सिर्फ शब्दों में नहीं बल्कि प्रदर्शन कलाओं का भी हिस्सा है रघुनंदन, जानें मध्य भारत में प्रचलित श्रीराम की छवि
देशभर में इस बार रामनवमी कुछ अलग होने वाली है। अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर निर्माण के बाद यह पहली रामनवमी है। भगवान श्रीराम असीम हैं मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनके जीवन से मिलने वाली सीख सिर्फ शब्दों में नहीं है प्रदर्शन कलाओं का भी हिस्सा हैं रघुनाथ। मध्य भारत में प्रमुख रूप से प्रचलित इन ग्रामीण एवं आदिवासी कलाओं पर डा. श्रीकृष्ण काकडे का आलेख।
डॉ. श्रीकृष्ण काकडे (कला इतिहासकार), Ram Navami 2024। भारतीय लोकजीवन के आधार हैं श्रीराम। उनका जीवन इतना अद्भुत और नवीनतम है कि उसे बार-बार देखने और सुनने से मन नहीं भरता। अयोध्या में रामलला के विराजमान होने के बाद विश्वभर में श्रीराम का जयघोष गूंज रहा है। हर किसी का मन रामभक्ति में भावविभोर है। मध्य भारत की मिट्टी से भी श्रीराम का बहुत गहरा रिश्ता है। त्रेता युग में विदर्भ देश के राजा भोज की बहन इंदुमती का विवाह अज राजा से हुआ था। जो राजा दशरथ के पिता और राम के दादा थे। बाद में कौशल देश की राजकुमारी कौशल्या राजा दशरथ की रानी बनीं। उनके गर्भ से श्रीराम का जन्म हुआ। वनवास के समय भगवान राम, माता सीता और भ्राता लक्ष्मण चित्रकूट, छत्तीसगढ़ होकर रामटेक, दंडकारण्य, पंचाप्सर (लोनार) के रास्ते पंचवटी आए थे। यहीं से रावण ने सीताहरण किया था।
मार्ग में इगतपुरी के निकट ताकेड में जटायु का रावण से युद्ध हुआ। बाद में श्रीराम-लक्ष्मण बाणगंगा, येरमाला, येडशी, तुलजापुर, नलदुर्ग होते हुए माता सीता की खोज में लंका पहुंचे थे। रावण वध पश्चात श्रीराम-सीता और लक्ष्मण मध्य भारत की धरती से अयोध्या लौटे थे। इसलिए मध्य भारत की कला, साहित्य और संस्कृति में भगवान राम का बहुत गहरा प्रभाव है। ऐसा माना जाता है कि श्रीराम के वनगमन के बाद अयोध्यावासियों ने रामलीला का मंचन करना शुरू किया। आगे 16वीं शताब्दी में गोस्वामी तुलसीदास ने रामलीला का विस्तार किया, जो दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों तक फैला। नृत्य, नाट्य, गीत, संगीत और रंगमंच के माध्यम से रामायण की प्रस्तुति होने लगी। मध्य भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। तब से रामायण की सुनहरी परंपरा लोक में निहित है।
आभा में झलकते श्रीराम
इस क्षेत्र में रामलीला, भवाडा, नाच, ललित, आल्हा, लोक रामायण, बहुरूपिया रामायण, दशावतार, दंडार, सोंगी पात्र, बोहाडा, चित्रकथी, छायानाट्य, कठपुतली आदि प्रदर्शन कलाओं में रामायण नाट्य प्रचलित है, जिसमें बोहाडा सहजता से दृष्टिगोचर होते हैं। इन कलाओं से श्रीराम का नाता इतना बेजोड़ है कि इसका प्रस्तुतिकरण करने वाले कलाकारों के चेहरे की आभा में श्रीराम ही प्रतिबिंबित होने लगते है। घुमंतू ‘बसदेवा’ मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत महाराष्ट्र में घुमक्कड़ी करके जीवनयापन करते हैं। उन्हे ‘हरबोला’, ‘तुंबडीवाले’, ‘गंगापारी’ के नामों से भी जाना जाता है। उनका पहनावा बड़ा आकर्षक होता है, वह माथे पर चंदन, सिर पर पगड़ी और धोती पहनते है। उनके पास तुंबडी, करताल, इकतारा जैसे वाद्य होते हैं। वे गायन की शुरुआत ‘हे मोरे राम’, ‘राम राम’ से करते है। वे तल्लीन होकर राम कथा से संबंधित आख्यानों का गायन करते हैं। राम जन्म, सीता स्वयंवर, सीता हरण, जटायु वध, बाली-सुग्रीव संघर्ष, सीता खोज, लंका दहन, राम-रावण युद्ध, अहिरावण-महिरावण, मेघनाथ वध, रावण वध आदि प्रसंगों को विस्तार से गाते हैं। उनका गायन मुख्यतः खड़ी हिंदी, बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, मराठी आदि लोकभाषाओं में होता है।
पौराणिक स्वरूपों में सजे बहुरूपिया
मध्य भारत में घुमंतू ‘बहुरूपिया’ भगवान शिव, राम-लक्ष्मण-सीता, हनुमान, नारद ऋषि-मुनि आदि के रूप (सोंग) लेकर गांव-गाव घूमते हैं, अपनी कला प्रदर्शित करते हैं। उनके कुछ समूह हारमोनियम, तबला और मंजीरा जैसे वाद्यों पर लगभग 10 दिनों तक रामकथा के अलग-अलग दृश्यों को नाट्य के माध्यम प्रस्तुत करते है। मराठा क्षेत्र में ‘वासुदेव’ काफी लोकप्रिय हैं। उनके सिर पर मोरपंखी टोपी, गले में तुलसी की माला, माथे पर चंदन होता है। वह आकर्षक पोशाक पहने, हाथों में चिपली, टाल की धुन पर वाचिक परंपरा के आख्यान एवं गीत गाते हैं, जिसमें रामायण बहुत लोकप्रिय है। जिसकी शुरुआत गणेश वंदना से होती है। कथा नृत्य और संवादों के माध्यम से आगे बढ़ती है। भगवान राम का प्रेरक जीवन, सीता की महिमा बताई जाती है। विदर्भ क्षेत्र में हर वर्ष गणेश चतुर्थी से कार्तिक पूर्णिमा तक ‘दंडार’ का आयोजन होता है, जो नृत्य, नाट्य एवं गायन द्वारा प्रस्तुत की जाती है। इसमें रामकथा के प्रसंगों को नाट्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
श्रीराम का जन्म अयोध्या के महल में दिखाया गया है। उसके बाद जनकपुरी में सीता स्वयंवर होता है। फिर राम विवाह, सीता का वनवास, सीताहरण, राम-रावण युद्ध, राम राज्याभिषेक आदि के परिदृश्य दिखाए जाते हैं। अंत में सीता वनवास, लव-कुश लीला दिखाई जाती है। महाराष्ट्र के कई गांवों में ‘लोक रामायण’ का आयोजन हर्षोल्लास के साथ होता है। विदर्भ में इसे ‘ललित’, ‘भरतभेट’ कहा जाता है। गांव से राम-सीता की बारात निकाली जाती है। इसमें भजन मंडली उत्साह से सम्मिलित होती है। गांव के कलाकार सहज भाव से अपनी कला को प्रदर्शित करते हैं। कोई भगवान राम तो कोई माता सीता बन जाता है। कोई रावण का रूप धारण करता है, तो कोई हनुमान। छोटे बच्चे वानर बन जाते हैं। बुजुर्ग सज्जन राजा दशरथ, राजा जनक, विभीषण आदि का किरदार निभाते हैं। झांझ, ढोल, मृदंग, मंजिरा आदि बजाकर संगीत प्रदान किया जाता है।
हर क्षेत्र की परंपरा में शामिल
कोंकण में कार्तिक पूर्णिमा के बाद ग्राम देवताओं के मेले लगते हैं। जिसमें ‘दशावतार’ नाट्य प्रस्तुत किए जाते हैं। दशावतार के उत्तररंग में रामायण से संबंधित नाट्य दिखाये जाते हैं। जिसमें ‘दशरथ-कौशल्या विवाह’, ‘सीता स्वयंवर’, ‘भरत दर्शन’, ‘हनुमान जन्म’, ‘रामेश्वर लिंग स्थापना’, ‘वेडी-विजया’, ‘गोकर्ण महाबलेश्वर’, ‘अहिल्या उद्धार’, ‘लव-कुश’ आदि प्रमुख हैं। मध्य भारत के कुछ हिस्सों में मातंग जाति के लोग डफला बजाते हैं। हर साल वे महाशिवरात्रि और श्रावण माह के दौरान सालबर्डी और चौरागढ़ (पंचमढ़ी) की पैदल तीर्थयात्रा करते हैं। उनके कंधे पर महादेव का बाण और हाथ में डफला होता है। यह समूह मुख्यतः महादेव-पार्वती के गीत गाते हैं। इन गीतों में रामकथा भी सुनाई जाती हैं। आदिवासी संस्कृति का भी रामायण से नजदीकी संबंध है। यहां कातकरी खुद को वानर सेना का वंशज मानते हैं। भील माता शबरी को अपना वंशज मानते हैं। सह्याद्रि क्षेत्र के आदिवासी हर साल बोहाडा उत्सव मनाते हैं। गांवों मे श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण, माता सीता, रावण, हनुमान आदि के रूप लेकर जुलूस निकाला जाता हैं। रावण ताटी का नृत्य होता है।
भीलों में ‘रोनम सीतामणी वारता’ अर्थात भीली रामायण प्रचलित है। जिसे बारहमासा उत्सवों, पर्वों एवं अनुष्ठानों के दौरान प्रस्तुत किया जाता है। श्रावण-भाद्रपद माह में ‘सीता कथा’ सुनाने की प्रथा है। विवाह समारोह में ‘राम-सीता विवाह’, ‘राम-सीता और लक्ष्मण का अरण्य खंड’ होता है। किसी की मृत्यु होने पर सूतक, दसक्रिया अनुष्ठान, समाधि के अवसर पर ‘नाई दशरथ राजा’, ‘श्रवण कुमार’, ‘जनक राजा’ तो माघ माह में ‘हनुमान का लंका कांड’, ‘राम-लक्ष्मण का लंका आगमन’, ‘रावण वध’ जैसी कथायें बताई जाती हैं। यहां कोरकूओं की अलग मौखिक परंपरा है। कोरकू राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के साथ-साथ रावण, मेघनाथ को भी देवता मानते हैं। कोरकू लोककथाओं में रामायण बताया जाता हैं, जिसमें राम, सीता और लक्ष्मण पूरी तरह से आदिवासियों की तरह जीवन अर्जित करते हैं। उनके जैसा ही खाना खाते हैं और उनकी जीवनशैली में जीते है। खानदेश में भील, कोंकणा, वारली, धानका, पावरा, मावची आदिवासियों के देवता, त्योहार, उत्सव प्रकृति से जुड़े हैं। डोंगर देव तथा कनसरी पूजन उनके बड़े उत्सव है। इन उत्सवों के दौरान वाचिक परंपरा की रामायण सुनाई जाती है, जिसे थालगान कहते है। ठाकरों की प्रदर्शन कलाओं में ‘कलसूत्री बाहुली’, ‘छायनाट्य’ और ‘चित्रकथी’ आदि प्रमुख हैं। इन कलाओं में रामकथा प्रमुख होती है। यह लोग पुश्तैनी ढंग से रामायण प्रस्तुत करते हैं।
देखा जाए तो लोक संस्कृति के विभिन्न प्रकारों में रामायण प्रदर्शित की जाती है, जिसमें अपनी परंपराओं की मिट्टी की गंध है। जनजीवन के कई आयाम कलाओं में प्रकट होते हैं। हजारों वर्षों से रामकथा का जतन एवं संवर्धन इन कलाओं द्वारा सहजता से हो रहा है। श्रीराम से जनसामान्य का रिश्ता जोड़ने में यह कलाएं काफी अहम भूमिका निभाती आ रही है। इन कलाओं की विशेषता यह रही है कि जो कोई श्रीराम को जैसा महसूस करता है, वैसा ही प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।