जागरण संपादकीय: राहुल की आत्मघाती आक्रामकता, तर्कसंगत विचार और भाषा पर देना होगा ध्यान
विरोध की राजनीति विपक्षी दल का एक नैसर्गिक अधिकार है लेकिन नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी को समझना होगा कि मोदी-विरोध का केवल आंतरिक ही नहीं वरन बाह्य पहलू भी है। चीन पाकिस्तान और अनेक देश भारत के शत्रु हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहभागी-जन अपने देश को ही आगे रखते हैं। चाहे अपनी सरकार से उनके कैसे भी संबंध हों लेकिन राहुल गैर-जिम्मेदाराना ढंग से अपने देश को नीचा दिखाते फिरते हैं।
डॉ. एके वर्मा। लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी हाल की अमेरिका यात्रा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा सरकार के खिलाफ काफी आक्रामक रहे। इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनावों में ‘चौकीदार चोर है’ और 2024 में ‘अदाणी-अंबानी’ के सहारे उन्होंने मोदी को उद्यमियों का हितैषी और गरीब विरोधी बताने की नाकाम कोशिश की।
इसी वर्ष एक जुलाई को उन्होंने लोकसभा में कहा, ‘..और जो लोग अपने आप को हिंदू कहते हैं, वे 24 घंटे हिंसा-हिंसा, नफरत-नफरत, असत्य-असत्य करते हैं..।’ अमेरिका में उन्होंने कहा कि भारत में सिख समुदाय को कड़ा, पगड़ी पहनने और गुरुद्वारा जाने की स्वतंत्रता नहीं है। यह तथ्यहीन और अनर्गल आरोप समाज तोड़ने की कुटिल और निंदनीय साजिश है। विडंबना यह है कि वह अमेरिका में सिखों के मामले में दिए गए अपना बयान पर कायम रहना चाहते हैं।
वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब सिखों का कांग्रेस प्रायोजित कत्लेआम हुआ, तब जरूर सिख समुदाय में असुरक्षा की भावना रही, लेकिन अब वह इतिहास की बात है। राहुल गांधी कुछ भी बोल देते हैं और लोग पप्पू’ कहकर उनकी उपेक्षा कर देते हैं। राहुल की मंडली उनकी छवि बदलने के प्रयास में भी लगी है।
इसी सिलसिले में लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने दो राजनीतिक यात्राएं कीं, जिसका उन्हें लाभ भी मिला। इस चुनाव में कांग्रेस ने 97 सीटें और 21.19 प्रतिशत वोट प्राप्त किए जो, 2019 में प्राप्त हुए करीब 19 प्रतिशत मत और 45 सीटों की तुलना में कहीं अधिक था। चुनाव में राहुल ने लोगों को डराया कि भाजपा आरक्षण खत्म कर देगी और अब स्वयं अमेरिका जाकर बोल रहे कि हम ‘आरक्षण खत्म करेंगे’, जिस पर बाद में लीपापोती का प्रयास भी किया गया।
राहुल के इस बयान पर चिराग पासवान और मायावती के अलावा भाजपा ने कड़ी आपत्ति दर्ज की। विदेश में भारत की छवि खराब करने वाले नेता जैसी छवि राहुल की बन गई है, जिसका फायदा शत्रु देश और विदेशी ताकतें उठाने को व्याकुल बैठी हैं। राहुल को लगता है कि वे सही जा रहे हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव ही नहीं, वरन 2029 का लोकसभा चुनाव भी है।
हालांकि राहुल की इस राह में तीन अवरोध हैं। पहला, भाजपा और मोदी, दूसरा आइएनडीआइए के घटक दल और तीसरा स्वयं कांग्रेस। इनमें सबसे बड़ा अवरोध कांग्रेस के मोर्चे पर ही है, क्योंकि कई ऐसे नेता हैं, जो कांग्रेस को राहुल से बेहतर नेतृत्व दे सकते हैं, लेकिन नेहरू-गांधी परिवार ने पार्टी पर ऐसा शिकंजा कसा हुआ है कि शीर्ष पद पर कोई भी हो, असल नेतृत्व परिवार का होता है।
दूसरा अवरोध आइएनडीआइए के घटक दल हैं, जिनके नेता समय आने पर कड़ी चुनौती दे सकते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस अपने बलबूते चुनाव लड़ नहीं सकती। यदि कांग्रेस को सहयोगी दलों की बैसाखी चाहिए, तो उसे सीटों का बंटवारा करना पड़ेगा। जिस घटक दल की ज्यादा सीटें आएंगी, वह कांग्रेस से सौदेबाजी करेगा।
केंद्र में गैर-भाजपा सरकार बनने की स्थिति में यदि कांग्रेस राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करेगी तो उसे घटक दलों का बंधक बनना पड़ेगा। इतना ही नहीं, कांग्रेस को घटक दलों से ऐसा समझौता भी करना पड़ेगा कि यदि उसे 2029 के लोकसभा चुनावों में ज्यादा सीटें चाहिए तो विधानसभा चुनावों में घटक दलों के लिए वह बड़ा हिस्सा छोड़ दे।
आगामी विधानसभा चुनावों में यह देखना रुचिकर होगा कि कांग्रेस क्या रणनीति अपनाती है, लेकिन इतना निश्चित है कि राहुल को प्रधानमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस कोई कसर नहीं छोड़ेगी।
राहुल गांधी को सबसे मजबूत चुनौती मोदी और भाजपा से मिलेगी। मोदी-विरोधी आक्रामकता से राहुल को लोकसभा में अधिक सांसद, मत और प्रतिष्ठा तो मिली है। यह कहा जा सकता है कि राहुल की आक्रामकता रंग ला रही है, लेकिन रंग लाने और सत्ता पाने में फर्क है। राहुल को समझना होगा कि भारत का जनमानस शिष्ट आचरण, तर्कसंगत विचार तथा शालीन भाषा पसंद करता है।
उन्हें कुछ पूर्व प्रधानमंत्रियों के भाषण सुनने चाहिए, जिससे एक नेता के रूप में निखरने के लिए वह वांछित रवैया अपना सकें। अभी तक के उनके व्यवहार में लड़कपन की झलक मिलती है, धीर-गंभीर राजनीतिज्ञ की नहीं। नेतृत्व की लड़ाई में व्यक्तिगत छवि का बहुत महत्व होता है। उनकी स्पर्धा मोदी से है।
यदि उन्हें राजनीति की जरा भी समझ है तो पता होगा कि देश-विदेश में मोदी की छवि बहुत अच्छी है। क्या आक्रामक, असंयत, अशिष्ट भाषा और बचकाना व्यवहार राष्ट्रीय स्तर पर राहुल को गंभीर और परिपक्व नेता बनने देगा? अभी तक किसी नीतिगत मुद्दे पर उन्हें गंभीर होते या तर्क करते नहीं देखा गया।
एकाध अवसर पर आक्रामक हुआ जा सकता है, लेकिन साख तो गंभीर विचार और ठोस तर्क से ही बनती है। ऐसा न हो कि आक्रामकता के सहारे ‘पप्पू छवि’ से निकलने के प्रयास में उनकी छवि ‘नोटोरियस पप्पू’ की बने, जिससे उनको एवं कांग्रेस को फायदे के बजाय नुकसान हो जाए?
विरोध की राजनीति विपक्षी दल का एक नैसर्गिक अधिकार है, लेकिन नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी को समझना होगा कि मोदी-विरोध का केवल आंतरिक ही नहीं, वरन बाह्य पहलू भी है। चीन, पाकिस्तान और अनेक देश भारत के शत्रु हैं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहभागी-जन अपने देश को ही आगे रखते हैं।
चाहे अपनी सरकार से उनके कैसे भी संबंध हों, लेकिन राहुल गैर-जिम्मेदाराना ढंग से अपने ही देश को नीचा दिखाते फिरते हैं। आज भारत की छवि सफल लोकतंत्र और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में बनी है तो विदेशी धरती पर यह कहना कहां तक उचित है कि भारत में लोकतंत्र खत्म हो गया है, सरकार संविधान पर हमला कर रही है, मोदी सबको डराते हैं, सरकार उनके विचारों को दबाने का प्रयास कर रही है।
सरकार ने संवाद के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं इसलिए उनको यात्रा द्वारा जनता से सीधे संवाद करना पड़ा कि उनकी वजह से सबका डर खत्म हो गया है और भारत में उन्होंने ही सबसे पहली बार ‘प्यार का विचार’ प्रस्तुत किया है।... यह सब भ्रामक, तथ्यहीन और अनर्गल होने के साथ ही आत्ममुग्धता से भरा है। यह भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कृति पर कुठाराघात जैसा है, जिसका फायदा उठाने के लिए अनेक राष्ट्र-विरोधी शक्तियां आतुर होंगी।
(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)