राजीव सचान। अपने देश में विभाजनकारी राजनीति नई नहीं है। हम भारतीय तो इसे विस्मृत कर ही नहीं सकते कि किस तरह इसी राजनीति ने भारत का विभाजन कराया। तब केवल हिंदुओं और मुसलमानों को दो अलग-अलग कौम यानी राष्ट्र ही नहीं बताया गया था, बल्कि हिंदू और उर्दू में भी भेद पैदा कर यह साबित करने की कुचेष्टा की गई थी कि उर्दू मुसलमानों की और हिंदी हिंदुओं की भाषा है।

ऐसी ही विभाजनकारी राजनीति नए सिरे से सिर उठाती दिख रही है। यदि कोई यह कहे कि भारत में अन्य भारतीय भाषा भाषियों पर हिंदी को न केवल थोपा जा रहा है, बल्कि तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि बोलने वालों से यह भी कहा जा रहा है कि उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनका खानपान कमतर है तो यह हर दृष्टि से एक विभाजनकारी और वैमनस्य पैदा करने वाला बयान है।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का काम पहले भी किया गया है, लेकिन यह पहली बार सुनने को मिल रहा है कि अन्य भारतीय भाषा भाषियों से कहा जा रहा है कि उनकी भाषा के साथ उनकी संस्कृति और उनका खानपान भी कमतर है। कहना कठिन है कि राहुल गांधी के पहले भाषा को लेकर इतनी बेतुकी और भड़काऊ बात किसने कही थी।

अपने हालिया अमेरिका दौरे के दौरान वह केवल यहीं तक सीमित नहीं रहे। वहां उन्होंने यह भी समझाने की कोशिश की कि भारत में सिखों के सामने कड़ा, पगड़ी धारण करने और गुरुद्वारे जाने का संकट खड़ा हो सकता है। इसका विरोध हुआ तो उन्होंने पंजाब कांग्रेस के नेताओं प्रताप सिंह बाजवा और चरणजीत सिंह चन्नी को अपने कहे को सही ठहराने के लिए मैदान में उतार दिया।

इस दौरान प्रताप सिंह बाजवा यह बोले कि केंद्र सरकार ने पंजाब की आर्थिक नाकाबंदी कर रखी है और चन्नी ने यह समझाया कि मोदी सरकार पंजाब की खेती को नष्ट करना चाहती है। ऐसे बयान खालिस्तान समर्थकों के मन की मुराद पूरी करने वाले ही हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं कि खालिस्तानी आतंकी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने राहुल गांधी के बयान से सहमति जताई। इसके बाद भी पिछले दिनों राहुल की ओर से यही कहा गया कि उन्होंने अमेरिका में सिखों को लेकर जो कुछ कहा था, उस पर वह कायम हैं।

इसके पहले जब वह जून 2023 में अमेरिका गए थे, तब उन्होंने कहा था कि भारत में अल्पसंख्यकों और एससी-एसटी समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। तब वह कांग्रेस के सांसद भर थे। अब नेता प्रतिपक्ष भी हैं। राहुल गांधी पिछले कुछ समय से जाति गणना पर भी जोर देने में लगे हुए हैं।

कांग्रेस के साथ अन्य अनेक दल भी जाति गणना की मांग कर रहे हैं और अब तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी यह कह दिया है कि जाति गणना होती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं। पता नहीं कि जनगणना के साथ जाति गणना होगी या नहीं, लेकिन यदि कोई यह समझा रहा है कि इससे देश की सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा तो ऐसा होने वाला नहीं।

इसके बाद भी यदि कोई ऐसा ही मानकर चलता है तो उसे ऐसा मानने से रोका नहीं जा सकता, लेकिन जाति गणना की मांग करते हुए यह माहौल बनाना शुद्ध विभाजनकारी राजनीति है कि दलित छात्र इसलिए फेल हो जाते हैं, क्योंकि ऊंची जाति के लोग प्रश्नपत्र तैयार करते हैं।

अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने यह कहानी सुनाई थी कि अमेरिका में आइआइटी जैसी एक परीक्षा में अश्वेत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि प्रश्नपत्र श्वेत लोग बनाते थे। फिर एक बार अश्वेतों ने प्रश्नपत्र बनाया तो सारे गोरे फेल हो गए। यह काल्पनिक कहानी सुनाने के बाद उनका कहना था, ‘अगर आइआइटी में अपरकास्ट लोगों के बनाए प्रश्नपत्र के कारण दलित छात्र फेल हो रहे हैं तो एक बार दलितों से प्रश्नपत्र बनवा कर देखें।’

भारत में जाति के सहारे जातीय वैमनस्य फैलाने की राजनीति पहले भी होती रही है। अनेक दल ऐसे हैं, जो जाति आधारित राजनीति करने के लिए ही जाने जाते हैं। जाति की यह राजनीति अब ऐसे दौर में पहुंचती दिख रही है कि हर किसी की जाति खोजी जा रही है और यहां तक कि अपराधियों की जाति का उल्लेख कर यह माहौल बनाया जा रहा है कि उनके साथ अन्याय किया जा रहा है। यह माहौल कुछ इस तरह बनाया जा रहा है कि विभिन्न जातियों के बीच वैमनस्य पैदा होने का खतरा उभरने लगा है।

जातिवादी राजनीति के चलते सोशल नेटवर्क साइट्स पर ऐसे हैंडल लगातार बढ़ रहे हैं, जो दूसरी जाति वालों को निशाना बनाते हैं, उन पर छींटाकशी करते हैं और उन्हें नीचा दिखाते हैं। हाल के समय में इसका सिलसिला महिला पहलवानों के धरना-प्रदर्शन के समय शुरू हुआ था। लोकसभा चुनाव के समय इसने अन्य जातियों को भी अपनी चपेट में ले लिया।

लोकसभा चुनाव खत्म हो गए, लेकिन यह सिलसिला थमने के बजाय और तेज होता दिख रहा है। अब इसमें एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण के समर्थक और विरोधी भी शामिल हो गए हैं। खतरा इसका है कि जातीय बैर भाव कहीं इंटरनेट की दुनिया से निकलकर जमीन पर न उतर आए। जातियां भारतीय राजनीति की एक सच्चाई हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाए और उनके बीच वैमनस्य पैदा किया जाए।

ऐसा लगता है कि भारतीय समाज की पुरानी विभाजक रेखाओं को कुरेदने के साथ नई विभाजनकारी रेखाएं खींची जा रही हैं। विडंबना यह है कि जो विपक्षी दल भाजपा पर विभाजनकारी राजनीति करने का आरोप लगाते हैं, वे खुद ऐसी ही राजनीति न केवल खुलकर कर रहे हैं, बल्कि उसकी धार तेज भी कर रहे हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)