UP Cabinet Decision: 43 वर्ष बाद विधानमंडल में रखी जाएगी मुरादाबाद हिंसा की जांच रिपोर्ट
Moradabad riots 13 अगस्त 1980 की सुबह ईद की नमाज के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के मामले जांच रिपोर्ट दबा दी गई थी। जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट 20 नवंबर 1983 को शासन को सौंप दी थी। इसके बावजूद पूर्ववर्ती सरकारों ने कभी जांच रिपोर्ट को सामने नहीं आने दिया।
राज्य ब्यूरो, लखनऊ: मुरादाबाद में 13 अगस्त, 1980 की सुबह ईद की नमाज के दौरान सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के बेहद गंभीर मामले की जांच रिपोर्ट ही दबा दी गई थी। एकल सदस्यीय जांच आयोग ने पूरे प्रकरण की पड़ताल कर अपनी रिपोर्ट 20 नवंबर, 1983 को शासन को सौंप दी थी। इसके बावजूद पूर्ववर्ती सरकारों ने कभी जांच रिपोर्ट को सामने नहीं आने दिया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में शुक्रवार को हुई कैबिनेट बैठक में मुरादाबाद हिंसा की रिपोर्ट चालीस वर्ष बाद विधानमंडल में रखे जाने का बड़ा फैसला किया है।
चार दशक बाद अब उस सांप्रदायिक हिंसा का पूरा सच सामने आएगा, जिसमें 83 बेकसूर लोगों की जानें गई थीं और 112 व्यक्ति घायल हुए थे। सूत्रों का कहना है कि जांच रिपोर्ट में डा.शमीम अहमद खां व उनके कुछ सहयोगियों को दोषी पाया गया था।
डा.शमीम ने मुस्लिम वोट बैंक हासिल करने के लिए ईद के नमाज के दौरान फसाद कराया था और उसका दोष वाल्मीकि व पंजाबी समाज के लोगों पर मढ़ा गया था। जिसके बाद दो संप्रदाय के लोग आमने-सामने आ गए थे और आपसी टकराव में मुरादाबाद की सड़कों से लेकर गलियां तक खून से लाल हो गई थीं।
वित्त मंत्री सुरेश कुमार खन्ना का कहना है कि कैबिनेट ने जांच रिपोर्ट को मंत्री परिषद व सदन के पटल पर रखे जाने की अनुमति प्रदान की गई है। जांच आयोग की रिपोर्ट गोपनीय है, जिसे अभी सार्वजनिक नहीं किया जा सकता।
ईद की नमाज के दौरान हुआ था फसाद
मुरादाबाद में वर्ष 1980 की सुबह ईद की नमाज के दौरान हुए फसाद ने पूरे शहर की तस्वीर बदल थी। गहरे षड्यंत्र के तहत की गई कुछ लोगों की करतूत से पूरा शहर जल उठा था। सांप्रदायिक हिंसा की आंच ऐसी थी कि पूरे प्रदेश में माहौल बिगड़ गया था। शासन व प्रशासन ने बड़ी कोशिशों के बाद किसी तरह स्थितियाें को सामान्य किया था।
पूर्ववर्ती सरकारों ने जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया
इस बेहद गंभीर मामले की जांच रिपोर्ट को अब तक सार्वजनिक न किए जाने को लेकर अब पूर्ववर्ती सरकारों की भूमिका पर भी गहरे सवाल खड़े हो रहे हैं। आखिर हिंसा के दोषियों को बचाने का प्रयास हो रहा था या फिर राजनीतिक कारणों से जिम्मेदार खामोश बैठ रहे थे।