डॉ. ऋषि गुप्ता। गलवन घाटी में वर्ष 2020 में भारतीय-चीनी सैनिकों के बीच सीमा विवाद को लेकर हिंसक झड़प हुई थी। तभी से दोनों पक्ष सैन्य वार्ता के माध्यम से इसको सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। हाल में इसमें थोड़ी प्रगति दिखी। भारतीय और चीनी सेना के आए सकारात्मक बयानों से सीमा पर शांति की उम्मीद जगी है।

पिछले चार वर्षों में दोनों देशों की सेनाएं कई बार आमने-सामने आई हैं जिसके परिणामस्वरूप वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ा। हालांकि इस तनाव की शुरुआत चीन ने की, लेकिन वह भारत को जिम्मेदार ठहराता है। यह उसका पुराना पैंतरा है। चीन ने 1988 के बाद से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति बनाए रखने सहित कई सीमा समझौतों का लगातार उल्लंघन किया है और यदि भारत ने प्रतिक्रिया दी है, तो यह अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए किया है।

बीते दिनों रूस में ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक के मौके पर भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की। बाद में भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने बताया कि सीमाई क्षेत्रों में शांति और सौहार्द तथा वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान द्विपक्षीय संबंधों में सामान्य स्थिति के लिए आवश्यक है और दोनों पक्षों को दोनों सरकारों द्वारा अतीत में किए गए प्रासंगिक द्विपक्षीय समझौतों, प्रोटोकाल और सहमतियों का पूरी तरह से पालन करना चाहिए।

इस संदर्भ में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर का हाल में आया एक वक्तव्य भी काफी महत्वपूर्ण है जिसमें उन्होंने कहा कि चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सीमा संबंधी विवाद के लगभग 75 प्रतिशत हिस्से का समाधान किया जा चुका है। इस बात की पुष्टि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी की, लेकिन क्या ये संकेत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जून 2020 के पहले की यथास्थिति बहाल होने का संकेत देते हैं?

इसका उत्तर नकारात्मक होगा, क्योंकि यदि सही मायनों में देखा जाए तो सीमा विवाद में अब तक किसी तरह का कोई खास सुधार नहीं हुआ है। देपसांग और डेमचोक सीमा विवाद के दो प्रमुख बिंदु हैं, जो अभी भी हल नहीं हुए हैं। फिर नया क्या हुआ है? दरअसल नई बात यह हुई है कि दोनों पक्ष पहली बार कूटनीतिक माध्यम से काम करने तथा सीमा पर विवाद वाले क्षेत्रों में सेना की पूर्ण वापसी के लिए अपने प्रयासों को दोगुना करने पर सहमत हुए हैं।

साथ ही चीन अब इस बात को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार कर रहा है कि सीमा विवाद के बाद से भारत ने जिस तरह की नीतियां अपनाई हैं वह कारगर साबित हुई हैं। हाल में चीन के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में एस. जयशंकर की आलोचना करते हुए लिखा गया था कि उन्होंने अपनी चीन नीति में जिन कूटनीतिक रणनीतियों को अपनाया वे तिकड़मों से भरी थीं।

उनमें न तो जवाहरलाल नेहरू और न ही इंदिरा गांधी की कूटनीति का नैतिक बोध था। भले ही बाद में उसने इस आलेख को हटा दिया, लेकिन यह इस बात का साफ संकेत है कि चीन नेहरू और इंदिरा की चीन नीतियों के साथ सहज था, क्योंकि उस दौर में चीन एक मजबूत स्थिति में रहा, जो चीन को अब मुश्किल लग रहा है।

भारत आज अमेरिका, रूस, चीन के बाद विश्व की चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। यही चीन को रास नहीं आ रहा। नीतिगत पटल पर भी भारत की कई पहल चीन को हतप्रभ कर रही हैं। चीन के साथ अपने गहरे व्यापारिक संबंधों के बावजूद भारत अमेरिका जैसे देशों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करके चीन पर अपनी निर्भरता को कम करने में सक्षम रहा है, खासकर सेमीकंडक्टर और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में।

भारत चीनी निवेश पर अपनी उच्च निर्भरता को कम करने के साथ नए निवेशक देशों से जुड़ा है। चीन स्थानीय निवेशकों से भारत में निवेश किए जाने को लेकर भी काफी दबाव में है। यदि चीन इस मुद्दे का समाधान नहीं कर पाया तो इसका असर उसकी आंतरिक राजनीति और आर्थिकी पर होगा।

भारत का समान विचारधारा वाले देशों के साथ गठबंधन बनाने का विकल्प भी मजबूत परिणाम देने में सफल रहा है। क्वाड में अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया शामिल हैं। यह संगठन चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ प्रभावी है। हालांकि भारत केवल क्वाड जैसे मंचों पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि वह विविध भागीदारों के साथ द्विपक्षीय रूप से जुड़कर भी अपनी क्षमताओं का निर्माण कर रहा है।

पदभार संभालने के पहले सौ दिनों से भी कम समय में मोदी प्रशासन ने पूर्वी एशियाई देशों मुख्य रूप से चीन के साथ विवाद का सामना करने वाले देशों जैसे-फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और सिंगापुर के साथ संपर्क स्थापित किया है। इन देशों के साथ व्यापार और रक्षा क्षेत्र में साझेदारियों के साथ भारत आसियान समूह की मजबूती पर भी जोर दे रहा है, जो इन संबंधों को और अधिक समावेशी बनाता है।

यह द्विपक्षीय जुड़ाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में अगर डोनाल्ड ट्रंप की वापसी होती है तो मुमकिन है कि वह क्वाड जैसे मंच को इतनी प्राथमिकता न दें। ऐसे में आसियान समूह भारत के हिंद-प्रशांत में जुड़ाव को मजबूत रखेगा।

जाहिर है भारत ने अपनी कूटनीति और सैन्य क्षमता से चीन को हर मोर्चे पर मजबूती से जवाब देने में सफलता हासिल की है, लेकिन इतने भर से यह मान लेना कि चीन सीमा क्षेत्र में अपनी सैन्य ताकत का और अधिक प्रदर्शन नहीं करने के साथ ही रातोरात सीमा क्षेत्रों में नए गांव बनाकर क्षेत्रीय दावे नहीं करेगा तो यह एक भूल होगी। भारत को चीन की तरफ से किसी भी अप्रत्याशित चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

(लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली के सहायक निदेशक हैं)