आर. विक्रम सिंह। पिछले लगभग डेढ़ माह से चल रहे हमास-इजराइल युद्ध में अपह्रत इजरायली बंधकों और जेलों में बंद हमास के अपराधियों में अदला-बदली पश्चिम एशिया में शांति का मार्ग प्रशस्त करेगी, इस पर फिलहाल कुछ कहना कठिन है। पिछले 75 वर्षों से अनवरत युद्धरत इजरायल ने यह सिद्ध किया है कि वह एक प्रतिबद्ध राष्ट्रीय समाज है। यहां के लोगों ने अपना देश मिलने से पहले भारत को छोड़कर संपूर्ण विश्व में प्रताड़ना झेली। कितनी बाधाओं के बाद वे अपनी पवित्र भूमि पर एकत्र हुए और लगातार अपने शत्रुओं से संघर्षरत हैं। उनके जीवन में अभी शांति के गीत गाने का समय नहीं आया है।

इजरायल पर हमास के हमले के दौरान जो कुछ हुआ, वह विश्वासघात का काला सच है। हिंदू भी शताब्दियों से हमलों, हत्याओं, अपहरण, बलात मतांतरण के शिकार रहे हैं। अंतर यह है कि सदियों की त्रासदी ने यहूदियों को एक कर दिया और हम भीषण त्रासदियों, लोमहर्षक नरसंहारों के बाद भी बिखराव के शिकार बने रहे। हमने अपने धर्म और राष्ट्र की प्रबल शक्ति को बिखरने दिया। आदि शंकराचार्य ने चार पीठों की स्थापना की। अखाड़ों के रूप में धर्मरक्षक सेनाओं का गठन हुआ, लेकिन उसके बाद हम क्षुद्र स्वार्थों, भिन्नताओं और विभाजन की दिशाओं में चल पड़े। हमारे शत्रुओं ने इसका लाभ उठाया। चूंकि यह हमारा भोगा हुआ यथार्थ है, इसलिए इजरायल की त्रासदी से एकाकार हो पाना हमारे लिए बहुत स्वाभाविक है।

हमास, हिजबुल्ला जैसे ईरान समर्थित आतंकी संगठन इजरायल के घातक शत्रु हैं। इजरायली प्रधानमंत्री हमास के खात्मे पर आमादा हैं, लेकिन दुनिया उन पर युद्धविराम के लिए दबाव बना रही है। लगभग एक ही कालखंड में पाकिस्तान और इजरायल दो नए मजहबी देश बने। इजरायल तो यहूदियों के लिए सपनों का देश था, लेकिन पाकिस्तान शीतयुद्ध की पश्चिमी आवश्यकताओं की उपज था। जैसे इजरायल के खिलाफ गाजा में काबिज हमास और लेबनान में सक्रिय हिजबुल्ला है, वैसे ही हमारे विरुद्ध पाकिस्तान है, जिसने जैश, लश्कर जैसे आतंकी संगठन पाल रखे हैं। जब पाकिस्तान एटम बम बनाने में प्रयासरत था, तब हमारे देश के प्रधानमंत्रियों ने यह परवाह नहीं की कि पाकिस्तान यह शस्त्र भारत के लिए ही बना रहा है। हमारे नेता स्कूली बच्चों की तरह अमेरिका से यह शिकायत करने जाते रहे कि देखिए ये एटम बम बना रहा है। उसकी काट करने के बारे नहीं सोचा।

इजरायल के उत्तर में स्थित लेबनान एक आदर्श लोकतांत्रिक देश हुआ करता था। 1956 में वहां की आबादी में 56 प्रतिशत ईसाई, लगभग 20 प्रतिशत शिया एवं इतने ही सुन्नी मुस्लिम थे। 1948 के इजरायल-फलस्तीन संघर्ष में यहां लगभग पांच लाख फलस्तीनियों ने शरण ली। मजहबी आतंकवाद ने ऐसा प्रभाव डाला कि एशिया का स्विट्जरलैंड कहलाने वाला यह देश हिजबुल्ला के प्रभुत्व वाला एक गरीब देश बन गया। पलायन इतना अधिक हुआ कि बहुसंख्यक ईसाई 2020 में घट कर मात्र 21 प्रतिशत रह गए। वहां का लोकतंत्र आतंकी सशस्त्र मिलीशिया का बंधुआ बन गया। लेबनान का हश्र हमारे लिए भी एक सबक है।

विभाजन के दौरान गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद दिल्ली में घूम-घूम कर पाकिस्तान जा रहे लोगों को रोक रहे थे। वे आबादी का स्थानांतरण नहीं चाहते थे। यदि प्रधानमंत्री नेहरू पाकिस्तान नहीं चाहते थे तो विभाजन के बाद उनका लक्ष्य कश्मीर में पाकिस्तानी सेनाओं की पराजय का होना चाहिए था। हमारी सेनाएं यह कार्य तीन माह से कम समय में कर डालतीं, लेकिन उन्हें रोक दिया गया।

उस समय बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग आजाद देश था और सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान भी पाकिस्तान से अलग पख्तूनिस्तान चाहते थे। मात्र पंजाब और सिंध से बने पाकिस्तान के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना संभव न होता। यह एक स्वाभाविक रणनीति होनी चाहिए थी, लेकिन हमारे नेतृत्व ने अपनी सेनाओं को रोककर जम्मू-कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के पास रहने दिया। उन्होंने जम्मू-कश्मीर को बांटकर शांति खरीदनी चाही, पर वे असफल रहे। जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ, तब राज्य के एक नीतिगत अंग के रूप में हमें सेनाओं की भूमिका को स्वीकार करना चाहिए था। 1962 में चीन के साथ युद्ध में पराभव ने सिद्ध किया कि यदि प्रभावी सैन्यशक्ति न हो तो सियासी कलाबाजियां किसी काम की नहीं होतीं।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि इजरायल पर हमास का आक्रमण जी-20 सम्मेलन में पश्चिम एशिया से होकर यूरोप तक प्रस्तावित कारिडोर की योजना को ध्वस्त करने के लिए है। इस कारिडोर की पहल चीन के रोड एंड बेल्ट के यूरोपीय प्रोजेक्ट को निष्फल कर देती। सफल कूटनीति के पीछे तोपों की ताकत भी होती है। जब शक्ति और समृद्धि बढ़ती है, तब बाह्य शत्रु आंतरिक शत्रुओं के साथ साम्य स्थापित करने लगते हैं। देश की सफलताओं का अस्वीकार भारत विरोधियों का आधारभूत स्वाभाविक एजेंडा है। सांप्रदायिक, विभाजनकारी और जाति-परिवारवादी राजनीति के प्रतिनिधि राष्ट्रवाद के घोषित विरोधी तो थे ही, अब उन्होंने सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के विरोध का झंडा भी उठा लिया है। राजनीति का राष्ट्र और धर्म के प्रति शत्रुता के स्तर पर उतर आना एक खतरनाक संकेत है। विरोधी पक्ष के हित अब राष्ट्रहित पर भारी पड़ रहे हैं।

इजरायल ने लश्कर को प्रतिबंधित कर अपेक्षा की है कि हम हमास को प्रतिबंधित करें। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमास एक आतंकी संगठन है। चूंकि केरल में हमास समर्थकों की ओर से उसके नेता खालिद मशाल का वर्चुअल संबोधन कराया गया, इसलिए उस पर प्रतिबंध का आधार बनता है। इजरायल राष्ट्र-संस्कृति-इतिहास की प्रतिबद्धता का उदाहरण है। हमें भी समाज के बिखरे धागों को एक रफूगर की तरह जोड़ना है, ताकि देश का एकात्म स्वरूप निखर कर सामने आए।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)