एक बहस खुलेपन पर
उसे तो नंगापन देखने की आदत सी हो गई है। वह तो इस बहस को दिलचस्पी से सुन रहा है, बस।
नंगों की भीड़ राष्ट्र के समक्ष खड़ी है और एक दूसरे पर नंगा होने का आरोप लगा रही है। राष्ट्र को कायदे से इस पर अवाक रह जाना चाहिए, मगर ऐसा बिलकुल भी नहीं है। उसे तो नंगापन देखने की आदत सी हो गई है। वह तो इस बहस को दिलचस्पी से सुन रहा है, बस।
नंगों के बीच आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं:
‘इनको देखिए। वे आगे से तो बढ़िया पैंट चढ़ाए हैं, परंतु पीछे से पूरे नंगे हैं। सरकार अगर इनकी पूरी जांच कराने के लिए समिति बिठाए तो सारे तथ्यों का खुद ब खुद खुलासा हो जाएगा। एक नंगा इस हमाम में बैठकर, छोटा बयान दे रहा है, जहां सब नंगे हैं।
‘नंगेपन के इन छिछले आरोपों में कोई सच्चई नहीं। सरकारी एजेंसियां पहले भी हमारी जांच कर चुकी हैं। नंगा नामालूम कौन सी जांच रिपोर्ट को मीडिया के सामने लहरा रहा है।
‘जब तक जांचकर्ता पूरी तह तक पहुंचे, तुम चुपके से घूम गए। वे पीछे तक गए, मगर जांच आगे की ही करके क्लीन चिट पकड़ा दी’ कोई और ..।
‘क्या हमारी जांच एजेंसियों पर आपको भरोसा नहीं ?’
‘भरोसा है, तभी तो।’
‘क्या वे नंगे का नंगापन नहीं देख सकते? .यदि हम नंगे हैं तो’
‘यदि नंगा कुर्सी पर बैठा हो तो जांच एजेंसियां उघाड़ने नहीं, बल्कि ढंकने का काम करती हैं’
‘देखिए, नंगेपन का तो ऐसा है श्रीमान कि अभी जांच करा ली जाए तो आप भी कम नंगे नहीं हैं। हम तो पीछे से ही कुछ नंगे हैं, लेकिन आप तो अलफ नंगे हो। एकदम नग्न। पैंट का तो अता-पता नहीं और उसके बाद के हालात बताने के काबिल नहीं। हम तो जब चाहे पैंट को पीछे से चढ़ाकर अपने नंगेपन के सारे दस्तावेज ठीक कर लेंगे, लेकिन आपका क्या होगा जनाबे आली।’
‘पैंट न होने से कोई नंगा नहीं कहा जा सकता है, श्रीमान। पैंट की बाकायदा रसीद हमारे पास है, जिसका तरक्कीबख्श ऑडिट भी कराया जा चुका है। पूछ सिर्फ रसीद की होती है, पैंट तो किसी कोने में पड़ी होती है’
‘रसीद से क्या होता है? पैंट कहां है?’
‘जांच होने दो, हम पैंट भी पेश कर देंगे। हमने तब तक तो रसीदों की आड़ ले रखी है। दस्तावेज दुरुस्त रखे जाएं तो किसी भी किस्म का नंगापन ढका जा सकता है, भाई साहब।’
‘पर नंगे तो तुम हो।’
‘यह आपके नजरिये की दिक्कत है जनाब। आप नंगेपन के खेल का असल मतबल नहीं समझते, वरना ऐसा कहने की गुस्ताखी नहीं करते। खोट तो देखने वालों की नजर का है। हम नंगे नहीं है। हमने अंतर्यामी अदृश्य लंगोट पहन रखी है।’
नंगों की बहस में एक नय ा नंगा उतरा। उस पर भी नंगा होने का आरोप है। मगर वह इस बहस से बेपरवाह है। जबसे पैदा हुआ है तब से नंगेपन के आरोपों का आदी हो गया है। नंगेपन को बहस का मुद्दा ही नहीं मानता। नंगापन भी एक किस्म की जीवन शैली है, उसके लिए। वह नंगों को और नंगेपन पर हंगामा खड़ा करने वालों को फटकारने लगा।
‘आप लोग यह नंगापन, नंगई क्या कह रहे हो? यदि कपड़े पहनने, ओढ़ने के सारे नियमों का पालन करते हुए कोई नंगा रह सकता है तो आपको क्या आपत्ति है? फिर उससे पहले नंगेपन की एक मानक परिभाषा तय की जाए। हमारा दायरा दुनिया में जितनी तेजी से फैलेगा, उससे भी एक किस्म का खुलापन तो आएगा, जिसे आप नंगापन करार दे सकते हैं। रिश्वत फैसिलिटेशन की और स्वेट इक्विटी में फर्क करने की तमीज पैदा करो, तब जाकर नंगा होने की बात करो श्रीमान। पसीने, पसीने में फर्क होता है। कुछ लोग दिन भर पसीना बहाएं तो पचास रुपये कीमत है, उस पसीने की और कुछ गुलाबी किस्म के पसीने भी होते हैं, जिसकी कीमत करोड़ों में होती है। ठीक वाला पसीना पैदा तो करो। सभी नंगे हैं। सभी दूसरे को बड़ा नंगा सबित करने में लगे हैं। सभी को खुद के नंगेपन पर कोई ऐतराज नहीं। बल्कि बड़ा फख्र है। नंगा क्या कोई और बड़ा तमाशा खड़ा कर पाया? सभी के पास अपने नंगेपन को लेकर दस्तावेजी स्पष्टीकरण हैं। राष्ट्र के सामने ये नंगे ऐसे खड़े हैं मानो नौ गज कपड़े में लिपटे हों।’
‘तूने नंगा किसे कहा?’
‘तेरे को। और किसे?’
‘तू नंगा, तेरा बाप नंगा।’
‘बाप तक मत जा बे। हमने जो तेरे बाप के कच्चे चिट्ठे खोल दिए न, तो..’
‘खोल न।’
‘मैं कोर्ट जाऊंगा’
‘तू क्या जायेगा बे, तेरी पैंट तो मेरे पास है।’
‘..ओ तेरी पैंटों की सिलाई का खर्चा कौन उठाता है, उसकी सारी रसीदें मेरे पास हैं.’
‘..ओ तेरी चड्ढी किस-किसके घर छूटती है, बताऊं क्या?’
‘..अबे तेरी तो.’
नंगेपन की बहस का स्तर नंगेपन की सीमाएं छू चुका है। राष्ट्र इसे चिंता, शर्मिदगी और मनोरंजन के मिले जुले भाव से देख रहा है, परंतु जब कोई राष्ट्र ऐसे प्रश्नों में भी मनोरंजन तलाशने लगता है, तब बात बेहद खतरनाक हो जाती है। अभी न केवल वही हो रहा है, बल्कि वह बढ़ता भी जा रहा है। याद रहे कि नंगेपन की बहस यदि तमाशे में बदल जाए तो फिर नंगपेन को वैधानिक बनते देर नहीं लगती।
[ लेखक- ज्ञान चतुर्वेदी ]