ड्रैगन की नई चाल: चीन के नए भू सीमा कानून का असल मकसद हिमालयी क्षेत्र में चीनी पैठ बढ़ाना है
चीन ने हाल ही में एक नया भू सीमा कानून लागू किया है। इसके जरिए वो हिमालयी क्षेत्र में अपनी पैठ को बढ़ाना चाहता है। ऐसे में भारत को चीन के प्रति और सतर्क रहने की अधिक जरूरत है।
ब्रह्मा चेलानी। कोई देश क्या अपने घरेलू कानून का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के लिए कर सकता है? क्या वह अपने कानूनों के जरिये उन द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय अंतरराष्ट्रीय संधियों का मखौल उड़ा सकता है, जिनमें वह स्वयं एक पक्ष हो? ये काल्पनिक प्रश्न नहीं हैं। शी चिनफिंग के नेतृत्व में तानाशाह चीन बिल्कुल यही कर रहा है। अपने विस्तारवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए चीन निरंतर घरेलू कानूनों की आड़ ले रहा है। इसी सिलसिले में उसने हाल में नया ‘भू सीमा कानून’ बनाया। इसका मुख्य उद्देश्य हिमालयी क्षेत्र में चीनी पैठ बढ़ाना है।
हिमालय के दुर्गम मोर्चे पर भारत के साथ जारी टकराव के बीच चीन ने उकसावे वाला यह कदम उठाया है। अप्रैल 2020 में विवादित सीमा पर चीन द्वारा अतिक्रमण की कोशिशों के बीच टकराव की कई घटनाएं घटित हुई थीं। अब इस नए कानून ने भारत के साथ भौगोलिक सीमा के विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की रही-सही संभावनाओं पर भी आघात किया है। सीमाओं के परस्पर समाधान के बजाय यह नया कदम सीमाओं पर एकतरफा कानून लागू करता है।
माना जा रहा है कि हिमालयी सीमा पर गहराते सैन्य गतिरोध ने बीजिंग को यह नया कानून बनाने पर मजबूर किया है। यह उसे सीमा के इर्दगिर्द अपनी आक्रामकता बढ़ाने में मददगार होगा। ड्रैगन की यह कवायद पूर्वी एवं दक्षिण चीन सागर में उसके आक्रामक कदमों के अनुरूप ही है। मिसाल के तौर पर उसने सेनकाकू द्वीप में जापान के अधिकार को कई प्रकार से चुनौती दी है। चीन के भूमि सीमा कानून का विस्तार पारदेशीय नदी जल तक है। चीनी सरकारी मीडिया के अनुसार यह कानून ब्रह्मपुत्र और मेकांग जैसी उन नदियों पर चीन के ‘वैधानिक अधिकार एवं हितों’ को पोषित करता है, जिन नदियों का उद्गम तिब्बत से हुआ है। यानी चीन इन नदियों के पानी का मनमाना इस्तेमाल कर सकता है।
यहां तक कि वह पानी की साझेदारी और नदी के प्रवाह से जुड़े पहलू की भी परवाह नहीं करेगा। एक विदेशी पत्रिका ने भूमि सीमा कानून के प्रविधानों के हवाले से लिखा है कि चीन टकराव की स्थिति में भारत के हिस्से में आने वाले पानी की आपूर्ति पर शिकंजा कसने के विचार पर काम कर रहा है। चीन पानी के इस पहलू को पहले भी हथियार बनाता आया है। 2017 में पानी की आपूर्ति के आंकड़े देने से इन्कार करना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण था, जबकि द्विपक्षीय समझौते के अनुसार ऐसे आंकड़े साझा किए जाने चाहिए थे। उस एक साल के आंकड़े न मिलने का परिणाम भारत के लिए बहुत विध्वंसक हुआ, क्योंकि उनके अभाव में उस बाढ़ से निपटने की पुख्ता योजना नहीं बन पाई, जिसने खास तौर से असम जैसे राज्य में अपना भीषण रूप दिखाया।
यह भी देखा जाना चाहिए कि अपने नए तटरक्षक कानून के अमल में आने के कुछ दिन बाद ही चीन ने यह नया भूमि सीमा कानून बना दिया। चीन का तटरक्षक कानून स्पष्ट रूप से संयुक्त राष्ट्र सामुद्रिक कानून संधि यानी यूएनक्लोस का घोर उल्लंघन है। वह भी तब जबकि चीन स्वयं इस संधि से जुड़ा है। इस प्रकार विवादित जल सीमा को अपनी आंतरिक जल सीमा मानने का चीनी रवैया जापान या अमेरिका के साथ उसके ¨हसक टकराव का ¨बदु बन सकता है। जहां भूमि सीमा कानून हिमालयी क्षेत्र में चीनी सैन्यकरण को रफ्तार देगा, वहीं तटरक्षक कानून के जरिये वह सामुद्रिक मोर्चे पर सामरिक क्षमताओं को धार देगा। भूमि सीमा कानून चीन को विवादित क्षेत्र पर अपने कब्जे को लेकर घातक बल के प्रयोग की राह खोलता है। इसी प्रकार तटरक्षक कानून विवादित जल सीमा में अपने नियंत्रण के लिए चीन को अपनी ताकत इस्तेमाल करने की गुंजाइश देता है।
गत वर्ष चीन ने हांगकांग की आजादी पर आघात करते हुए वहां नया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किया था। उसके दम पर चीन ने हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया। पूरा शहर कैदखाने में तब्दील हो गया। इसके लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीसीपी ने ब्रिटेन के साथ चीन की संयुक्त राष्ट्र में हुई संधि का भी लिहाज नहीं किया। अब यही आशंका बढ़ रही है कि ताइवान को लेकर भी चीन ऐसा ही कोई कुचक्र रचेगा। हालांकि शी चिनफिंग इसके लिए कुछ इंतजार जरूर करेंगे, क्योंकि बीजिंग को शीतकालीन ओलिंपिक खेलों को मेजबानी करनी है और ताइवान पर दिखाई गई आक्रामकता पश्चिम द्वारा इन खेलों के बहिष्कार की वजह बन सकती है।
कुल मिलाकर अपने नापाक कदमों पर घरेलू कानूनों का आवरण डालकर चीन यही दर्शाता है कि ताकतवर देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून बिल्कुल बेदम हैं। इसीलिए चीन अपने विस्तारवाद की मुहिम में अक्सर अंतरराष्ट्रीय कानूनों का मखौल उड़ाता है। इसकी अंतहीन मिसालें हैं। फिर चाहे दक्षिण चीन सागर में बनाए गए कृत्रिम द्वीप हों या फिर हिमालयी सीमा पर सामरिक गांवों को बसाने की मुहिम ताकि भारत, भूटान और नेपाल सीमा पर अपनी पैठ और नियंत्रण को और मजबूत बनाया जा सके। अंतरराष्ट्रीय कानूनों में मजबूत क्षेत्रीय दावे के लिए प्रभावी नियंत्रण एक आवश्यक शर्त है। इसमें सैन्य गश्त से अधिक मानवीय बस्तियां ज्यादा प्रभावी सिद्ध होती हैं। यही कारण है कि सीसीपी तिब्बती खानाबदोशों को हिमालयी सीमा पर बसाए जा रहे कृत्रिम गांवों में बसने के लिए बाध्य कर रही है, जिन गांवों में हान चीनी पार्टी के नेता पर्यवेक्षकों के रूप में रहते हैं। वास्तव में यह चीन की हाइब्रिड सामरिक नीति का एक अहम अंग है, जिसमें पारंपरिक तौर-तरीकों और ऐसी नई तिकड़मों का समावेश है।
चीन का नया भूमि सीमा कानून भारत की मुश्किलें बढ़ाने वाला है। सीमा पर चीनी आक्रामकता और मेड इन चाइना कोविड महामारी के दोहरे हमले ने भारत में उन धारणाओं को ध्वस्त किया है कि भारत सीमा विवाद को किनारे कर बीजिंग के साथ आर्थिक एवं राजनीतिक रिश्ते प्रगाढ़ कर सकता है। भारतीय विदेश नीति प्रतिष्ठान इस भ्रम में रहा कि चीन को व्यापार एवं निवेश के अवसर प्रदान करने और उससे बेहतर राजनीतिक रिश्ते स्थापित कर भारत हिमालयी सीमा पर शांति एवं सौहार्द स्थापित कर सीमा संबंधी सवालों पर बीजिंग को और लचीला बना सकता है। चीन का नया भूमि सीमा कानून यही संकेत करता है कि भारत मुगालते से बाहर निकलकर और सतर्क हो जाए।
(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)