खुद अपनी हार का कारण बनी भाजपा, कई बड़े नेताओं के हस्तक्षेप के कारण एक इकाई होकर चुनाव नहीं लड़ी पार्टी
राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक में नफरत की दुकान बंद हुई और मोहब्बत की दुकानें खुल गईं। वह अपनी भारत जोड़ो यात्रा के समय से यही कहते रहे हैं कि हम मोहब्बत बांट रहे हैं। हर पार्टी विजय को अपने तरीके से परिभाषित करती है।
अवधेश कुमार : कांग्रेस नेता सिद्दरमैया ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपने मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही उन पांच गारंटियों को लागू करने को सैद्धांतिक रूप से मंजूरी दे दी, जिनका वादा चुनाव में किया गया था। कर्नाटक में कांग्रेस की विजय हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यूं तो 1985 के बाद से कोई पार्टी वहां लगातार दूसरी बार सत्ता में वापस नहीं आई, किंतु इसके आधार पर चुनाव का पूरा विश्लेषण नहीं हो सकता।
सामान्य विश्लेषण यही है कि कांग्रेस ने भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाया और प्रचारित किया कि यह 40 प्रतिशत कमीशन वाली सरकार है जिसे हटाना है। इसका व्यापक असर हुआ। इसी तरह मुफ्त बिजली, मुफ्त चावल, महिलाओं को मासिक भत्ता, मुफ्त बस यात्रा, युवाओं को बेरोजगारी भत्ते की घोषणाओं ने भी कांग्रेस की ओर आम जनता को आकर्षित किया।
राहुल गांधी ने कहा कि कर्नाटक में नफरत की दुकान बंद हुई और मोहब्बत की दुकानें खुल गईं। वह अपनी भारत जोड़ो यात्रा के समय से यही कहते रहे हैं कि हम मोहब्बत बांट रहे हैं। हर पार्टी विजय को अपने तरीके से परिभाषित करती है। हालांकि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भाजपा वहां नफरत बढ़ाती थी और कांग्रेस केवल मोहब्बत। राहुल गांधी और कांग्रेस के नेता आरएसएस, भाजपा एवं उसके नेताओं, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और हिंदुत्व से जुड़े संगठनों के विरुद्ध जिस तरह की भाषा का प्रयोग करते रहे हैं अगर वह मोहब्बत है तो कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।
भाजपा के बारे में कहा जा रहा है कि उसने स्थानीय मुद्दों पर जनता को साफ संदेश नहीं दिया। कांग्रेस की मुफ्त की घोषणाओं के उत्तर में भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में कुछ वादे किए, किंतु यह भी जनता तक ठीक से नहीं पहुंच सके तथा लिंगायतों के बड़े वर्ग ने उसके विरुद्ध मतदान किया। जनता ने भाजपा के बजरंग बली सहित हिंदुत्व और राष्ट्रीय मुद्दों को स्वीकार नहीं किया और उसकी जगह स्थानीय विषयों को प्रमुखता दी।
क्या यही सब भाजपा की इतनी बड़ी पराजय के कारण हैं? क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा के मतदाताओं में हिंदुत्व, हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रवाद और सुरक्षा आदि के प्रति आकर्षण नहीं रहा? यही सच है तो भाजपा को 36 प्रतिशत मत कैसे मिल गया? 2018 में उसे 36.4 प्रतिशत मत प्राप्त हुआ था। स्पष्ट है कि उसके अपने मतों में कमी नहीं आई है। जद(एस) को 2018 में 18.3 प्रतिशत मत मिला था जबकि इस बार 13.3 प्रतिशत। यही पांच प्रतिशत मत कांग्रेस के खाते में स्थानांतरित हो गए। तो ये मत किसके थे?
साफ है कि कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विरोधी मतों का एकपक्षीय ध्रुवीकरण हुआ है। इसमें मुख्यतः मुसलमानों एवं ईसाइयों का मत हो सकता है। चूंकि इनका लक्ष्य भाजपा को हराना था, इसलिए इन समुदायों के बड़े समूह ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। इसका पूर्वाभास होते हुए भी भाजपा इसकी भरपाई के लिए उपयुक्त रणनीति नहीं अपना पाई। उत्तर प्रदेश में इसी भाजपा ने अपने विरुद्ध एकपक्षीय मतों के सपा के पक्ष में ध्रुवीकरण के समानांतर रणनीतियां बनाई और सफलता भी पाई। कर्नाटक में ऐसा नहीं हो पाया। क्यों?
इसके अलावा कर्नाटक में येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद से हटे, पर जनता में संदेश यही गया कि सत्ता संचालन का मुख्य सूत्र अभी भी बीएस येदियुरप्पा के हाथों है तथा केंद्रीय नेतृत्व का उन्हें पूरा समर्थन प्राप्त है। हालांकि ऐसा नहीं हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री बोम्मई को बनाए और येदियुरप्पा के हाथों सत्ता संचालन थमा दे, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बावजूद जनता के बीच बासवराज बोम्मई प्रभावी नेता की छवि नहीं बना सके। प्रदेश के कई नेता केंद्रीय संगठन तथा सरकार में शामिल हैं। सबका प्रभाव मुख्यमंत्री और संगठन पर कायम रहा तथा उम्मीदवारों के चयन में प्रमुख भूमिका रही।
स्वाभाविक ही है कि कर्नाटक में भाजपा कई बड़े नेताओं के हस्तक्षेप के कारण एक इकाई होकर चुनाव नहीं लड़ रही थी। उम्मीदवारों के चयन से लेकर रणनीति तक में एकरूपता का अभाव था। उम्मीदवारों की घोषणा के साथ बड़ी संख्या में नेताओं द्वारा विरोध का झंडा उठाना पार्टी के अंदर व्याप्त असंतोष का प्रमाण था। उम्मीदवार घोषित होते गए, पार्टी में विद्रोह बढ़ता गया। एक ओर कांग्रेस नेताओं के बीच आपसी मतभेद होते हुए भी एकजुट होकर लड़ रही थी और दूसरी ओर भाजपा आपस में विभाजित थी।