देश विरोधी हरकतों के कारण आवश्यक थी पीएफआइ पर पाबंदी, फिर से संगठित होने को लेकर रहना होगा सतर्क
पीएफआइ पहली बार तब चर्चा में आया था जब 2010 में उसके सदस्यों ने केरल के प्रोफेसर टीजे जोसेफ की कलाई काट दी थी। यह बर्बर कृत्य महज इसलिए अंजाम दिया गया क्योंकि पीएफआइ के मुताबिक उनकी ओर से तैयार प्रश्नपत्र में एक प्रश्न इस्लामी मान्यताओं का निरादर करता था।
[संजय गुप्त]। केरल से निकलकर देश भर में विस्तार करने वाला पापुलर फ्रंट आफ इंडिया यानी पीएफआइ नामक संगठन जैसी गतिविधियों में लिप्त था, उन्हें देखते हुए उस पर पाबंदी का फैसला आवश्यक था। यह प्रतिबंध पीएफआइ के साथ अन्य विघटनकारी और आतंकी तत्वों के दुस्साहस का दमन करने में सहायक बनेगा। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि ऐसे तत्व देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं। पीएफआइ न केवल देश विरोधी हरकतों को अंजाम दे रहा था, बल्कि भारत विरोधी ताकतों से भी मिला हुआ था। पाकिस्तान ऐसा काम पहले से करता चला आ रहा है। भारत को अस्थिर करने के लिए यहां के मुसलमानों को गुमराह कर उन्हें अतिवाद और आतंक की ओर धकेलना उसका एजेंडा है।
पीएफआइ उस सिमी का बदला हुआ रूप है, जिसे उसकी आतंकी गतिविधियों के कारण 2001 में प्रतिबंधित किया गया था। माना जाता है कि सिमी के सदस्यों ने ही पीएफआइ का गठन किया और समय के साथ अपने कई सहयोगी संगठन खड़े कर लिए। चूंकि वे भी देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त थे, इसलिए पीएफआइ के साथ उसके आठ सहयोगी संगठनों पर भी प्रतिबंध लगाया गया।
प्रतिबंध के पहले पीएफआइ के ठिकानों पर जो व्यापक अभियान छेड़ा गया, वह केंद्रीय गृह मंत्रालय और उसके तहत काम करने वाली विभिन्न एजेंसियों की क्षमता को भी बयान करता है और उनके बीच समन्वय के साथ राज्यों के पुलिस प्रशासन के सहयोग भाव को भी। यह गोपनीय अभियान एक साथ 15 राज्यों में चला। इनमें कई राज्य गैर भाजपा दलों द्वारा शासित थे, लेकिन इससे अभियान में कोई बाधा नहीं आई। देशहित के मामलों में ऐसा ही होना चाहिए। चूंकि अभियान व्यापक था, इसलिए गोपनीयता बनाए रखने के लिए राज्यों की पुलिस को अंतिम समय जानकारी दी गई और आपात स्थिति से निपटने के लिए अर्द्धसैनिक बलों का भी सहयोग लिया गया।
छापेमारी के दौरान पीएफआइ के ठिकानों से जैसे तथ्य और दस्तावेज मिले, उनसे यही पता चलता है कि उसके मंसूबे बेहद खतरनाक थे। उसने नेताओं से लेकर जजों, पुलिस अधिकारियों, अहमदिया मुसलमानों और यहूदियों को भी निशाना बनाने की साजिश रच रखी थी। वह 2047 तक भारत को इस्लामी राष्ट्र बनाने का भी इरादा रखता था। वह न केवल अवैध तरीके से विदेश से धन हासिल कर रहा था, बल्कि उसका इस्तेमाल भी आतंकी कृत्यों के लिए कर रहा था।
अंदेशा है कि उसने लोगों की हत्याओं के लिए एक मारक दस्ता भी बना रखा था। ध्यान रहे कि कई लोगों की हत्या में पीएफआइ का नाम आ चुका है। यह भी जगजाहिर है कि पहले नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ और फिर कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर रोक के विरोध में जो हिंसक प्रदर्शन हुए, उसमें भी उसका हाथ था। इसी तरह नुपुर शर्मा के बयान के बाद देश में कई स्थानों पर जो हिंसा देखने को मिली, वह भी उसके इशारे पर की गई।
पीएफआइ पहली बार तब चर्चा में आया था, जब 2010 में उसके सदस्यों ने केरल के एक प्रोफेसर टीजे जोसेफ की कलाई काट दी थी। यह बर्बर कृत्य महज इसलिए अंजाम दिया गया, क्योंकि पीएफआइ के मुताबिक उनकी ओर से तैयार प्रश्नपत्र में एक प्रश्न इस्लामी मान्यताओं का निरादर करता था। प्रोफेसर जोसेफ के हमलावरों को सजा भी हुई, लेकिन पीएफआइ पर अंकुश नहीं लग सका।
ऐसा नहीं है कि इस संगठन की कारगुजारियों से अन्य राजनीतिक दल अवगत नहीं थे, पर वोट बैंक की राजनीति के कारण कई विपक्षी दलों ने उस पर पाबंदी के फैसले को लेकर गोलमोल टिप्पणी की। केरल के कांग्रेस सांसद के. सुरेश ने कहा कि यदि इस संगठन पर रोक लग रही है तो आरएसएस पर भी लगनी चाहिए। इसी तरह की बातें लालू यादव और कुछ अन्य नेताओं ने कीं।
मायावती और असदुद्दीन ओवैसी को भी पीएफआइ पर पाबंदी रास नहीं आई। आरएसएस को पीएफआइ जैसा बताना सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। इस तरह की राजनीति आतंकवाद से लड़ने में बाधक ही बनती है। जिन नेताओं ने आरएसएस को पीएफआइ सरीखा बताया, वे वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। वे यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि किस तरह कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों, धर्मगुरुओं और यहां तक मुस्लिम लीग जैसे दलों ने भी पीएफआइ पर पाबंदी को सही ठहराया।
पीएफआइ जैसे अतिवादी संगठन के सदस्यों से कहीं अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। इसलिए और भी, क्योंकि कई भारत विरोधी ताकतें भी पीएफआइ जैसे संगठनों को बल देने मे लगी हुई हैं। सरकार न तो इसकी अनदेखी कर सकती है कि पाकिस्तान के साथ किस तरह तुर्किये भी भारतीय हितों के खिलाफ काम करने में लगा हुआ है और न ही इसकी कि जिहादी संगठन किस प्रकार दुनिया भर में सिर उठाने के साथ एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं।
कई देश भी ऐसे संगठनों को खुले-छिपे रूप में समर्थन देते हैं। इस क्रम में वे अपने लोगों पर अत्याचार करने में ऐसे संगठनों की मदद भी लेते हैं। ईरान में सही तरह हिजाब न पहनने के कारण महाशा अमीनी नामक युवती की पुलिस हिरासत में मौत के बाद वहां की सरकार आक्रोशित महिलाओं के दमन के लिए जिहादी तत्वों की मदद ले रही है।
जहां ईरान में महिलाओं को हिजाब न पहनने के लिए मारा जा रहा है, वहीं भारत में हिजाब पहनने-पहनाने की जिद की जा रही है। ऐसी जिद करने वाले संगठनों में पीएफआइ भी था। कर्नाटक के हिजाब विवाद को हवा देने में पीएफआइ के सहयोगी संगठन कैंपस फ्रंट आफ इंडिया की भूमिका थी, यह बात न केवल कर्नाटक हाई कोर्ट के समक्ष कही गई, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के सामने भी।
ऐसे में उचित यही होगा कि पीएफआइ की तरफदारी करने वाले लोग बाज आएं। इसके अलावा पीएफआइ के फिर से संगठित होने को लेकर सतर्क रहा जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में इस तरह के संगठनों को सिर उठाने का अवसर न मिले। यह इसलिए सुनिश्चित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह महसूस किया जा रहा है कि पीएफआइ पर और पहले पाबंदी लगनी चाहिए थी।
[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]