बहुलतावादी दर्शन की अनदेखी, परंपराओं का पालन सेक्युलर मूल्यों का अपमान नहीं
अंग्रेजों द्वारा भारत को सत्ता हस्तांतरण न केवल राजनीतिक और कानूनी रूप से हुआ था अपितु उसे वैदिक रीतियों से भी संपन्न कराया गया था। पं. नेहरू ने राजकाज उसी वैदिक अनुष्ठान और श्रद्धा के साथ संभाला था जिसका निर्वहन सदियों से अनेक हिंदू शासक अपने राज्याभिषेक में करते रहे।
बलबीर पुंज : निर्माणाधीन नए संसद भवन के शीर्ष पर बीते दिनों राष्ट्रीय प्रतीक 'अशोक स्तंभ' को स्थापित किया गया। इस कार्यक्रम पर स्वयंभू सेक्युलर, वामपंथियों और उदारवादियों ने आपत्ति व्यक्त की। विमर्श बनाया गया कि इस स्तंभ के सिंहों की मुद्रा-भाव सारनाथ में रखी मूल कृति से भिन्न है। असल में यह उत्कंठा शेरों के हाव-भाव को लेकर ही नहीं, अपितु प्रधानमंत्री मोदी द्वारा वैदिक रीतियों के अनुरूप पूजा करने के कारण भी है। ऐसी आपत्ति बौद्धिक कपट का उदाहरण है। क्या भारत में सेक्युलरवाद का अर्थ यही है कि व्यवस्था 'धर्म' विहीन हो जाए? धर्म और मजहब (रिलीजन) दोनों अलग संज्ञा हैं।
वैदिक संस्कृति संकीर्ण नहीं, अपितु समस्त ब्रह्मंड के कल्याण की भावना समेटे हुए है। ऐसे में इसे मजहबी चश्मे से देखना गलत है। इसमें शांति, एकता और भाईचारे का भाव निहित है। यदि प्रधानमंत्री मोदी ने नए संसद भवन में राष्ट्रीय प्रतीक के अनावरण पर वैदिक अनुष्ठान किया, तो उन्होंने उसी सनातन परंपरा को आगे बढ़ाया, जिसे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्थापित किया था। अधिकांश पाठकों को 14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में नेहरू का प्रसिद्ध भाषण 'ट्रस्ट विद डेस्टिनी' का स्मरण तो होगा, किंतु उससे पहले के घटनाक्रम से कुछ ही लोग परिचित होंगे।
अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र भारत को सत्ता हस्तांतरण न केवल राजनीतिक और कानूनी रूप से हुआ था, अपितु उसे वैदिक रीतियों से भी संपन्न कराया गया था। पं. नेहरू ने राजकाज उसी वैदिक अनुष्ठान और श्रद्धा के साथ संभाला था, जिसका निर्वहन सदियों से अनेक हिंदू शासक अपने 'राज्याभिषेक' के दौरान करते रहे। इस अविस्मरणीय घटना का उल्लेख दक्षिण भारत की कुछ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं, 'टाइम' पत्रिका और लैरी कालिंस-डामिनिक लैपियर की पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाइट' में है। इससे संबंधित विवरण के अनुसार, 'जब माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा कि भारत को किस अनुष्ठान से स्वतंत्रता दी जाए, तब नेहरू ने सी. राजागोपालाचारी यानी राजा जी से परामर्श लिया और उन्होंने तमिलनाडु स्थित हिंदू मठ 'तिरुवदुथुराई अधीनम' (मठ के संन्यासी मुखिया) से पारंपरिक कर्मकांड हेतु संपर्क किया। तब मठ द्वारा स्वर्ण मंडित पांच फीट लंबा और दो इंच मोटा 'राजदंड' तैयार किया गया।
राजदंड धर्म और शक्ति दोनों का प्रतीक होता है। भारत सरकार द्वारा विशेष विमान से उस राजदंड को दो विशेष मुनियों के साथ दिल्ली लाया गया। 14 अगस्त को दोनों पुजारी अपने अन्य अनुचरों के साथ वैदिक मंत्रोच्चारण और अनुष्ठानिक वाद्ययंत्र 'नादस्वरम' से सुशोभित अन्य देशज परंपराओं का निर्वहन करते हुए नेहरू के निवास पर पहुंचे। तब पुजारियों के पास एक बड़ी चांदी की थाली थी, जिसमें भगवान को समर्पित वस्त्र पीतांबरम रखा हुआ था। पहले राजदंड माउंटबेटन को दिया गया। फिर उनसे लेकर उसे पवित्र गंगाजल से पवित्र करके वैदिक छंदों के साथ पं. नेहरू को पीतांबरम ओढ़ाकर सौंप दिया गया। इस दौरान एक पुजारी ने तंजौर से लाए पवित्र जल को नेहरू पर छिड़ककर उनके माथे पर तिलक लगाया। उन्हें भगवान शिव को अर्पित कुछ पके हुए चावल भी दिए। वह राजदंड आज भी प्रयागराज संग्रहालय में सुरक्षित है। उसी दौरान डा. राजेंद्र प्रसाद के आवास पर भी केले के पेड़ से बनाए गए अस्थायी लघु मंदिर में पवित्र अग्नि को प्रज्वलित किया गया। इसके बावजूद बौद्धिक धूर्तता देखिए कि इस प्रकरण को दशकों तक इसीलिए छिपाए रखा गया, ताकि विकृत सेक्युलर विमर्श को आगे बढ़ाया जा सके।
वायसराय हाउस, जो बाद में राष्ट्रपति भवन बना, वहां 1931 से ही छतों-दीवारों पर गीता के कई श्लोक स्वर्ण अक्षरों में अंकित हैं। भारतीय संविधान की मूल प्रतियां प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस द्वारा उकेरी गई वैदिक काल, रामायण, महाभारत, मोहनजोदड़ो, बुद्ध के उपदेश, महावीर के जीवन इत्यादि से विभूषित हैं। गांधीजी के स्मारक राजघाट पर 'हे राम' आज भी अंकित है। स्वतंत्र भारत में वैदिक अनुष्ठान के अनुरूप राजकीय कार्यक्रम का संचालन सेक्युलर मूल्यों का अपमान नहीं, अपितु समरस और मानवीय बहुलतावादी दर्शन का उद्घोष है। सदियों पहले जब पारसी, यहूदी और सीरियाई ईसाई अपने मूल स्थानों पर मजहबी प्रताड़ना का शिकार होकर भारत में शरण लेने आए, तब उनका न केवल स्थानीय हिंदू शासकों और समाज द्वारा स्वागत किया गया, बल्कि उन्हें उनकी पूजा-पद्धति का अनुसरण करने की स्वतंत्रता भी दी गई।
भारत में पैगंबर साहब के जीवनकाल में ही अरब के बाहर विश्व की पहली मस्जिद 'चेरामन जुमा मस्जिद' का निर्माण 629 में हिंदू राजा चेरामन पेरुमल भास्करा रवि वर्मा ने कोडुंगल्लूर में कराया। यह सब इसलिए संभव हुआ, क्योंकि समावेशी भारतीय वैदिक दर्शन न तो 'काफिर-कुफ्र' अवधारणा जैसा असहिष्णु है और न ही 'हीथन' मानसिकता एवं अनीश्वरवादी वामपंथ जैसा संकुचित। भारत यदि पंथनिरपेक्ष है तो संविधान के चलते नहीं, अपितु अपने हिंदू चरित्र और वैदिक परंपराओं के कारण। पिछली सदी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप के जिन क्षेत्रों में मजहबी 'एकेश्वरवाद' का कब्जा हुआ, वहां स्थानीय हिंदू-बौद्ध-सिख-जैन अनुयायी नगण्य हो गए और बहुलतावाद-लोकतंत्र रूपी जीवन मूल्यों का ह्रास हो गया। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कश्मीर के साथ शेष खंडित भारत के कई अन्य क्षेत्र इसके प्रमाण हैं।
भारत को पंथनिरपेक्षता का आईना दिखाने वाले लोग अक्सर पश्चिमी-ईसाई देशों का स्तुतिगान करते रहते हैं। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि वर्ष 1789 से एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने बाइबल पर हाथ रखकर शपथ ली है। ब्रिटेन में चर्च आफ इंग्लैंड के कुल 42 बिशप-आर्चबिशप में से 26 के लिए ब्रिटिश संसद के उच्च सदन हाउस आफ लाड्र्स में स्थान आरक्षित हैं। इतना ही नहीं शासकीय वरिष्ठता अनुक्रम में कैंटरबरी के आर्चबिशप ब्रिटिश प्रधानमंत्री से ऊपर हैं। इसके उलट भारत में यदि क्रूर इस्लामी शासन को छोड़ दें तो यहां धर्मनिष्ठ हिंदू राजा तो तमाम हुए, किंतु किसी ने भी अपनी निज आस्था को शासकीय व्यवस्था का अंग नहीं बनाया। एकमात्र अपवाद सम्राट अशोक थे। उन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध मत स्वीकार कर उसके प्रचार-प्रसार में राज्य के संसाधनों का उपयोग किया। बीते 75 वर्षों से उन्हीं का 'धम्म-स्तंभ' भारत के प्रतीक चिह्न के रूप में विद्यमान है।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)