सैटेलाइट निर्माण में अग्रणी बन सकता है भारत, टाउन प्लानिंग जैसे क्षेत्रों में भी होने लगा है इनका प्रयोग
वर्ष 2023 में इसरो के कई बड़े मिशन लांच होने वाले हैं। स्पेस स्टार्टअप्स का भी लंबा लांच शेड्यूल है। जानिए किस तरह विभिन्न क्षेत्रों में सैटेलाइट की मांग बढ़ रही है और स्पेस स्टार्टअप्स की चुनौतियां क्या हैं
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। शीशा बनाने वाली एक कंपनी सैटेलाइट से पता लगाती है कि कहां-कहां बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा है। इस जानकारी के आधार पर कंपनी के प्रतिनिधि डेवलपर के पास जाते हैं और बिल्डिंग में अपना शीशा लगाने की पेशकश करते हैं। प्रॉपर्टी मेंटनेंस करने वाली कंपनी सैटेलाइट चित्र से देखती है कि किस रेजिडेंशियल प्रॉपर्टी के लॉन का रखरखाव ठीक से नहीं हो रहा है। मेंटेनेंस कंपनी के प्रतिनिधि उस प्रॉपर्टी के मालिक से संपर्क करते हैं और अपना ऑफर देते हैं।
यह सब महज कल्पना नहीं, हकीकत है। विकसित देशों में कॉरपोरेट जगत सैटेलाइट का इस्तेमाल अब इस हद तक करने लगा है। पहले अंतरिक्ष से जमीन पर स्पष्ट देखने में दिक्कत आती थी, लेकिन अब ऐसी सैटेलाइट आ गई हैं जिनसे एक-एक मीटर की स्थिति देख सकते हैं, कारों के नंबर प्लेट तक पढ़ सकते हैं। अंतरिक्ष की तरह इस सेक्टर में संभावनाओं के भी अनंत द्वार खुल रहे हैं।
भारत ने 2020 में स्पेस सेक्टर को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोला, और महज दो साल में भारतीय स्टार्टअप लांच, पेलोड, सैटेलाइट मैन्युफैक्चरिंग, रॉकेट इंजन और सैटेलाइट डाटा एनालिटिक्स के क्षेत्र में जिस तेजी से आगे बढ़े वह चौंकाने वाला है। इनका 2023 का शेड्यूल और हैरान करता है। हालांकि इनके सामने एक स्थिर रेगुलेटरी व्यवस्था, फंडिंग और प्रशिक्षित मैनपावर की कमी जैसी चुनौतियां भी हैं। अगर इन चुनौतियों का समाधान निकाला जाए तो भारत का स्पेस (Space) सेक्टर दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर सकता है। सबसे कम खर्च में बेहतरीन नतीजे देकर इसरो यह साबित कर चुका है।
2023 का लांच शेड्यूल
इंडियन स्पेस एसोसिएशन (ISpA) के डीजी लेफ्टिनेट जनरल (रिटायर्ड) ए.के. भट्ट ने जागरण प्राइम को बताया कि अग्निकुल स्टार्टअप जनवरी में अपना रॉकेट लॉन्च करने वाली है। इसकी अलग अहमियत इसलिए है क्योंकि इसका इंजन 3D टेक्नोलॉजी से बना है। स्काईरूट ने नवंबर में विक्रम-एस (Vikram-S) लांच किया था। वह 2023 में विक्रम-1 और विक्रम-2 भी लांच करेगी। पिक्सल ने इस साल ट्रायल किया था, 2023 की तीसरी तिमाही में उसकी तीन-चार सैटेलाइट लॉन्च करने की योजना है। अगले तीन-चार वर्षों में वह 36 सैटेलाइट का कॉन्सटेलेशन स्थापित करेगी।
भारतीय स्टार्टअप के आगे बढ़ने में इसरो (ISRO) की बड़ी भूमिका है। ये कंपनियां इसरो के इन्फ्रास्ट्रक्चर समेत कई सुविधाओं का इस्तेमाल करती हैं। इसरो ने खुद अंतरिक्ष के क्षेत्र में उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। यही कारण है कि अक्टूबर 2022 तक भारत ने अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, जर्मनी और स्वीडन समेत अनेक देशों के 381 सैटेलाइट लांच किए हैं।
इसरो भी अगले साल के कई महत्वाकांक्षी मिशन पर काम कर रहा है। मार्च में सोलर ऑब्जर्वेशन के लिए आदित्य-एल1 मिशन, जून में चंद्रयान-3, साल की दूसरी तिमाही में ही स्पेस ऑब्जर्वेटरी एक्सरे पोलरिमीटर सैटेलाइट लांच करने की योजना है। जनवरी 2024 में नासा और इसरो का संयुक्त मिशन निसार लांच होगा। उसके बाद मंगलयान-2 और शुक्रयान-1 का शेड्यूल है।
इसरो का पहला मानव मिशन गगनयान-3 भी 2023 में ही भेजने की योजना थी, लेकिन केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने पिछले दिनों संसद में बताया कि गगनयान-1 मिशन को 2023 की अंतिम तिमाही में लांच किया जाएगा। गगनयान-2 को 2024 की दूसरी तिमाही में और गगनयान-3 को 2024 की चौथी तिमाही में लांच किया जाएगा जो मानव मिशन होगा।
अवसरः रिमोट सेंसिंग में नए मौके
एक के बाद एक इतने अंतरिक्ष मिशन का ठोस कारण भी है। इस क्षेत्र में अभी तक जितने अवसर निकले हैं, उससे कई गुना ज्यादा अवसरों के द्वार खुलने वाले हैं। ले. जनरल भट्ट के अनुसार, सैटेलाइट के इस्तेमाल की दो प्रमुख कैटेगरी हैं- कम्युनिकेशन और रिमोट सेंसिंग। सबसे ज्यादा संभावनाएं सैटलाइट कम्युनिकेशन में हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा सैटेलाइट इसी सेक्टर में लगाई जा रही हैं। कम्युनिकेशन में हेल्थकेयर और शिक्षा जैसे पारंपरिक सेक्टर आते हैं। इसका फायदा यह है कि दूरदराज के इलाकों में भी ब्रॉडबैंड मिल जाएगा। उन इलाकों में अभी कनेक्टिविटी तो है, लेकिन ब्रॉडबैंड नहीं है। सैटेलाइट कम्युनिकेशन से वहां इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) सुविधा भी उपलब्ध कराई जा सकती है। शिक्षा के क्षेत्र में तो इसका काफी इस्तेमाल हो ही रहा है, यह आगे और बढ़ेगा।
रिमोट सेंसिंग से नई संभावनाएं पैदा हुई हैं। अभी माइनिंग और कृषि में इनका प्रयोग हो रहा है। टाउन प्लानिंग, हाइवे आदि नए क्षेत्र हैं। सैटेलाइट से किसी भी इलाके का नया नक्शा लेकर पता लगाया जा सकता है कि जमीन पर कहां कंस्ट्रक्शन है और कहां नहीं। इसके आधार पर सड़क की सटीक एलाइनमेंट की जा सकती है।
अगले पांच साल महत्वपूर्ण
सैटकॉम इंडस्ट्री एसोसिएशन के डायरेक्टर जनरल अनिल प्रकाश बताते हैं, अभी भारत ही नहीं दूसरे देश भी बड़ी संख्या में सैटेलाइट लांच कर रहे हैं या करने वाले हैं। भारत के लिए सैटेलाइट निर्माण के क्षेत्र में अवसर है। सैटेलाइट बनाने वाली भारतीय कंपनियों के लिए क्षमता बढ़ाना भी जरूरी है। इसमें सरकार को इनेबलर की भूमिका निभानी पड़ेगी। अगर उन्हें फंड या किसी खास पुर्जे के आयात की जरूरत पड़ती है तो वह तुरंत मुहैया कराया जाना चाहिए।
वे कहते हैं, “सारा खेल अगले 5 साल का है। अगर 5 साल में आपने इस सेक्टर में अपने पैर जमा लिए तो ठीक, वरना दूसरे लोग आगे आ जाएंगे। तब भारत के लिए उनकी जगह लेना मुश्किल हो जाएगा। विश्व स्तर पर डिमांड तो है लेकिन समस्या उसे पूरा करने की है। इसरो के पास अच्छा इन्फ्रास्ट्रक्चर है। निजी क्षेत्र उसका इस्तेमाल करके डिमांड कुछ हद तक पूरी कर सकता है।”
इन क्षेत्रों में भी नए अवसर
नई संभावनाओं के बारे में अनिल प्रकाश कहते हैं, अर्बन डेवलपमेंट, हाइवे, गति शक्ति प्रोजेक्ट इन सबमें स्पेस सेक्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। सैटेलाइट से मैपिंग के साथ काम की मॉनिटरिंग भी की जा सकती है। प्राकृतिक संसाधनों, जंगलों और खदानों की मानिटरिंग भी संभव है। आने वाले समय में हम इन सब जगहों पर इस्तेमाल देखेंगे।
अंतरिक्ष अब युद्ध का चौथा फ्रंटियर बन गया है, इसलिए स्पेस कंपनियों के लिए रक्षा क्षेत्र नया बाजार बन गया है। रक्षा मंत्रालय ने इनोवेशन फॉर डिफेंस एक्सीलेंस (iDEX) के तहत 75 चुनौतियां (चैलेंज) जारी की हैं । स्टार्टअप और एसएमई को आमंत्रित किया गया है कि वे इन चुनौतियों का समाधान मुहैया कराएं।
अनिल प्रकाश के मुताबिक, “गृह मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन विभाग, ये सब अपनी-अपनी ‘चुनौतियां’ लेकर आने वाले हैं। इससे इन कंपनियों के लिए बिजनेस काफी बढ़ेगा।
जरूरत के हिसाब से सैटेलाइट डिजाइनिंग
बेंगलुरू स्थित स्टार्टअप एनियारा स्पेस के सह-संस्थापक और प्रेसिडेंट डी.एस. गोविंदराजन बताते हैं, कई प्राइवेट स्टार्टअप क्वांटम टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं। जब भी हम सैटेलाइट की बात करते हैं तो अक्सर सैटेलाइट बनाने और लांचिंग की बात होती है। ये निश्चित रूप से महत्वपूर्ण हैं, लेकिन पेलोड डिजाइन करना और सैटेलाइट की सुरक्षा भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसलिए वे कहते हैं, स्टार्टअप्स को एप्लीकेशन के क्षेत्र में काम करना चाहिए। जैसे लो कास्ट अर्थ ऑब्जर्वेशन सैटेलाइट। इनका इस्तेमाल मौसम, फिशरीज, माइनिंग, एग्रीकल्चर में काफी हो सकता है।
ले. जनरल भट्ट के मुताबिक, “स्पेस इकोनामी में रॉकेट और सैटेलाइट का हिस्सा 6 से 7 प्रतिशत ही है। बड़ा पैसा एप्लीकेशन, ग्राउंड स्टेशन और डीटीएच जैसे क्षेत्र में है। एप्लीकेशन डेवलप करने में भारत अग्रणी बन सकता है क्योंकि यहां आईटी सेक्टर काफी विकसित है।”
गोविंदराजन के अनुसार स्पेस लैब एक नया सेगमेंट बन सकता है जहां फार्मा, बायोटेक, फूड रिसर्च, नैनो टेक्नोलॉजी सेक्टर की कंपनियां माइक्रो-ग्रैविटी आधारित रिसर्च कर सकती हैं। इन दिनों स्पेस टूरिज्म की काफी चर्चा है। वह भी नया सेगमेंट बन सकता है। कुल मिलाकर स्पेस सेक्टर वैज्ञानिक समुदाय को अंतहीन अवसर देता है।
सैटेलाइट डिजाइन सॉल्यूशन उपलब्ध कराने वाली ट्रांससेंड सैटेलाइट टेक्नोलॉजी की संस्थापक प्रमिता रामप्रकाश ने बताया, पेलोड डेवलपमेंट में काफी अवसर हैं। उदाहरण के लिए पिक्सेल कंपनी हाइपर स्पेक्ट्रल इमेज पर काम कर रही है। यह अर्थ ऑब्जर्वेशन के क्षेत्र में एक पहलू है। उसी तरह पेलोड के अलग-अलग क्षेत्र हो सकते हैं जिनमें अपार संभावनाएं हैं। एप्लीकेशन के हिसाब से अलग-अलग पेलोड डिजाइन किया जाता है।
सैटकॉम इंडस्ट्री एसोसिएशन के अनुसार 2020 में ग्लोबल स्पेस मार्केट 447 अरब डॉलर का था और उसमें भारत की हिस्सेदारी 11 अरब डॉलर यानी सिर्फ 2.4% थी। भारत के पहले स्पेस स्टार्टअप ध्रुव स्पेस के हेड ऑफ स्ट्रैटजी क्रांति चंद के मुताबिक भारत में निर्माण लागत बहुत कम आती है, इसलिए अगले 10 वर्षों में जो 50 हजार सैटेलाइट छोड़े जाएंगे उनमें से भारत को कम से कम 5000 सैटेलाइट का निर्माण करना चाहिए।
चुनौतियांः फंडिंग और इंश्योरेंस की समस्या
इस्पा के लेफ्टिनेट जनरल भट्ट बताते हैं, भारत में पहला स्पेस स्टार्टअप (Dhruva Space) 2012 में बना था, लेकिन इनमें तेजी 2018 के बाद आई है। उनमें शुरुआती फंडिंग वेंचर कैपिटल लिस्ट ने की है, लेकिन इस रास्ते फंडिंग की एक सीमा होती है। ज्यादा फंडिंग तीन माध्यमों से हो सकता है- प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों से, सरकार की तरफ से और एफडीआई से। अभी इनकी तरफ से पैसा नहीं आ रहा है जबकि आगे काफी पैसे की जरूरत होगी।
इसलिए उनका कहना है कि सरकार को इस सेक्टर को फंडिंग में मदद करनी चाहिए ताकि उन्हें कम ब्याज पर कर्ज मिले। ये स्टार्टअप जो भी इनोवेशन करेंगे उसका इस्तेमाल बढ़ाने के लिए भी फंड की आवश्यकता है। स्पेस सेक्टर में एक समस्या इंश्योरेंस की भी है। इंश्योरेंस का प्रीमियम इतना अधिक ना हो जाए कि इन स्टार्टअप के बिजनेस की व्यवहार्यता ही ना रहे।
पोचिंग का भी है डर
सैटकॉम के अनिल प्रकाश के अनुसार इस सेक्टर में तीन तरह की इकाइयां हैं- स्टार्टअप, एसएमई और बड़ी इकाइयां। तीनों की चुनौतियां अलग हैं। स्टार्टअप की चुनौती यह है कि उसने कोई सॉल्यूशन बनाया, तो वह उस प्रोडक्ट को किसे बेचेगा। इसमें सरकार की तरफ से मदद बहुत छोटे स्तर पर है। अभी जो स्थिति है उसमें दूसरे देश का कोई इन्वेस्टर आकर उनसे कह सकता है कि आप हमारे यहां आइए, हम आपको सभी तरह की सुविधाएं देंगे। इस क्षेत्र में जो इनोवेशन हो रहा है वह अपने आप में अनूठा होता है। एक कंपनी जो इनोवेशन कर रही है वैसा इनोवेशन दुनिया में कहीं और नहीं मिलेगा।
एसएमई की चुनौती के बारे में वे कहते हैं कि स्पेस सेक्टर में जो एमएसएमई हैं वे कुल मिलाकर वेंडर या सप्लायर बनकर रह गई हैं। भारत में पार्टनरशिप कल्चर की जगह वेंडर कल्चर विकसित हुआ है। वेंडर बैंक से लोन लेकर अपने कामकाज का ढांचा खड़ा करता है। उनके लिए आगे लगातार सप्लाई की व्यवस्था होनी चाहिए।
जहां तक बड़ी कंपनियों की बात है तो ये कंपनियां काफी हद तक इसरो के लांच पर निर्भर हैं। कई कंपनियों ने इसरो के लिए अपना विशाल ढांचा खड़ा किया है। कई बार लांच शेड्यूल के मुताबिक नहीं हो पाते हैं। ऐसे में उन कंपनियों की क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पाता है। वे कंपनियां बड़ी हैं इसलिए दूसरे देशों में जाकर बिजनेस तलाश लेती हैं। उनके लिए मैन्युफैक्चरिंग और असेंबलिंग का काम करती हैं।
प्रेडिक्टेबल नीति की जरूरत
गोविंदराजन नीतियों में निरंतरता की बात कहते हैं। उनके मुताबिक नीतियां प्रेडिक्टेबल होनी चाहिए, तभी स्टार्टअप उसके मुताबिक तैयारी कर सकते हैं। प्रेडिक्टेबिलिटी नहीं होने पर दिक्कत होगी। प्रेडिक्टेबिलिटी से आशय पॉलिसी गाइडलाइंस, उन पर अमल, स्पेक्ट्रम एलॉटमेंट आदि से है। आवेदन स्वीकार या अस्वीकार करने की भी निर्धारित सीमा होनी चाहिए। एक स्थिर रेगुलेटरी व्यवस्था जरूरी है। अच्छी बात है कि स्थितियां धीरे-धीरे इस दिशा में बढ़ रही हैं।
वे कहते हैं, आज युवाओं के पास आइडिया है। उन्हें टेक्निकल विशेषज्ञता, बिजनेस मॉडल पर सलाह देने, एप्लीकेशन आदि के क्षेत्र में हैंडहोल्डिंग की जरूरत है। फाइनेंस की जरूरत एक या दो साल बाद होती है। एकदम शुरुआत में किसी वेंचर कैपिटलिस्ट के लिए आसान नहीं होता कि वह आए और किसी भी कंपनी में पैसा लगा दे। अगर सरकार स्टार्टअप को ग्रांट और इनक्यूबेशन सेंटर के रूप में मदद करे तो उन्हें खड़ा होने में काफी मदद मिलेगी। एक से दो साल में जब किसी स्टार्टअप का आइडिया परिपक्व हो जाता है तब उसके लिए फाइनेंस हासिल करना भी आसान होगा।
स्टार्टअप-इन्वेस्टर के बीच कनेक्ट जरूरी
प्रमिता रामप्रकाश कहती हैं, स्पेस सेक्टर काफी जोखिम वाला है। पहली चुनौती प्रोटोटाइप तैयार करना है क्योंकि वह खर्चीला होता है और उसमें टेक्नोलॉजी की बड़ी भूमिका होती है। भारत में अनेक लोगों को यह नहीं मालूम कि किसी सैटेलाइट को डिजाइन से लांच चरण तक कैसे ले जाना है। यहां स्टार्टअप और निवेशकों के बीच कनेक्ट नहीं है। एक स्टार्टअप के रूप में हमें नहीं मालूम होता कि कौन से निवेशक पैसा लगाने के लिए तैयार हैं। निवेशकों को भी नहीं मालूम होता कि किस तरह की कंपनियां अस्तित्व में हैं।
हालांकि प्रमिता ने अपने स्टार्टअप के लिए अभी तक किसी निवेशक से संपर्क नहीं किया है। वे कहती हैं, हमारी रुचि ग्रांट में है। जब आप किसी निवेशक के पास जाते हैं तो आपको एक तय समय के भीतर उसे रिटर्न देना पड़ता है। अनेक स्टार्टअप कम अवधि में रिटर्न दे पाने में असमर्थ होने की वजह से ही नाकाम हो गए। स्पेस टेक्नोलॉजी में काफी समय लगता है। इस पर रिटर्न हासिल करने में कम से कम 3 से 5 साल लग जाते हैं। इसलिए प्रोटोटाइप स्टेज में अगर सरकार की तरफ से ग्रांट मिलती है तो उससे काफी मदद हो जाती है।
सरकार के हाल के कदमों की सराहना करती हुई प्रमिता कहती हैं, हाल ही स्टार्टअप इंडिया पोर्टल शुरू किया गया है। सरकार की तरफ से ग्रांट और सीड फंडिंग मुहैया कराई जाने लगी है। यह बहुत ही अच्छा कदम है। अभी सरकार जो आईडेक्स चैलेंज लेकर आई है वह भी इनके आगे बढ़ने के लिए बहुत अच्छा है। 2023 में राज्यों से भी इस तरह की पहल की उम्मीद है। हालांकि अभी इसमें भी थोड़ी समस्या है। हमें ग्रांट के लिए कैसे उन तक पहुंचना है, इसका कोई निश्चित तरीका नहीं है। हमें किस तरह का प्रस्ताव तैयार करके उन्हें देना पड़ेगा या वे किस तरह स्टार्टअप का ग्रांट के लिए चयन करते हैं, यह प्रक्रिया स्पष्ट नहीं है।
प्रमिता के मुताबिक स्टार्टअप इंडस्ट्री में अनुभवी लोगों की कमी भी एक चुनौती है। मेंटरशिप कराई जा रही है, लेकिन ऐसे टैलेंट भी चाहिए जो हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर डिजाइन को समझ कर उस पर अमल कर सकें।
स्पेस एक्टिविटी बिल से उम्मीदें
लेफ्टिनेट जनरल भट्ट कहते हैं, “स्पेस एक्टिविटी बिल जल्दी आने की उम्मीद है। अगर इस बिल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का प्रावधान भी हो तो अच्छा होगा। पॉलिसी आने के बाद हम सरकार से स्पेस सेक्टर के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) की मांग भी करेंगे।”
प्रमिता कहती हैं, “पारंपरिक इंडस्ट्री की तरफ से अभी तक मैंने स्टार्टअप में रुचि लेते नहीं देखा है। अगर बड़ी कंपनियां आगे आएं और स्टार्टअप को प्रोजेक्ट दें तो इससे काफी मदद मिलेगी। अभी स्टार्टअप जो कुछ भी कर रहे हैं, अपने प्रयासों से कर रहे हैं।” अनिल प्रकाश के मुताबिक भारत अभी स्पेस सेक्टर के लिए बड़ा बाजार नहीं बन पाया है। भारतीय कंपनियों को दूसरे देशों में बड़ा बाजार मिल रहा है। इस क्षेत्र में पॉलिसी स्तर पर काम करने की आवश्यकता है।
स्पेस सेक्टर में हालात तेजी से बदल रहे हैं। अनिल प्रकाश के मुताबिक सैटकॉम इंडस्ट्री एसोसिएशन ने 20 मंत्रालयों में 500 से ज्यादा ऐसे अवसर निकाले हैं जहां सैटेलाइट का इस्तेमाल किया जा सकता है। हम संबंधित मंत्रालयों को पत्र लिखेंगे कि आप इन कार्यों में सैटेलाइट का प्रयोग कर सकते हैं। हमने घरेलू और विदेशी कंपनियों से भी संपर्क किया है। उन्हें बताया है कि हमारे स्टार्टअप और हमारी एसएमई क्या कार्य कर रही हैं। उनका रेस्पांस काफी सकारात्मक रहा है। कुछ ने रिसर्च एंड डेवलपमेंट में तो कुछ ने फैसिलिटी मुहैया कराने की बात कही है। यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत है।