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Tribal Lifestyle: जन्म हो या मृत्यु, युद्ध हो या आंदोलन, वाद्ययंत्रों के बिना आदिवासियों की जिंदगी अधूरी

Tribal Culture प्रकृति को सबसे अधिक सम्मान देने वाले आदिवासियों की जिंदगी लोक नृत्य-संगीत और पारंपरिक वाद्ययंत्रों के बिना अपूर्ण है। सुख-दुख और संघर्ष में हर क्षण उनके साथ होता है उनका पारंपरिक वाद्ययंत्र। इन्हें इसी से ऊर्जा मिलती है। आइए इनकी संस्कृति से करते हैं साक्षात्कार।

By M EkhlaqueEdited By: Updated: Wed, 06 Jul 2022 03:53 PM (IST)
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Tribal Lifestyle: जन्म हो या मृत्यु, युद्ध हो या आंदोलन, वाद्ययंत्रों के बिना आदिवासियों की जिंदगी अधूरी।

दुमका {राजीव}। आदिवासियों का इतिहास संघर्षों से जुड़ा है। बावजूद इसके खास बात यह कि इनकी जीवनशैली में संघर्ष, प्रकृति से प्रेम व नृत्य-संगीत का समावेश विशिष्ट है। नृत्य व संगीत के दम पर ही आदिवासियों के महानायक सिदो-कान्हु ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 30 जून 1855 में संताल हूल और बिरसा मुंडा ने उलगुलान का बिगुल फूंका था। उस दौर में आदिवासी समुदाय के बीच आंदोलन को व्यापक रूप से आगे बढ़ाने के लिए मौखिक परंपरा को आंदोलन गीत के जरिए एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया।

नृत्य और संगीत इनके जीवन का अहम हिस्सा

इस समुदाय के बीच मनोरंजन, परंपरागत जात्रा, पर्व-त्योहार व सामूहिक समारोहों में भी संगीत और नृत्य का खास महत्व है। बगैर इसके कोई भी अनुष्ठान व आयोजन फीका माना जाता है। झारखंड में संताल परगना से लेकर छोटानागपुर तक और देश के विभिन्न हिस्सों में बसे संताल समुदाय में भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार रहन-सहन में भिन्नता जरूर दिखती है, लेकिन नृत्य-संगीत सबके लिए अहम हिस्सा है। झारखंड के संताल परगना में खास तौर पर दसांय, बाहा, लांगड़े, गोलवरी नृत्य की परंपरा है।

विविध मौकों पर वाद्ययंत्र बजाने का तरीका अलग

इन नृत्यों के लिए ढाक, मांदल, डीगा या टमाक, बांसुरी, मुरली, सिंगा-सकवा, तुरही, झाल जैसे लोक वाद्य यंत्रों की अहम भूमिका होती है। आंदोलन के दौरान नगाड़ा तो आखेट या सेंदरा के दौरान नगाड़ा, टमाक, तुरही व सिंगा-सकवा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पर्व-त्योहारों व सामूहिक नृत्यों के केंद्र में मांदल होता है। बांसुरी वादन खुुशी व गम दोनों में अहम है। संताल समुदाय में अलग-अलग अवसरों के लिए वाद्य-यंत्रों को बजाने का तरीका ओर संकेत भी अलग-अलग होता है।

मुंडारी गायन का अंदाज लुभाने के लिए काफी

मुंडारी संगीत सुनते ही मन फड़कने लगता है। इसमें मजा यह कि गान से गवैयों का भी काफी परिचय मिलता है। इसमें गायन चुटकुला और भड़कीला होता है। गायक हंसमुख, चुस्त और चुलबुले रहते हैं। मुंडारी लोक गीतों में लालित्य और कलनाद सोलहों आने मौजूद होते हैं। वहीं खड़िया में हरियो, किनभर, हाल्का, कूढिंग, जदुर और मुंडा में जरगा. जदुर, लहसूआ, जापी, जतरा का खास महत्व है। इन नृत्यों में मंडल, नगाडा, झांझ, सोइखो, रूंज, ठेस्का, गूगूचू जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।

संताल में पुरुष करते हैं यहां हंटा लोक नृत्य

इसके अलावा हजारीबाग के इलाके में मर्दाना झूमर, फगुवा, जनानी झूमर, दोहारी डोमकाच, झुम्ता, अखरिया डोमकाच, उडासी जैसे लोक संगीत अत्यंत लोकप्रिय है। मुंडा समुदाय में पाइका अहम नृत्य है। यह नृत्य युद्ध की तैयारी के दौरान किए गए अनुष्ठानों को प्रदर्शित करता है। संतालों में हंटा भी एक नृत्य का रूप है, जिसे पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसमें जनजातीय शिकार की जानकारी होती है। वहीं मुंदारी नृत्य विवाह के समय किया जाता है।

जन्म और मृत्यु पर भी बजाए जाते हैं वाद्ययंत्र

इसी तरह आदिवासी समुदाय के बीच बरो नृत्य अच्छी बारिश के लिए किया जाता है। डोमकच नृत्य में दूल्हे की ओर से महिलाएं नृत्य करती हैं। रामायण और महाभारत की कहानियों को दर्शाने के लिए चोउ नृत्य भी इस समुदाय के बीच प्रचलित है। इसके अलावा आदिवासी समुदाय में जन्म और मृत्यु पर भी वाद्य यंत्रों को बजाने की परंपरा है, जिसे अलग-अलग आवाजों के जरिए प्रदर्शित किया जाता है।

आदिवासी लोक परंपराओं को सहेजना जरूरी

हूल संवाद नामक पत्रिका के संपादक चुंडा सोरेन सिपाही कहते हैं कि आदिवासियों के बीच अब पारंपरिक संगीत व नृत्य को अक्षुण्ण बनाए रखना बड़ी चुनौती है। समय के साथ बदलाव की छाप स्पष्ट तौर पर दिख रही है। धीरे-धीरे परंपरागत आदिवासी वाद्य यंत्र बजाने, नृत्य व संगीत की परंपरा कम हो रही है जिसे बचाने की जरूरत है।

इन्हें गीत-संगीत और नृत्य से मिलती है ऊर्जा

आदिवासी नृत्य-संगीत पर शोध कर रहे अशोक कुमार सिंह कहते हैं कि गीत और संगीत आदिवासी समुदाय के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। तमाम संघर्ष और कठिन परिस्थितियों के बावजूद इनके जीवन में गीत-संगीत अहम है। शायद यही कारण है कि ये लोग सरल व प्रकृति के प्रेमी हैं। इनमें ऊर्जा स्रोत गीत और संगीत से ही मिलता है।