[प्रो. अमिता तिवारी]। पिछले दिनों एक साहित्यिक महाकुंभ में गोता लगाने का अवसर मिला। जब कभी कोई साहित्यिक समागम होता है और मैं नहीं जा पाती तो खुद को कोसती हूं। यह पछतावा होता है कि मुझे ज्ञान कैसे मिलेगा, लेकिन जब कभी चली जाती हूं तो भी अपने आपको कोसती हूं कि मैं यहां क्यों आई? इस बार ऐसी कोई समस्या नहीं थी। आयोजन आनलाइन ही था। घर बैठे ही मुक्ति मिल रही थी। सो, मैंने भी ठान लिया कि इस बार महाकुंभ से ज्ञान की गठरी समेट लूंगी।

दूर-दूर से साहित्यिक मनीषी आए थे। बहुत दिनों पहले से ही उनके नाम के पोस्टर लगाए गए थे। उनके दर्शन से कृतार्थ होने को सब लालायित थे। मैंने भी समय पर महाकुंभ में उपस्थिति दर्ज कराई। इस साहित्यिक महाकुंभ में उन्हीं विद्वानों और मनीषियों को बुलाया गया था, जो आयोजकों से परिचित थे या उनके मित्र थे। विषय की विशेषज्ञता की कोई आवश्यकता नहीं थी। जिसको जो आता था उसको वही बोलना था।

महाकुंभ का प्रारंभ ढोल-नगाड़े के साथ हुआ। सरस्वती वंदना के गायन के लिए भी संचालक महोदय की मित्र को ही बुलाया गया था, जिनके सुर-ताल में कोई सामंजस्य होना आवश्यक नहीं था। जब सभी मनीषी जुटे थे तो चिंतन-मनन करके निष्कर्ष तो निकालना ही था तो सबने अपने-अपने दायित्व का निर्वाह बड़ी निष्ठा से किया। अनेक साहित्यिक विमर्शों के साथ ही नई शिक्षा नीति पर भी विचार-विमर्श किया गया। बड़े मंथन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि प्रत्येक कालेज में चाटुकारिता का विषय अवश्य पढ़ाया जाए। सबका एकमत से यही कहना था कि आज के इस दौर में चाटुकारिता के ज्ञान की नितांत आवश्यकता है।

यह सभी क्षेत्रों में काम आता है। जल्द ही मुझे पता चला कि आजकल साहित्यिक प्रतिभा से अधिक साठगांठ की प्रतिभा की आवश्यकता होती है। यदि आप अच्छे वक्ता हैं और आयोजकों से परिचित नहीं हैं तो आपकी प्रतिभा का कोई मूल्य नहीं है। यदि आप आयोजकों से परिचित हैं, उनके चरणों में नतमस्तक हो सकते हैं तो आप हर गोष्ठी का संचालन कर सकते हैं। यदि आप सम्मान दिलाने वाले गुट से जुड़े हैं या उनका शुल्क दे सकते हैं तो किसी भी राज्य से आपको सम्मान मिल सकता है। इसके लिए जरूरी काम करना आवश्यक नहीं है।

यही नहीं कई दिनों तक आपके नाम के पोस्टर फेसबुक और इंस्टाग्राम पर घूमते रहेंगे। इसके साथ मुझे यह भी पता चला कि साहित्यिक जगत में अनेक संप्रदाय हैं और गठबंधन के अनेक विभाग हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आपका गठबंधन किसके साथ और कितना मजबूत है। मंच पर एक दिव्य व्यक्तित्व वाले महात्मा विराजमान थे, पर उनके आसपास शिष्यों का जमावड़ा न के बराबर था। अधिकांश जिज्ञासु आयोजकों और संचालकों के आस-पास ही मंडरा रहे थे। शायद वे किसी गठबंधन से संबंधित नहीं थे।

बहुत सारे जिज्ञासु जो दूर-दूर से इस साहित्यिक महाकुंभ में गोता लगाकर मुक्ति की चाह में आए थे, उनकी प्रतिभा भी गजब की थी। 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात' उक्ति यहां चरितार्थ होती दिखाई दी। सुना है कि कुछ जिज्ञासु तो पहले दिन से ही संचालकों के सुर में सुर मिलाकर उनका अभिनंदन करने लगे थे। आदर से पैर पखारने लगे थे। कहते हैं कलियुग में हमारे अच्छे कर्मों का फल तुरंत मिलता है। उन्हें भी फल तुरंत मिला और वे भी साहित्यिक महाकुंभ के किसी न किसी समिति के पदाधिकारी बन गए। उन्हें अनेक प्रमाण पत्र और पुरस्कार मिल गए। यही नहीं, कई शोधार्थियों को तो रिसर्च पेपर लिखने का ठेका भी मिल

गया। शायद इसे ही कहते हैं- 'एक हाथ ले, एक हाथ दे।'

मेरे पाप की गठरी बड़ी भारी थी। मुझे चाटुकारिता करनी नहीं आई और न ही मैं अवसरवादिता के गुण में दक्ष थी। शायद इसीलिए मुझे मोक्ष नहीं मिला, लेकिन मन में एक संतोष का भाव अवश्य आया। जो दो-चार साहित्यिक मूल्य मिले, उन्हीं को ग्रहण कर अपने मन को आह्लादित कर लिया।

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