सुरेंद्र किशोर। प्रश्नपत्र लीक होने के सिलसिले को रोकने के लिए केंद्र सरकार के साथ आठ राज्य सरकारों ने भी इससे संबंधित कानून बनाए हैं। हाल में बिहार सरकार ने भी बिहार लोक परीक्षा (अनुचित साधन निवारण) विधेयक पारित किया है। यह सराहनीय और समयानुकूल है।

सामान्य और भर्ती परीक्षाओं में कदाचार की समस्या देशव्यापी है। यह जरूरी था कि केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारें भी इसे रोकने की दिशा में ठोस कदम उठातीं। भर्ती परीक्षाओं के अलावा सामान्य परीक्षाओं में भी कदाचार रोकने की दिशा में ठोस काम होना चाहिए, तभी नए कानून कारगर हो पाएंगे। यह संयोग नहीं है कि नीट में प्रश्नपत्र लीक के केंद्र हजारीबाग और पटना रहे।

बिहार के प्रश्नपत्र लीक रोधी कानून में भी दस साल तक की सजा और एक करोड़ रुपये के जुर्माने का प्रविधान किया गया है। इससे कानून का उल्लंघन करने वालों में अधिक भय पैदा होगा। इससे पहले बिहार में 1981 में नकल विरोधी कानून बना था। उसके तहत छह महीने की जेल और दो हजार रुपये के जुर्माने का प्रविधान था। वह कानून तनिक भी करगर साबित नहीं हुआ।

बिहार ने जो नया कानून बनाया है, उसके तहत दायर मुकदमों की जांच डीएसपी स्तर के अधिकारी करेंगे। पुराने कानून में ऐसा प्रविधान नहीं था। बिहार सरकार पेपरलीक कांड की जांच बिहार पुलिस के अलावा किसी अन्य एजेंसी से करा सकेगी। बिहार का यह कानून जिन संस्थाओं की प्रतियोगी परीक्षाओं पर लागू होगा, उनमें बिहार लोक सेवा आयोग, बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग, बिहार कर्मचारी चयन आयोग, बिहार पुलिस अवर सेवा आयोग, केंद्रीय सिपाही चयन परिषद, बिहार तकनीकी सेवा आयोग शामिल हैं।

यह सब ठीक है, लेकिन प्रश्न है कि क्या स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर की परीक्षाओं को कदाचारमुक्त किए बिना भर्ती परीक्षाओं में जारी कदाचार को पूर्णतः रोका जा सकता है? यह सवाल बिहार के सामने ही नहीं, सभी राज्यों के समक्ष है। आखिर आज देश के कितने राज्यों के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा-परीक्षा हो पा रही है?

शिक्षा-परीक्षा को सुधारे बिना भर्ती परीक्षाओं के लिए कितने सुशिक्षित उम्मीदवार मिल पाएंगे? इसलिए अगले कदम के तहत राज्य सरकारों को वहां जारी गंदगी की भी सफाई के लिए कारगर कदम उठाने होंगे। इस दिशा में अब तक जो भी कदम उठाए गए, वे विफल ही रहे हैं। समय-समय पर अनेक राज्यों में सच्ची परीक्षा और सच्ची पढ़ाई की कोशिशें हुईं, लेकिन निहित स्वार्थी तत्वों ने उन्हें विफल कर दिया।

वे तत्व आज भी कमजोर नहीं हुए हैं। यह उम्मीद की जाती है कि सरकारें हर स्तर की परीक्षाओं को कदाचार से मुक्ति के लिए अपनी कठोर इच्छाशक्ति का इस्तेमाल करें। उत्तर भारत के कई राज्यों और खासकर बिहार की शिक्षा-परीक्षा में गिरावट की शुरुआत पहले ही हो चुकी थी, लेकिन 1995 तक बिहार में उसकी हालत ऐसी दयनीय हो चुकी थी कि कई राज्य सरकारों ने बिहार इंटर काउंसिल द्वारा जारी प्रमाणपत्रों को मानने से ही इन्कार कर दिया था।

कई मामलों में जाली अंक पत्र और प्रमाण पत्र भी जारी होने लगे थे। उस स्थिति से ऊबकर पटना हाई कोर्ट में लोकहित याचिका दायर की गई। हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि जिलाधिकारी और प्रमंडलीय आयुक्त कदाचारमुक्त परीक्षाएं आयोजित कराने के लिए जिम्मेदार होंगे। इसके चलते 1996 में बिहार में मैट्रिक और इंटर की कदाचारमुक्त परीक्षाएं हुईं।

1996 की इंटर साइंस की परीक्षा में सिर्फ 15 प्रतिशत परीक्षार्थी ही उत्तीर्ण हो सके थे। पटना जिले में मैट्रिक परीक्षा में सिर्फ 16 प्रतिशत परीक्षार्थी ही सफल हो सके। कमोबेश ऐसा ही परिणाम अन्य जिलों में रहा। नतीजतन कॉलेजों में एडमिशन के लिए विद्यार्थियों का अकाल सा हो गया। शिक्षा माफिया के पांव उखाड़ना इतना आसान काम नहीं था। उन्हें शासन से अघोषित रूप से यह आश्वासन मिल गया कि अब आगे की परीक्षाओं में कड़ाई नहीं होगी।

इस मोर्चे पर शिक्षा माफिया ही अंतत: जीत गया और दोगुने उत्साह से परीक्षाओं में कदाचार करने लगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज बिहार में शिक्षा-परीक्षा का हाल वैसा ही हो गया है, जैसा 1995 में था। होना तो यह चाहिए था कि परीक्षा में कड़ाई जारी रहती।

शिक्षा-परीक्षा में सुधार के लिए यह जरूरी था, पर जिन्हें एक समय शिक्षा मंत्री ने शिक्षा माफिया करार दिया था, उन्हीं लोगों ने ऐसी जुगत भिड़ाई कि दोबारा कदाचार शुरू हो गया। 1996 की कड़ाई के बाद के वर्षों में कदाचार की ऐसी छूट मिली कि एक दफा तो जो छात्र बिहार की बोर्ड परीक्षा में पूरे राज्य में प्रथम आया था, वह दिल्ली में ऊंची कक्षा में नामांकन के बाद एक सेमेस्टर भी पास तक नहीं कर सका।

देश भर में शिक्षा क्षेत्र एक ऐसा ‘उद्योग’ बन गया है, जिसमें कोई घाटा नहीं होता। इस उद्योग में सिर्फ आधुनिक तकनीक के साथ-साथ उच्चस्तर के जनसंपर्क की आवश्यकता होती है। इस उद्योग से जुड़े एक ‘कारखाने’ का जिक्र अपनी पुस्तक ‘इंटर काउंसिल एक हकीकत’ में दिवंगत प्रोफेसर नागेश्वर प्रसाद शर्मा ने किया है।

उस अल्पज्ञात कारखाने यानी कॉलेज के इंटरमीडिएट के परीक्षार्थियों का जब एक खास साल का रिजल्ट देखा गया तो पता चला कि उसके कुल 477 में से 461 परीक्षार्थियों ने प्रथम श्रेणी में परीक्षा पास की। जब इस मामले की जांच हुई तो पाया गया कि वास्तव में सिर्फ तीन छात्रों को ही प्रथम श्रेणी मिली थी।

आज देश के तमाम शिक्षा संस्थान ऐसे हैं, जो मात्र शिक्षा के कारखाने बनकर रह गए हैं और जो ‘घटिया माल’ का ही अधिक उत्पादन करते हैं। अपवाद को छोड़कर इनके संचालकों को उन तमाम लोगों का प्रत्यक्ष और परोक्ष संरक्षण हासिल होता है, जिन पर कदाचारमुक्त शिक्षा और परीक्षा उपलब्ध कराने की संवैधानिक जिम्मेदारी है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)