फ्यूजन से ऊर्जा मिलने का पहली बार सफल प्रयोग, पर इससे बिजली बनने में लगेंगे कई साल
दुनिया के सबसे बड़े फ्यूजन प्रोजेक्ट ITER में भारतीय टीम के प्रमुख डॉ. इंद्रनील बंद्योपाध्याय के अनुसार एनआईएफ का प्रयोग निश्चित रूप से बड़ी कामयाबी है। लेकिन जहां तक फ्यूजन से लगातार ऊर्जा हासिल करने की बात है तो वह अभी काफी दूर है।
एस.के. सिंह, नई दिल्ली। मशहूर भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग से टाइम मैगजीन ने 2010 में एक इंटरव्यू में पूछा था कि आप अपने जीवन काल में कौन सा वैज्ञानिक आविष्कार देखना चाहते हैं। उनका जवाब था, “मैं न्यूक्लियर फ्यूजन को दुनिया की ऊर्जा का स्रोत बनते देखना चाहता हूं। यह बिना प्रदूषण या ग्लोबल वार्मिंग के ऊर्जा का असीमित स्रोत होगा।”
उनकी यह उम्मीद पहली बार पूरी होने की संभावना दिखने लगी है। अमेरिका के कैलिफोर्निया स्थित लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लैबोरेटरी की नेशनल इग्निशन फैसिलिटी (NIF) में 5 दिसंबर की रात पहली बार फ्यूजन का ऐसा प्रयोग किया गया जिसमें ‘नेट एनर्जी गेन’ हुआ। अर्थात फ्यूजन कराने के लिए जितनी ऊर्जा लगाई गई, फ्यूजन के बाद उससे अधिक ऊर्जा मिली। इस प्रक्रिया में 2.1 मेगाजूल ऊर्जा खर्च हुई, जबकि मिली 2.5 मेगाजूल ऊर्जा।
इस रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिक डॉ. रॉबी स्कॉट ने कहा है कि फ्यूजन लगभग अंतहीन, सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य अथवा अन्य तारे फ्यूजन के कारण ही अरबों वर्षों से ‘ऊर्जावान’ हैं। सूर्य में हर सेकंड सैकड़ों टन हाइड्रोजन का फ्यूजन होता रहता है।
वैज्ञानिक दशकों से फ्यूजन पर काम कर रहे हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस नहीं निकलती, कोई रेडियोएक्टिव कचरा भी नहीं निकलता है। फ्यूजन के लिए हाइड्रोजन के दो रूपों (आइसोटोप) का इस्तेमाल किया जाता है- डायटेरियम और ट्रिशियम। वैज्ञानिकों का आकलन है कि एक गिलास पानी से निकलने वाले डायटेरियम और थोड़ी मात्रा में ट्रिशियम से जो बिजली बनेगी, वह एक घर के लिए एक साल तक पर्याप्त होगी।
क्या है न्यूक्लियर फ्यूजन और फिशन
न्यूक्लियर फ्यूजन में दो हल्के (जैसे हाइड्रोजन) परमाणुओं को जोड़ कर एक भारी परमाणु बनाया जाता है। इस प्रक्रिया में काफी ऊर्जा निकलती है। माना जाता है कि प्रकृति में मौजूद परमाणु फ्यूजन से ही तैयार हुए हैं। न्यूक्लियर फिशन इसका उल्टा है। इसमें बड़े और अस्थिर परमाणु को तोड़ा जाता है और उस प्रक्रिया में ऊर्जा निकलती है। न्यूक्लियर पावर प्लांट इसी पर आधारित हैं। समस्या है कि उनसे न्यूक्लियर कचरा निकलता है जिनका स्टोरेज जोखिम भरा होता है।
बिजली बनाने में लगेंगे वर्षों
न्यूक्लियर फ्यूजन पर रिसर्च 1930 के दशक में शुरू हुई थी। लेकिन अभी तक फ्यूजन में लगने वाली ऊर्जा की तुलना में ऊर्जा मिलने की मात्रा अधिक नहीं होती थी। जब लगाई गई ऊर्जा से अधिक ऊर्जा मिलती है तो उसे इग्निशन कहते हैं। अभी NIF ने इग्निशन की वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग किया है। फिशन की तरह फ्यूजन से निकलने वाली ऊर्जा से पानी गर्म करके भाप बनाया जा सकता है। उस भाप से टर्बाइन चलाकर बिजली पैदा की जा सकती है।
लेकिन यह इतना आसान नहीं। प्रयोग अभी सैद्धांतिक स्तर पर ही है। डॉ. स्कॉट के अनुसार इसे बिजली उत्पादन तक ले जाने में काफी वक्त लगेगा। इसके लिए आसान और सस्ती विधि विकसित करनी पड़ेगी। अभी प्रयोगशाला में जो हासिल किया गया है, वह दिन में एक बार संभव है। फ्यूजन आधारित पावर प्लांट के लिए प्रति सेकंड 10 ऐसी क्रियाएं जरूरी होंगी।
इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) प्रोजेक्ट में काउंसिल सपोर्ट एंड नॉलेज मैनेजमेंट के ग्रुप लीडर, डॉ. इंद्रनील बंद्योपाध्याय ने जागरण प्राइम से बातचीत में कहा, “एनआईएफ का प्रयोग निश्चित रूप से बड़ी कामयाबी है। लेकिन जहां तक फ्यूजन से लगातार ऊर्जा हासिल करने की बात है, तो वह अभी काफी दूर है।”
इंस्टीट्यूट ऑफ प्लाजमा रिसर्च से जुड़े डॉ. इंद्रनील ने बताया कि एनआईएफ ने जो प्रक्रिया अपनाई उसे लेजर फ्यूजन या इनर्शियल फ्यूजन कहते हैं। इसमें हाई पावर लेजर बीम का इस्तेमाल किया जाता है। एनआईएफ ने 192 लेजर बीम का इस्तेमाल किया। इस बीम को एक छोटे से टार्गेट पर लगातार फोकस किया जाता है। इसके लिए पहले इलेक्ट्रिकल एनर्जी को लेजर एनर्जी में बदला जाता है। दो मेगाजूल लेजर एनर्जी के लिए कम से कम 100 मेगाजूल इलेक्ट्रिकल एनर्जी की जरूरत होगी।
वे कहते हैं, “इस विधि में सबसे बड़ी समस्या है कि लेजर बीम कुछ नैनो सेकंड के लिए दी जाती है। अभी संभव है कि दिन में एक बार ही वे ऐसा कर सकें। इसलिए इस तरीके से लगातार ऊर्जा का उत्पादन नहीं हो सकता है। बिजली उत्पादन के लिए एनर्जी गेन कम से कम 30 से 40 गुना होना चाहिए।”
फ्यूजन के अन्य प्रयोग
फ्यूजन में लेजर बीम के जरिए बाहर से ऊर्जा दी जाती है। उसके लिए पहले इलेक्ट्रिकल एनर्जी को लेजर एनर्जी में बदला जाता है। एनआईएफ ने पिछले साल 70% लेजर एनर्जी को न्यूक्लियर एनर्जी में बदलने में सफलता हासिल की थी। इसके लिए 10 मीटर व्यास वाला एक वैक्यूम चैंबर बनाया गया। उसमें आंख की पुतली के आकार के ईंधन कैप्सूल पर लेजर बीम डाला गया। तापमान और दबाव इतना बढ़ाया कि हाइड्रोजन परमाणु मिलकर भारी परमाणु बना सकें। एनआईएफ की टीम 2011 से इस पर काम कर रही है। इसी साल फरवरी में इंग्लैंड में भी वैज्ञानिकों ने फ्यूजन ऊर्जा हासिल की थी। लेकिन NIF ने पहली बार इनपुट से अधिक आउटपुट ऊर्जा हासिल की है।
अमेरिका और इंग्लैंड के अलावा यूरोप और चीन में फ्यूजन पर कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा प्रोजेक्ट फ्रांस स्थित इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) है जिसमें 35 देश साझीदार हैं। इनमें सात प्रमुख देश हैं भारत, चीन, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, रूस, जापान और दक्षिण कोरिया। इस प्रोजेक्ट में यूरोप 45% योगदान करता है। बाकी छह प्रमुख साझीदार देशों की हिस्सेदारी लगभग 9-9 प्रतिशत की है।
भारत की हिस्सेदारी वाला ITER प्रोजेक्ट
फ्यूजन एनर्जी पर 1930 के दशक से काम हो रहा है और विभिन्न देश अलग-अलग मशीनों पर काम कर रहे हैं, लेकिन पुराने सोवियत संघ में बना ‘टोकामक’ (एक विशाल मशीन) अब तक का सबसे सफल माना जा रहा है। सोवियत वैज्ञानिकों ने टोकामक में पहली बार फ्यूजन किया था। रूस ने ITER प्रोजेक्ट में भी कई अहम यंत्र दिए हैं।
डॉ. इंद्रनील ने बताया कि ITER प्रोजेक्ट में अभी असेंबलिंग का काम चल रहा है। टोकामक आधारित इस प्रोजेक्ट में मैग्नेटिक फ्यूजन होगा, जबकि NIF के प्रयोग में लेजर फ्यूजन हुआ। उसमें लेजर बीम कुछ नैनो सेकंड के लिए दी गई, जबकि मैग्नेटिक फ्यूजन कई मिनट तक चल सकता है।
उन्होंने बताया कि ITER में दो मोड हैं। एक में 50 मेगावाट बिजली खर्च करके 500 मेगावाट बिजली मिलेगी। यानी एनर्जी गेन 10 गुना होगा। वह 300 से 500 सेकंड तक रहेगा। दूसरे मोड में 50 मेगावाट बिजली खर्च करके 250 मेगावाट बिजली मिलेगी। वह करीब 3000 सेकंड तक चलेगा।
एनआईएफ के प्रयोग में सिर्फ दो मेगाजूल ऊर्जा मिली, जबकि ITER के पहले मोड में 150 गीगाजूल तक ऊर्जा मिलेगी। इसमें ऊर्जा की खपत दसवें हिस्से के बराबर होगी। यह बिजली उत्पादन के लिए व्यावहारिक हो सकता है। इसलिए जब ITER प्रोजेक्ट कामयाब होगा तो वह वास्तव में बिजली उत्पादन करने लायक होगा।
ITER प्रोजेक्ट में टोकामक मशीन में बड़े-बड़े मैग्नेट लगाए गए हैं। इसके चैंबर के भीतर का तापमान 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस तक ले जाया जाएगा। यह सूर्य के केंद्र के तापमान का 10 गुना होगा। उसके बाद उसमें ईंधन डाला जाएगा। इस प्रक्रिया में हीलियम और न्यूट्रॉन बनेंगे। न्यूट्रॉन जब टोकामक की भीतरी सतह से टकराएंगे तो उनकी गतिज ऊर्जा (काइनेटिक एनर्जी) ताप में बदल जाएगी। इस ताप से पानी से भाप बना कर पावर प्लांट का टर्बाइन चलाया जा सकता है। ITER के टोकामक का वजन करीब 23,000 टन होगा।
डॉ. इंद्रनील के अनुसार ITER एक विशाल प्रयोग है। मनुष्य ने इतनी बड़ी मशीन आज तक नहीं बनाई। इसमें 10 लाख से ज्यादा कंपोनेंट हैं। इनमें अनेक कंपोनेंट तो ऐसे हैं जो पहली बार इस्तेमाल किए जाएंगे। इसका पहला प्रयोग 2026 में तय था, लेकिन कोविड महामारी और कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण इसमें कुछ देर लगेगी। उम्मीद है कि 2030 में पहला प्रयोग किया जाएगा।
इंग्लैंड में इस साल जो प्रयोग किया गया, उसमें सिर्फ 5 सेकंड तक इतना ऊंचा तापमान रखा गया। इससे ज्यादा रखने पर उसके मैग्नेट ही पिघलने लगते। ITER में बेहतर मैग्नेट का इस्तेमाल किया जा रहा है जो ज्यादा समय तक टिक सके।
हाइड्रोजन के आइसोटोप का इस्तेमाल
इंग्लैंड के प्रोजेक्ट में ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन के आइसोटोप डायटेरियम और ट्रिशियम का इस्तेमाल किया गया था। ITER प्रोजेक्ट में भी इन्हीं का इस्तेमाल होगा। इन दोनों का व्यवहार हाइड्रोजन जैसा ही होता है। डायटेरियम प्रकृति में प्रचुर मात्रा में है लेकिन ट्रिशियम कम है। अभी दुनिया में सिर्फ 20 किलोग्राम ट्रिशियम है। एक ग्राम ट्रिशियम की कीमत 30,000 डॉलर के आसपास है। फ्यूजन पावर प्लांट बनने के बाद इनकी डिमांड बढ़ेगी तो दाम और बढ़ेंगे। हालांकि इसे कृत्रिम रूप से भी बनाया जा सकता है।
ITER में इसका समाधान तलाशने की कोशिश की जा रही है। डॉ. इंद्रनील के मुताबिक, फ्यूजन में ईंधन के तौर पर डायटेरियम का इस्तेमाल होता है जो प्रकृति में काफी मात्रा में उपलब्ध है। हर तरह के पानी में डायटेरियम की कुछ न कुछ मात्रा होती है। ट्रिशियम कम है, लेकिन उसे फ्यूजन की प्रक्रिया में तैयार किया जा सकता है। कंटेनर की भीतरी सतह पर लीथियम की कोटिंग की जाती है। उस पर जब न्यूट्रॉन कण टकराते हैं तो ट्रिशियम बनता है। यानी एक बार प्रक्रिया शुरू हुई तो वह अपना ट्रिशियम खुद बनाता रहेगा। रही बात कोटिंग के लिए लीथियम की, तो वह मिट्टी में ही पाया जाता है, जहां से उसे आसानी से निकाल सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो फ्यूजन का ईंधन हर देश के पास है।
न्यूक्लियर फिशन से क्यों अच्छा है फ्यूजन
ITER के पूर्व प्रमुख बर्नार्ड बिगो (Bernard Bigot) ने कहा था कि जब पृथ्वी की आबादी 100 करोड़ से कम थी, तभी रिन्युएबल ऊर्जा स्रोतों से उनकी जरूरतें पूरी की जा सकती थीं। अब यह संभव नहीं है। फ्यूजन इसका समाधान हो सकता है। अभी न्यूक्लियर पावर प्लांट फिशन विधि से चलते हैं, लेकिन फ्यूजन को उससे काफी अच्छा माना गया है।
डॉ. इंद्रनील के अनुसार फिशन प्लांट में सबसे बड़ा खतरा कंपोनेंट पिघलने का होता है, जैसा जापान के फुकोशिमा में हुआ। उसमें काफी मात्रा में यूरोनियम आदि के कारण वातावरण में रेडिएशन फैल जाता है। फ्यूजन में ईंधन की मात्रा बहुत कम होती है- कुछ ग्राम डायट्रियम और ट्रिशियम होता है। इसमें लीकेज होने पर भी पिघलने की समस्या नहीं आएगी। कुछ ट्रिशियम वातावरण में जाएगा, लेकिन उसे आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।
फ्यूजन में एक समस्या यह है कि इसमें प्रचुर संख्या में न्यूट्रॉन निकलते हैं जो मशीन के कोर की भीतरी सतह से टकराते हैं। ये रेडियोएक्टिव होते हैं। डॉ. इंद्रनील के मुताबिक अब लो-एक्टिवेशन मैटेरियल विकसित किए गए हैं जिनकी हाफ-लाइफ (रेडियोएक्टिव पदार्थों का जीवन हाफ-लाइफ में गिना जाता है, यानी कितने साल में उसकी मात्रा आधी रह जाएगी) बहुत कम होती है। उन्हें बहुत हुआ तो 50 से 100 साल तक स्टोर करना पड़ेगा। दूसरी तरफ फिशन में आयोडीन के कुछ आइसोटोप इस्तेमाल होते हैं जिनका हाफ-लाइफ हजारों साल होता है। इसलिए फिशन पावर प्लांट के कचरे को मोटे कंटेनर में बंद करके गहरे गड्ढे में रखा जाता है, ताकि वह कभी बाहर न निकले। फ्यूजन में यह समस्या नहीं है, इसलिए इसे ऊर्जा का स्वच्छ स्रोत कहा जाता है।
फ्यूजन के लिए ईंधन की समस्या नहीं
डॉ. इंद्रनील एक और मायने में फ्यूजन को बेहतर मानते हैं। वे कहते हैं, अभी ज्यादातर लड़ाइयां ईंधन के लिए लड़ी जाती हैं। खाड़ी युद्ध का मकसद ही यही था। पेट्रोलियम ईंधन चुनिंदा देशों के पास है और दूसरे देश उन पर निर्भर हैं। फ्यूजन के लिए हर देश के पास हैवी वाटर होगा। इसलिए ईंधन की कभी कमी नहीं होगी।
ITER प्रोजेक्ट में रूस मुख्य भागीदार है और जैसा डॉ. इंद्रनील ने बताया, यूक्रेन युद्ध के बावजूद रूस की तरफ से कोई खास समस्या नहीं आई है। उड़ानों की दिक्कत के चलते रूसी वैज्ञानिक रूस जाना-आना नहीं कर सकते। इस प्रोजेक्ट से जुड़े जो वैज्ञानिक रूस में हैं, वे वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए मीटिंग में हिस्सा लेते हैं। उन्होंने बताया कि एक समस्या आई थी मैग्नेट के लिए कॉइल की। वह रूस से आना था। वह रूसी पोर्ट पर अटक गया था, लेकिन अब उसे भी मंजूरी मिल गई है। उसके अगले हफ्ते तक फ्रांस पहुंच जाने की उम्मीद है।
जलवायु परिवर्तन से मिलेगी निजात
वैज्ञानिक अब यह देख रहे हैं कि कम खर्च में कैसे बड़े पैमाने पर ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। लंदन स्थित इंपीरियल कॉलेज में सेंटर फॉर इनर्शियल फ्यूजन स्टडीज के को-डायरेक्टर जेरेमी चिट्टेनडेन के अनुसार अभी इस तरह के प्रयोग पर काफी समय और पैसा खर्च होता है। ITER के पूर्व प्रमुख बिगो ने अपना पूरा जीवन इसमें लगा दिया, लेकिन अपने सामने ऐसा होता न देख सके।
कुछ स्टार्टअप्स ने भी फ्यूजन के क्षेत्र में प्रवेश किया है। फ्यूजन इंडस्ट्री एसोसिएशन नाम से एक संगठन भी बना है। एसोसिएशन की हाल ही आई रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी कंपनी कॉमनवेल्थ फ्यूजन सिस्टम्स ने दुनिया का सबसे मजबूत मैग्नेट बनाया है। वाशिंगटन की ‘हेलियन’ और इंग्लैंड की ‘टोकामक एनर्जी’ कंपनियां प्लाज्मा (गैस और द्रव के बीच की अवस्था) का तापमान 10 करोड़ डिग्री तक ले जाने में सफल रही हैं।
फ्यूजन पर करीब आठ दशक से काम हो रहा है। दशकों से जब भी न्यूक्लियर वैज्ञानिकों से यह सवाल किया जाता था कि फ्यूजन से बिजली कब तक मिलने लगेगी, हर बार उनका जवाब होता था 30 साल बाद। NIF के वैज्ञानिकों की सफलता के बाद अब शायद वे ऐसा न कहें। फिर भी, फ्यूजन को प्रयोगशाला स्तर से बिजली के कमर्शियल उत्पादन तक पहुंचने में वर्षों तो लग ही सकते हैं। इससे आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन की समस्या से भी निजात मिल सकती है।