जागरण संपादकीय: कमला हैरिस की हार से सबक ले कांग्रेस, बहुसंख्यकों की अनदेखी पर देना होगा ध्यान
कांग्रेस पार्टी उन लोगों के साथ खड़ी होती है जो ‘भारत तेरे टुकड़े..’ का नारा लगाते हैं। भारत में कांग्रेस पार्टी के लिए भी इसमें यह सबक छिपा हुआ है कि जब तक वह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और बहुसंख्यकों की भावनाओं की अनदेखी करते हुए वामपंथियों को अपना एजेंडा तैयार करने देती रहेगी तब तक उसकी वैसी ही दुर्गति होती रहेगी जैसी अमेरिकी चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की हुई।
ए. सूर्यप्रकाश। अमेरिकी चुनाव में भी कमोबेश भारत जैसी कहानी ही दोहराई गई। जिस तरह भारत में कांग्रेस पार्टी पर अतिवादी वामपंथियों ने कब्जा जमा लिया है, कुछ वैसे ही अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी में कर लिया है। कमला हैरिस को अतिवादी वामपंथी बुद्धिजीवियों की ओर झुकाव का खामियाजा राष्ट्रपति चुनाव में करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा।
पारंपरिक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी की पहचान कामकाजी तबके की पार्टी के रूप में रही है, लेकिन पिछले कुछ समय से उसका नेतृत्व अभिजात्य ग्रंथि का शिकार होकर आम अमेरिकियों की भावनाओं और आकांक्षाओं से कट गया। आम अमेरिकी दक्षिण अमेरिका और अरब देशों से आ रहे अवैध प्रवासियों के चलते मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि इन बाहरी लोगों की वजह से न केवल अपराध बढ़ रहे हैं, बल्कि अमेरिकियों के लिए रोजगार के अवसर भी सिकुड़ रहे हैं।
फिर भी डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए यह कोई चिंता का मुद्दा नहीं रहा। उलटे वह अमेरिका के अभिजात्य संस्थानों में हमास के पक्ष में कार्यक्रम आयोजित कराती रही। डेमोक्रेट्स के बयानों से यही अनुभूति हुई कि उन्हें आम अमेरिकियों और उनकी आर्थिक दुश्वारियों से अधिक अवैध अप्रवासियों के हितों एवं मानवाधिकारों की फिक्र है तथा श्वेत एवं ईसाई समुदाय जैसे बहुसंख्यक वर्गों की भावनाएं उनके लिए मायने नहीं रखतीं।
ऐसा लगा कि महंगाई और आर्थिक समस्याओं को लेकर भी हैरिस अनभिज्ञ सी थीं। दूसरी ओर डोनाल्ड ट्रंप का रवैया स्पष्ट था। उन्होंने लोगों से कहा कि वे उन्हें वोट दें ताकि वह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अवैध अप्रवासियों को बाहर निकालने के साथ ही मेक्सिको एवं अन्य देशों से आने वाले अवैध अप्रवासियों को रोकने के लिए दक्षिणी सीमा पर मजबूत दीवार बना सकें। साथ ही चीनी आयातों पर अंकुश के लिए टैरिफ बढ़ाने, अमेरिका में विनिर्माण को बढ़ावा देने और अर्थव्यवस्था की मजबूती पर भी ध्यान दे सकें।
भारत में भी कांग्रेस पार्टी उन लोगों के साथ खड़ी होती है, जो ‘भारत तेरे टुकड़े..’ का नारा लगाते हैं, रोहिंग्या घुसपैठियों की ढाल बनती है और पाकिस्तानी आतंकियों के लिए आंसू बहाने वाले फारूक अब्दुल्ला के साथ गठबंधन करती है। डेमोक्रेटिक पार्टी का रुख-रवैया भारत की कांग्रेस पार्टी जैसा ही दिखता है।
अमेरिकी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी वामपंथी जकड़न में है, जिसने रिपब्लिकन पार्टी और डोनाल्ड ट्रंप के खिलाफ खूब जहर उगला। अमेरिकी मीडिया पूरी दुनिया को बरगलाता रहा कि हैरिस जीत रही हैं, लेकिन अमेरिकी जनता ने मीडिया का यह पक्षपाती खेल समझते हुए उसे सबक सिखाया। चुनावी अभियान में हैरिस ने ट्रंप को हिटलर, तानाशाह, नस्लवादी, महिला विरोधी, अविश्वसनीय और अशिष्ट एवं गंवार तक कहा।
तमाम एंकरों और स्टूडियो में आए मेहमान भी इन गालियों को दोहराते रहे। अमेरिका की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि विश्व का सबसे समृद्ध पूंजीवादी देश होते हुए भी वहां के विश्वविद्यालयों द्वारा वामपंथी प्रोफेसरों और छात्रों को भारी प्रोत्साहन दिया जाता है। कम्युनिस्टों और ऐसे ही अन्य लोगों को ‘शोध’ परियोजनाओं के लिए भारी-भरकम वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं, जो अक्सर यहूदियों और इजरायल एवं हिंदुओं और भारत के विरुद्ध होते हैं। वे यह दर्शाते हैं कि कट्टर इस्लाम जैसा कुछ नहीं और इस्लामिक देशों में सब दुरुस्त है।
वे हमास जैसे आतंकी संगठनों के पक्ष में महीनों लंबे प्रदर्शन अभियान चलाते हैं तो अमेरिका में घुसने की फिराक में लगे अवैध अप्रवासियों की पैरवी करते हैं। यह सब लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किया जाता है। छात्रों और शहरी कुलीन तबकों पर उनका व्यापक प्रभाव है। यही कारण है कि कालेज छात्रों और शहरी मतदाताओं ने हैरिस के पक्ष में मतदान किया, जबकि बड़ी संख्या में ग्रामीण मतदाताओं और विश्वविद्यालयी शिक्षा से वंचित लोगों ने ट्रंप का समर्थन किया।
भारत में भी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कालेज के वामपंथी सोच वाले छात्रों को लगता है कि केवल वही जानते हैं कि देश को कैसे चलाया जा सकता है और उनकी बात ही सर्वोपरि है। वह मीडिया का एजेंडा तय करना भी अपना विशेषाधिकार समझते हैं। उनमें से अधिकांश भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से नफरत करते हैं। अपनी विचारधारा के प्रति उनकी ऐसी मुग्धता है कि उससे इतर लोगों के लिए वह कोई जगह नहीं देखते।
अपनी इसी मानसिकता के चलते उन्होंने कई बार मोदी के राजनीतिक समापन की घोषणा की, लेकिन व्यापक जनसमर्थन के दम पर मोदी इस वर्ग को धता बताते आ रहे हैं, क्योंकि देश की जनता इन वामपंथियों के झांसे में नहीं आती। इसके बावजूद वामपंथियों का यह छोटा सा समूह कोई सबक नहीं सीखता और टीवी चैनलों से लेकर हर मंच पर अपने ‘ज्ञान’ का बखान करने से बाज नहीं आता। दुनिया भर में इनके यही तेवर हैं। अमेरिका में भी सीएनएन जैसे चैनल बार-बार वही क्लिप दिखाते रहे, जिनसे ट्रंप की छवि खराब होने के आसार थे।
यह उनके विरुद्ध एकदम दुष्प्रचार जैसा था। सबसे हतप्रभ करने वाला प्रयास तो वह ओपिनियन पोल था, जो चुनाव की पूर्वसंध्या पर दिखाया गया। इस पोल के अनुसार ट्रंप आयोवा राज्य में हार रहे थे, जबकि पिछले दो चुनावों में वह यहां से भारी अंतर से जीतते आए थे। चूंकि यह राज्य लंबे समय से रिपब्लिकन पार्टी का गढ़ रहा है तो उक्त पोल के जरिये मतदाताओं को यही संदेश देने की शरारत की गई कि ट्रंप बहुत गहरे संकट में हैं। यदि वह आयोवा में हार जाएंगे तो भला किस आधार पर राष्ट्रपति चुनाव जीतेंगे? वास्तविकता यह रही कि ट्रंप ने इस राज्य में बहुत सहजता के साथ जीत दर्ज की।
अमेरिकी जनता ने हैरिस को व्यापक रूप से खारिज कर हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड जैसे अभिजात्य संस्थानों और मीडिया के शरारतपूर्ण रवैये को सबक सिखाने का काम किया। भारत में कांग्रेस पार्टी के लिए भी इसमें यह सबक छिपा हुआ है कि जब तक वह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण और बहुसंख्यकों की भावनाओं की अनदेखी करते हुए वामपंथियों को अपना एजेंडा तैयार करने देती रहेगी, तब तक उसकी वैसी ही दुर्गति होती रहेगी, जैसी अमेरिकी चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की हुई।
(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)