वरुण आनंद। इतिहास स्वयं को दोहराता है। वह पहली बार आपके लिए सबक के रूप में होता है और दूसरी बार सबक से कुछ ना सीख पाने की मूर्खता के प्रतिफल के रूप में सामने आता है। पिछले करीब दो माह से शाहीनबाग में जो कुछ हो रहा था, उस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चेतावनी दे रहे थे, लेकिन तथाकथित उदारवादियों ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण माना और उनमें से कई तो गाहेबगाहे राष्ट्रीय मंचों और टीवी चैनलों पर हो रही बहसों में अभिभावकों की भांति इन उपद्रवियों को बचाते-दुलराते नजर आए, उस बिगड़ैल बच्चे की तरह, जिसकी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती रहे और बाद में अंजाम उसके स्वच्छंद अपराधी होने के रूप में सामने आए। वैसा ही अब इस प्रयोग के परिणाम सामने आने पर होता दिख रहा है। पड़ोसियों से मिल रहे ताने पुलिस की एफआइआर में बदलने लगें और तब भी अभिभावक न चेतें तो इसे आपराधिक प्रवृत्ति के साथ ही परवरिश में खोट कहा जा सकता है। शाहीनबाग का उद्दंड प्रयोग इसी राह पर चल पड़ा है।

जगह जगह से दंगे भड़कने और पत्थरबाजी व आगजनी की खबरें आ रही हैं। दिल्ली के उत्तरपूर्वी इलाके के जाफराबाद को दूसरा शाहीनबाग बनाए जाने की तैयारी है। अलीगढ़ में भी लोग इस मकसद से धरने पर बैठे। जाफराबाद में हुई व्यापक हिंसा के दौरान मंगलवार तक मरने वालों की संख्या दहाई में पहुंच चुकी थी। इन दंगों में दिल्ली पुलिस के एक हेड कांस्टेबल की भी हत्या कर दी गई। ये खबरें, और वह भी तब, जब पूरा भारत दुनिया की महाशक्ति के तौर पर पहचाने जाने वाले देश के राष्ट्राध्यक्ष के स्वागत की तैयारियों में व्यस्त था, यह टाइमिंग संदेह करने को मजबूर करती है कि सामने से पत्थर फेक रही भीड़ के पीछे कोई और है। ये वही लोग हैं जो मंच से पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाने वाली छात्र ‘अमूल्या’ के पीछे हैं। अमूल्या ने खुद इस बात को स्वीकार किया कि वह सिर्फ एक चेहरा है। उसे कब, कहां और क्या कहना है ये कोई और तय करता है। ये कोई और कौन हैं? इन्हें पहचानने के लिए दूरदर्शिता की जरूरत है।

अलगाववादियों की हरकतों से बढ़ती चिंता 

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश अरुण मिश्र ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए उन्हें दूरदर्शी नेता बताया था। यह प्रधानमंत्री की दूरदर्शिता का एक उदाहरण ही था कि उन्होंने दिल्ली में विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान मंच से शाहीनबाग को एक प्रयोग कहा था। तब भी उनके इस बयान को गंभीरता से लेने के बजाय आलोचनाओं की झड़ी लग गई थी, लेकिन आज वही अलगाववादी प्रयोगशाला जब अपना दायरा बढ़ा रही है तो एक आम नागरिक जो सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं को जुटाने में निरंतर प्रयासरत रहता है, घबरा रहा है। घबराहट सिर्फ आज के संदर्भ में नहीं है, बल्कि भविष्य को लेकर भी है। आने वाली पीढ़ीके संदर्भ में इस घबराहट की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है 

अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर पहले सड़कों पर आवाजाही रोकना पत्थरबाजी, आगजनी, गोलीबारी और फिर हत्या..। हद तो तब हो जाती है जब इतना सब करने के बाद भी बड़ी मासूमियत से प्रधानमंत्री से बातचीत की उम्मीद भी की जाती है। कहा जाता है कि हम चाहते हैं कि प्रधानमंत्री हमारी बात सुनें। यानी एक तरफ पत्थरबाजी और दूसरी तरफ बातचीत। क्या ऐसे अराजक लोगों के साथ बातचीत की जानी चाहिए? लोकतंत्र का मतलब आजादी है, लेकिन जब इसे स्वच्छंदता के रूप में लिया जाने लगे तो तस्वीर बदलने लगती है। लोकतंत्र गलत रास्ते पर जाने लगता है।

सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री के लिए कहे जा रहे अपशब्द 

यह हमारा ही देश है, जहां प्रधानमंत्री को सार्वजनिक मंचों और सोशल मीडिया पर खुलेआम अपशब्द कहे जाते हैं। डंडे मारने तक की बात कही जाती है। इतनी आजादी भारत में ही मुमकिन है। जरा पड़ोसी देश चीन की ओर नजर डालें, जो इन दिनों कोरोना वायरस से लड़ रहा है। वहां एक व्यक्ति को सिर्फ इस बात के लिए गिरफ्तार कर लिया जाता है, क्योंकि उसने वहां के राष्ट्रपति को कोरोना वायरस से मुकाबला करने में असफल बताते हुए इस्तीफा देने की बात कह दी थी। 

जरा इस बारे में सोचिए, हमारे देश में प्रधानमंत्री से इस्तीफा देने की मांग करना कितना आसान है। इस पर किसी तरह की कार्रवाई की भी कोई आशंका नहीं होती। इन सबके बावजूद शाहीनबाग के हिमायती लोग देश में अभिव्यक्ति की आजादी का रोना रोते दिखते हैं। आज शाहीनबाग का विस्तार देश के आम नागरिकों के धैर्य की परीक्षा है। यह संविधान की आड़ में उद्दंडता से ज्यादा कुछ नहीं है, जो देश को बंधक बनाने की कोशिश में जुटा है।

(varun.anand@nda.jagran.com) 

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