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Sonmer Temple Khunti: झारखंड का इकलौता मंदिर जहां संस्कृत नहीं मुंडारी भाषा में होता है मंत्रोच्चार... जानिए, इसकी विशेषताएं

Jharkhand Sonmer Temple Khunti झारखंड के खूंटी जिले में एक दुर्गा मंदिर है- सोनमेर मंदिर। यहां मुंडारी भाषा में मंत्रोच्चार के साथ देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। यहां कई रोचक परंपराएं प्रचलित हैं। यहां दुर्गा पूजा के दौरान नहीं पूर्णिमा के दिन भैंसे की बलि दी जाती है।

By M EkhlaqueEdited By: Updated: Wed, 01 Jun 2022 03:59 PM (IST)
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Jharkhand Sonmer Temple: झारखंड का इकलौता मंदिर जहां संस्कृत नहीं मुंडारी भाषा में होता है मंत्रोच्चार।

खूंटी, (दिलीप कुमार)। आमतौर पर देवी-देवताओं की पूजा वैदिक भाषा संस्कृत में मंत्रोच्चार के साथ की जाती है, लेकिन झारखंड के खूंटी जिले में एक ऐसा मंदिर है जहां संस्कृत में नहीं बल्कि आदिवासियों में प्रचलित मुंडारी भाषा में वैदिक मंत्रोच्चार होता है। जगत जननी देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। यह प्रसिद्ध मंदिर खूंटी जिला अंतर्गत कर्रा प्रखंड के सोनमेर में है। इस मंदिर की साख बात यह है कि यहां कोई पंडित पूजा-अर्चना नहीं करता और कराता है, बल्कि यहां गांव के पाहन ही यह काम करते हैं। पाहन आदिवासी समाज के पुजारी को कहा जाता है। 51 फीट ऊंचाई पर स्थित सोनमेर मंदिर जिला मुख्यालय खूंटी से दस किलोमीटर दूर है। राजधानी रांची से यहां पहुंचने के लिए लोधमा भाया कर्रा होते हुए 45 किलोमीटर, बेड़ो से 32 किलोमीटर और सिसई से 60 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है।

यहां भैंसा, बकरा और मुर्गा की दी जाति है बलि

मातृभाषा मुंडारी में मंत्रोच्चार के साथ ही यहां देवी को भैंसा, बकरा और मुर्गा की बलि दी जाती है। मंदिर के पाहन कहते हैं कि अपने गांव-घर की भाषा में देवी की आराधना करने से निकटता का भाव आता है। किसी भी मंदिर में जब कोई भक्त जाता है तो अपने आराध्य की आराधना अपनी ही भाषा में करता है। बाहरी दुनिया में क्यों ना कोई अंग्रेजी में बात करे, हिंदी में या कोई अन्य भाषा में बात करे, लेकिन जब विपत्ति आती है तो सबसे पहले मातृभाषा में ही उसकी कोई प्रतिक्रिया आती है।

दुर्गा पूजा पर नहीं, पूर्णिमा के दिन बलि की परंपरा

दुर्गा पूजा के दौरान कई प्राचीन दुर्गा मंदिरों में भैंसे की बलि देने की परंपरा है। वहीं, खूंटी जिले के प्रसिद्ध सोनमेर मंदिर में दुर्गोत्सव पर नहीं, बल्कि उसके बाद आने वाले पूर्णिमा के दिन भैंसे की बलि दी जाती है। यह परंपरा राजतंत्र के समय शुरू हुआ था, जो अब भी बदस्तूर जारी है। जिले के कर्रा प्रखंड क्षेत्र स्थित ऐतिहासिक सोनमेर मंदिर में देवी दुर्गा विराजमान है। यहां प्रतिवर्ष दुर्गोत्सव के बाद आश्विन पूर्णिमा के दिन भैंसे की बलि दी जाती है और इसके दूसरे दिन मेला का आयोजन किया जाता है।

जरिया राजा ने शुरू की थी परंपरा

राजतंत्र के समय जिरयागढ राज दरबार में भव्य रूप से दुर्गोत्सव का आयोजन होता था। पूजा के दौरान पूरे क्षेत्र से बलि देने के लिए जरियागढ़ राज दरबार में भैंसा पहुंचाया जाता था। सोनमेर मंदिर से भी भैंस पहुंचाया जाता था। सोनमेर के शिखर परिवार के भरत शिखर कहते हैं कि दशहरा के समय सोनमेर से भी जरियागढ़ भैंसा जाता था। एक वर्ष शिखर परिवार में छुतका पड़ा था। उनके परिवार में एक स्त्री गर्भवती थी। इसके कारण सोनमेर से बलि के लिए भैंसा नहीं गया। संयोग से बलि के दिन ही शिखर परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ। इसके बाद जरियागढ़ के तत्कालीन राजा ने दशहरा के दौरान बलि नहीं देकर इस परंपरा को दशहरा के पांच दिन बाद पूर्णिमा की रात को निभाने का फैसला दिया। इसके बाद राजा के आदेश के अनुसार दशहरा के पांचवें दिन बाद आश्विन पूर्णिमा के दूसरे दिन सोनमेर में ही भैंस की बलि दिया जाने लगा और मेला लगाया जाने लगा।

300 वर्ष पुराना है मंदिर का इतिहास

ऐतिहासिक सोनमेर मंदिर का इतिहास लगभग 300 वर्ष पुराना है। गांव के बुजुर्ग बताते हैं सोनमेर माता जो मां दुर्गे के रूप है सबसे पहले गुड़गुड़ गाढ़ा में प्रकट हुई थी। कुछ समय बाद गांव के ही दिवंगत चतुर शिखर के सपने में देवी मां आई। इसके बाद दिवंगत चतुर शिखर ने गांव वालों के साथ विचार कर माता को 1917 में बैलगाड़ी से सोनमेर टोंगरी ले जाकर स्थापित किया। इसके बाद सोनमेर टोंगरी में ग्रामीण माता के दर्शन-पूजन करने लगे। चतुर शिखर के निधन के बाद उनके वंशज और गांव के सभी सदान, मुंडा, पहान, धल, बडाईक आदि समुदाय के लोग मंदिर में व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए समिति बनाकर पूजा-अर्चना करने लगे। कहते हैं कि सच्चे मन से देवी मां से मांगा गया हर मन्नत पूरी होती है। शुरू में यहां झोपड़ीनुमा मंदिर का रूप था। इसके बाद भक्तों ने गांव वालों की मदद से 1980 में यहां देवी का भव्य मंदिर बनवाया। वर्तमान में मां की ख्याति इतनी विख्यात हो चुकी है कि झारखंड ही नहीं बल्कि ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों से भक्त यहां माता की पूजा कर अपनी मुराद मांगने पहुंचते हैं।

पूर्णिमा अनुष्ठान में उमड़ते है श्रद्धालु

मंदिर समिति के अध्यक्ष किशोर बड़ाईक ने बताया कि दशहरा के बाद आश्विन पूर्णिमा की दूसरे दिन भैंसा और बकरे की बलि दी जाती है। जरिया राजा की निर्देश पर दशहरा के पांच दिन बाद पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मेला लगाया जाता है। मेले के दिन कई जिलों के अलावा दूसरे प्रदेशों से भी लोग यहां आते हैं और मां का दर्शन कर पूजा-अर्चना करते हैं। पूर्णिमा की रात से मेला शुरू होता है, जिसका समापन दूसरे दिन शाम को होता है। मेले के दूसरे दिन दिवंगत चतुर शिखर के वंशज भरत शिखर द्वारा पहला पूजा कर बलि दी जाती है। उन्होंने बताया कि एक विक्षिप्त ने टांगी से मारकर अष्टभुजी दुर्गा देवी के विग्रह को खंडित कर दिया था। उस वक्त चारों ओर आक्रोश व्याप्त था। माता के भक्त मंदिर में नया विग्रह स्थापित करने की योजना बना रहे थे, लेकिन मंदिर के पाहन ने ऐसा करने से मना कर दिया। पाहन ने कहा कि विग्रह स्वयं अपने पहले वाले रूप में आ जाएंगे। कहते हैं कि कुछ दिनों के बाद सभी विग्रह स्वयं ही पूर्व की भांति बन गए।