पीएम मोदी के बयान से गोवा की मुक्ति संग्राम पर फिर छिड़ी बहस
यह हैरान करता है कि गांधीजी के समर्थन के बाद भी दिग्गज कांग्रेसियों ने गोवा की आजादी का मुद्दा नहीं उठाया। आखिरकार जनता के दबाव में 1961 में भारत सरकार द्वारा की गई सैन्य कार्रवाई के बाद गोवा को चार सौ अधिक वर्षो की गुलामी से मुक्ति मिली।
केसी त्यागी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से गोवा की आजादी में विलंब की चर्चा से गोवा मुक्ति आंदोलन चर्चा के केंद्र में आ गया है। भारतीय सेना ने 1961 में 19 दिसंबर को गोवा को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया था। इसी कारण इस तिथि को गोवा मुक्ति दिवस के रूप में मनाते हैं। प्रधानमंत्री की ओर से गोवा की मुक्ति में देरी का उल्लेख किए जाने से न केवल यह मसला इस राज्य में चुनावी मुद्दा बन गया, बल्कि इसे लेकर लोगों की जिज्ञासा भी बढ़ गई कि आखिर गोवा की आजादी में इतनी देर क्यों हुई? अब जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है तब इस सवाल की तह तक जाना आवश्यक है।
प्रधानमंत्री ने नेहरूजी के उस भाषण का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘कोई धोखे में न रहे कि हम वहां फौजी कार्रवाई करेंगे। जो लोग वहां जा रहे हैं उन्हें वहां जाना मुबारक।’ नेहरूजी का इशारा समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की ओर था, जो 1946 से ही गोवा मुक्ति संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे।
लाहौर जेल से रिहाई के बाद लोहिया अपने सहपाठी मित्र मेंजिस के निमंत्रण पर जून 1946 को पणजी स्थित उनके निवास पर पहुंचे। चूंकि समाजवादी विचारों को लेकर अपनी प्रखरता के कारण वह अपनी अलग पहचान बना चुके थे, इसलिए उनके गोवा आगमन का समाचार मिलते ही उनसे मिलने-जुलने वालों का तांता लगने लगा। 18 जून 1946 को लोहिया की जनसभा का एलान हो गया और इसी के साथ गोमांतक में नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हो गई। जब उनके सभास्थल पर स्वतंत्रता प्रेमियों का हुजूम इकट्ठा हो गया तो पुलिस द्वारा लोहिया और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे उत्तेजित जनता ने पुलिस स्टेशन घेर लिया। जनता के दबाव के चलते उन्हें रिहा कर दिया गया और गोवा में भी आजादी के नारे गूंजने लगे। इस प्रकार गोवा में सत्याग्रह का आरंभ लोहियाजी के नेतृत्व में संपन्न हुआ।
इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि जुलाई 1497 में यूरोपीय उपनिवेशवाद की पहली चौकी केरल में स्थापित हुई। यह वह दौर था, जब भारत की समृद्धि की ख्याति देश-देशांतर तक फैली हुई थी। भारत यूरोपीय देशों के व्यापारियों को ललचा रहा था। पुर्तगालियों के लिए भारत का आकर्षण और भी गहरा था। पुर्तगाली 1510 में गोवा समेत दादर, नगर हवेली और दमन दीव पर भी अपना शासन स्थापित करने में कामयाब हो गए। पुर्तगाली दमन और शोषण के विरुद्ध छिटपुट आवाजें उठती रहीं, लेकिन शासक वर्ग उसे बेरहमी से दबाता रहा। यह एक तथ्य है कि पुर्तगाल साम्राज्य के शोषण से कोंकण क्षेत्र को मुक्त कराने का प्रभावी प्रयास छत्रपति शिवाजी महाराज के नेतृत्व में भी हुआ, लेकिन उन्हें वांछित सफलता नहीं मिली।
गोवा को 1961 के अंत तक क्यों पराधीन रहना पड़ा? इसके कई कारण हैं, लेकिन एक बड़ा कारण पुर्तगाल की सत्ता पर क्रूर शासक सालाजार का काबिज होना रहा। यह वह दौर था जब यूरोपीय देशों में हिटलर, मुसोलिनी, सालाजार आदि आंतरिक लोकतंत्र समाप्त कर तानाशाह बने हुए थे। दूसरा बड़ा कारण गोवा की मुक्ति में भारतीय सेना का इस्तेमाल न करने की भारत सरकार की हिचक रही।
दिसंबर 1961 तक नेहरूजी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के चलते गोवा के स्वाधीनता संग्राम प्रेमियों से दूरी बनाए रहे। यद्यपि गोवा में स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1928 में ही कांग्रेस पार्टी का गठन हो चुका था। गोवा कांग्रेस कमेटी कई वषों तक बंबई कांग्रेस कमेटी के साथ संबंद्ध रही, लेकिन 1935 के गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट के मुताबिक किए गए संवैधानिक सुधारों के फलस्वरूप कांग्रेस ने ब्रिटिश इंडिया के अलावा अपनी सभी शाखाओं से संबंध तोड़ लिया। इससे गोवा के राष्ट्रवादियों का मनोबल टूटा, लेकिन 18 जून 1946 में सार्वजनिक सभा में लोहिया की गिरफ्तारी ने भूचाल ला दिया। महात्मा गांधी ने 26 जून 1946 को दिल्ली में अपनी प्रार्थना सभा में लोहिया की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त की तो गोवा में आजादी की बयार फिर तेजी से बहने लगी।
गांधीजी के समर्थन बाद भी कांग्रेस के बड़े नेताओं को गोवा की आजादी का सवाल उठाना पसंद नहीं आया। 10 जुलाई 1946 को नेहरूजी के इस बयान ने उत्तेजना पैदा कर दी कि इस समय जब कांग्रेस हिंदुस्तान की आजादी के मोर्चे पर अपनी सारी शक्ति केंद्रित किए हुए है, तब हमें छोटी लड़ाइयों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। गोवा मुक्ति आंदोलन में शामिल सत्याग्रहियों को नेहरूजी की यह बात बुरी लगी। उनसे कुपित होकर समाजवादियों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया।
सितंबर 1946 तक भारत में अंतरिम सरकार बन चुकी थी। गोवा और शेष भारत की जनता को यह आशा थी कि अंतरिम सरकार अब गोवा के मामले पर कुछ कदम उठाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। गोवा की आजादी के मामले में अंतरिम सरकार की उदासीनता पर यह कहा जाने लगा कि अगर भारत यूरोप के सबसे कमजोर देश पुर्तगाल तक के विरुद्ध भी आवाज नहीं उठा सकता तो उससे विश्व सम्मेलनों में जनंतत्र की शक्ति के रूप में काम करने की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। गांधीजी चाहते थे कि नेहरूजी लोहिया की गिरफ्तारी केविरुद्ध पुर्तगाली सरकार पर दबाव बनाएं, लेकिन उनके निर्देशों की अवहेलना होती रही। इसके बाद भी गोवा का मुक्ति संग्राम जारी रहा। 1955 में जब फ्रांसीसी पुडुचेरी छोड़कर चले गए तो गोवा की आजादी की लड़ाई और तेज हो गई।
(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)