अर्चना चतुर्वेदी। हमारे देश के लोगों के पास कामन सेंस और सिविक सेंस की कोई कमी नहीं है। कामन सेंस तो चलो इतना कामन नहीं, पर सिविक सेंस अर्थात सामाजिक व्यवहार या समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव तो इतना कूट-कूटकर भरा है कि जब हम बाजार निकलते हैं तो जिस दुकान से समान लेना होता है, ठीक उसके सामने ही अपनी गाड़ी लगाकर चल देते हैं। ऐसा करने वाले यह मानते हैं कि यह सोचना उनका काम नहीं है कि उनकी गाड़ी की वजह से पूरी सड़क पर जाम लग सकता है।

सड़क पर तेज ड्राइविंग हो या रांग साइड गाड़ी घुसाने का कार्य, हम बखूबी करते हैं। इससे किसी दूसरे की जान खतरे में पड़े या खुद की, इतना सब सोचेंगे तो ड्राइविंग कैसे करेंगे। हम तो अर्जुन हैं, जिसकी नजर सिर्फ लक्ष्य भेदने पर ही होती है। अब हम उस देश के वासी हैं, जहां पैदल यात्रियों के बारे में सोचने का रिवाज ही नहीं। यदि पैदल पार पथ बना भी है या कोई रास्ता गलती से बन गया तो बाइक तो है ही घुसाने को। इससे भी काम न चला तो पूरी रेहड़ी लगा दी जाएगी।

हम तो ऐसे महारथी हैं कि अपने आसपास के लोगों के बारे में भी नहीं सोचते। लिफ्ट हो या ट्रेन, हम पूरे जोश से बाहर निकलने वाले को अंदर धकेलते हुए घुसते हैं। अपनी बालकनी में टपकते पानी वाले कपड़े सुखाएं या बालकनी के बाहर सूर्य को जल दें हमारी मर्जी। नीचे किसी का सिर है या कुछ और, इससे हमें कोई मतलब नहीं। हम कहीं भी थूक सकते हैं। सरकारी प्रापर्टी चुराना या उसे नुकसान पहुंचाना हम अपना हर समझते हैं। इस हक के आगे देश और समाज के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी है, इससे हम मतलब नहीं रखते। अपने बाग को सुंदर बनाए रखने के लिए हम इतनी मेहनत करते हैं कि सुबह होने से पहले उठकर दूसरों के बाग से फूल लाकर अपने भगवान पर चढ़ाते हैं।

दुनिया पानी की किल्लत का रोना रोए या कोई कितना कहे पानी बचाओ, इससे हमारी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। हम तो वे लोग हैं, जो पाइप लगाकर पीने के पानी से अपनी गाड़ी और स्कूटर की दिल खोलकर धुलाई करते हैं। टंकी ओवरफ्लो करती रहे तो भी हमें दर्द नहीं होता, बाकी बाद में सरकार तो है ही कोसने को। अपने शहर की हवा-पानी बर्बाद कर हम गाड़ी उठाकर निकल पड़ते हैं पहाड़ों और दूसरे शहरों की ओर भीड़ लगाने, क्योंकि हम जिम्मेदार नागरिक जो हैं। गाड़ी की खिड़की से चिप्स के पैकेट और पानी की बोतलें उछालते हुए हम सरकार को कोसना नहीं भूलते कि 'सरकार कुछ नहीं करती। बताओ यहां भी कितनी गंदगी और भीड़ है।

'स्वच्छ भारत अभियान के जमाने में हम अपने घर का कचरा बाहर कहीं पर भी फेंकने को अपना परम कर्तव्य मानते हैं। हम इतने सब पर ही नहीं रुकते, बल्कि मेट्रो में बैठकर फुल आवाज में वीडियो देखते हैं, कहीं भी गाड़ी खड़ी करके तेज गाने सुनते हैं और अपने घर की पार्टी का तेज संगीत पूरे मुहल्ले को सुनाकर उसकी नींद हराम करने की ताकत रखते हैं। कोई टोके तो लड़ने के लिए तो तैयार रहते हैं, पर अपनी खुशी के साथ समझौता कतई नहीं करते। हमारी समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना तो कोविड महामारी के समय भी कम न हुई, जब हमने दूसरों के बजाय खुद का सोचा और राशन ऐसे खरीदा मानो पूरी जिंदगी का इंतजाम कर रहे थे।

दरअसल, हमारे देश के औसत नागरिक एक ही मंत्र जानते हैं, 'अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता।' इसलिए हम शार्टकट निकालते हैं और हर छोटे काम के लिए कर्मचारियों की मुट्ठी सिर्फ इसलिए गर्म करते हैं कि हमारे तन-मन को कोई कष्ट न उठाना पड़े। यह बात और है कि बाद में हम भ्रष्टाचार को कोसते हैं, नेताओं को गालियां देते हुए कहते हैं कि 'इस देश में सब भ्रष्ट हैं। यहां कुछ नहीं हो सकता भाई। मैं तो विदेश शिफ्ट होने का सोच रहा हूं।' सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए प्रदूषण को कोसते हैं, 'यार बहुत खराब हवा है यहां की। अब इंसानों के रहने लायक नहीं है।' आखिर हम जिम्मेदार नागरिक जो ठहरे।