राज नारायण, जिसने देश के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दी थी चुनौती, उन्हें नहीं थी गलती बर्दाश्त
राज नारायण जैसे व्यक्तित्व उनके जाने के बाद फिर दोबारा नहीं आया। वो ऐसी शख्सियत थे जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ आवाज उठाई। अपनी ही सरकार के गलत फैसले के खिलाफ भी गए। इतना साहस विरले लोगों में ही होता है।
बालमुकुंद शर्मा। राज नारायण को दुनिया से विदा हुए बुधवार को पूरे 35 वर्ष बीत गए। किंतु उनकी कहानियों का उपसंहार कभी नहीं आया। सही अर्थो में वह राजनीति के पर्याय थे। उनके चरित्र की अगर कल्पना की जाए तो जमींदार घराने में जन्म लेने के बावजूद वह कबीर दास के करीब खड़े नजर आएंगे। सामंती अकड़ से काफी दूर और स्वभाव से सौ प्रतिशत फक्कड़। सबके लिए सारे समय सहज-सरल उपलब्ध रहने वाले इस समाजवादी नेता का पूरा जीवन संघर्ष में ही बीता।
राज नारायण देश में शायद पहले ऐसे नेता रहे होंगे, जिन्होंने पराधीन भारत से ज्यादा स्वाधीन भारत में जेलों की यात्राएं कीं। 70 वर्ष की जिंदगी में 80 बार जेल गए। आजादी से पहले तीन वर्ष जेल में बिताए और आजादी के बाद 14 वर्ष। बनारस में संपन्न परिवार में पैदा होकर भी सुकून का नहीं, संघर्ष का साथ दिया। कहीं भी किसी के साथ अन्याय होते देखा तो मंत्री रहते हुए भी आंदोलन में शामिल होने से परहेज नहीं किया। पुलिस की गोली से मारे गए एक व्यक्ति के समर्थन में मंत्री रहते हुए भी उन्होंने प्रदर्शन किया।
राज नारायण ने लोकतंत्र की मजबूती के लिए जीवन को समर्पित कर दिया। अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। राज नारायण की जीवनी के प्रत्येक पन्ने में गंभीर विमर्श के मुद्दे हैं, जो लोगों को संघर्ष के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित कर सकते हैं। उन्हें जागृत कर सकते हैं। देश की ताकतवर नेता एवं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व को चुनौती देने, पहले कोर्ट और फिर वोट की चोट से उन्हें परास्त करने से भी आगे अपनी ही सरकार के खिलाफ खड़े हो जाने का साहस भी सिर्फ राज नारायण के चरित्र में ही मिल सकता है। जब उन्हें लगा कि जिस सरकार के वह अहम हिस्सा हैं, वह लोक कल्याण के पक्ष से भटक रही है तो उन्होंने विरोध का बिगुल फूंक दिया।
यह काम सिर्फ राज नारायण जैसा व्यक्ति ही कर सकता था, क्योंकि उनके लिए राजनीति पेशा नहीं, लोकसेवा का मंत्र था। वह उस राजनीति को जीते थे, जिसमें सबका कल्याण छुपा हुआ था। इसीलिए उन्हें लोकबंधु भी कहा गया। सत्ता को चुनौती देने के लिए जो साहस की जरूरत होती है, वह त्याग और नि:स्वार्थ भाव से पैदा होता है। राज नारायण ने पैतृक संपत्ति के रूप में मिली हजारों बीघे जमीन को बटाइदारों को दान कर दिया।राज नारायण से समाजवादी राजनीति की दीक्षा लेने का दावा करने वाले अधिकतर दल वंशवाद, पूंजीवाद, भ्रष्टाचार और अधिनायकवाद के प्रतीक हो चुके हैं। समाज को अपना बनाने की जगह अपनों का समाज बनाने की प्रवृत्ति में लगे रहते हैं। आज सभी दलों को पुन: विचार करना चाहिए कि कैसे राजनीति को फिर से लोक कल्याण का माध्यम बनाया जाए, जिससे राष्ट्र निर्माण की गति तेज हो सके।
(लेखक राज नारायण चेतना मंच के अध्यक्ष हैं)