वर्ष 2007 में शुरू हुए सब-प्राइम संकट के बाद 2014 तक अमेरिका में 500 से ज्यादा छोटे-बड़े बैंक विफल हो गए थे।

इन अर्थशास्त्रियों ने 1980 के दशक में ही अपने शोध में कहा था कि बैंकों का डूबना आर्थिक संकट को बढ़ा सकता है। इनके विश्लेषण से वित्तीय बाजार को रेगुलेट करने और आर्थिक संकट से निपटने में काफी मदद मिली। बर्नान्के ने आधुनिक काल के सबसे बुरे, 1930 के दशक की भीषण मंदी का विश्लेषण किया था। उन्होंने बताया कि कैसे बैंकों के डूबने से संकट गहराया और लंबे समय तक बना रहा।

इकोनॉमी को आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि बचत का पैसा निवेश में जाए। बैंक इसमें अहम भूमिका निभाते हैं। आम लोग अपनी बचत का पैसा बैंक में जमा करते हैं और बैंक उन्हें बिजनेस को निवेश के लिए उपलब्ध कराते हैं। लेकिन किसी आशंका के कारण अगर बड़ी संख्या में जमाकर्ता बैंक से पैसे निकालने लगें तो बैंक के अस्तित्व पर संकट आ सकता है। तीनों अर्थशास्त्रियों ने अपने विश्लेषण में कहा कि सरकार अगर डिपॉजिट पर इंश्योरेंस दे और बैंकों को कर्ज मुहैया कराए तो बैंकों को डूबने से बचाया जा सकता है।

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