प्रणय कुमार : किसी भी राष्ट्र के लिए राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का विशेष महत्व होता है। वे जनसामान्य की आस्था एवं श्रद्धा के केंद्रबिंदु तो होते ही हैं, सामूहिक पहचान एवं राष्ट्रीय अस्मिता के भी परिचायक होते हैं। लोक-स्मृतियां एवं परंपराएं इन्हें सहेजकर चलती हैं और पीढ़ि‍यां इनसे प्रेरित-अनुप्राणित होती हैं। ये प्रकारांतर से संस्कारों को सींचने और जीवन-मूल्यों को विकसित करने का माध्यम बनते हैं। हमारी जीवन-यात्रा अंधकार से प्रकाश की ओर प्रस्थान करती है। कदाचित इसीलिए भारतीय संस्कृति में दीपक का विशेष महत्व है और अपने किसी भी शैक्षिक-सांस्कृतिक आयोजन का शुभारंग हम दीप-प्रज्वलन से करते रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपने यहां दीप-प्रज्वलन तक का विरोध किया जाने लगा है। क्या धरती, आकाश, सूर्य, चंद्रमा, नदी, पर्वत, जल और प्रकाश जैसे प्राकृतिक उपादानों का भी भला कोई पंथ या मजहब हो सकता है? इनका तो अपना अस्तित्व होता है, अपनी उपादेयता होती है। हां, विभिन्न सभ्यताओं द्वारा इन्हें देखने का एक भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण अवश्य होता है।

जीवन और जगत को देखने का हम भारतीयों का अपना भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण है। उसे ही बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति कहकर संबोधित किया जाता है। इन दिनों भारतीय संस्कृति में मान्य एवं प्रचलित ऐसे तमाम प्रतीकों को लांछित या अपमानित करने का चलन सा चल पड़ा है। इसीलिए कभी सरस्वती पूजा, कभी गणेश-वंदना, कभी विद्यालयों में होने वाली प्रात: वंदना, कभी राष्ट्रगान, कभी राष्ट्रगीत, कभी राष्ट्रीय ध्वज तो कभी अशोक-स्तंभ जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर भी अनावश्यक विवाद पैदा किया जाता है। राष्ट्रीय प्रतीक या युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपरा को मजहबी चश्मे से देखना न तो न्यायसंगत है, न ही विवेकसम्मत। कई बार ऐसे भी दृष्टांत सामने आए हैं कि किसी आयोजन के उपलक्ष्य पर बनाई जाने वाली रंगोली, उकेरे गए मांगलिक चिह्न या नारियल फोड़ने पर भी निरर्थक विवाद खड़े किए जाते हैं। यहां तक कि 'भारत माता की जय' बोलने पर भी आपत्ति होती है। जबकि यह सहज स्वीकार्य सिद्धांत होना चाहिए कि मत-मजहब बदलने से पुरखे और संस्कृति नहीं बदलती। राष्ट्रीय प्रतीक हमारे सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, न कि धार्मिक जीवन के। इनका संबंध पंथ विशेष की पूजा-पद्धति या मान्यताओं से न होकर राष्ट्र की परंपराओं एवं संस्कृति से है, जीवन और जगत को देखने के चिरंतन दृष्टिकोण से है। इंडोनेशिया का उदाहरण हमारे सामने है।

सर्वाधिक जनसंख्या वाला मुस्लिम देश होने के बावजूद इंडोनेशिया ने अपनी संस्कृति नहीं बदली। उसकी विमान-सेवा का प्रतीक-चिह्न 'गरुड़' है। रामायण और रामलीला वहां अत्यंत लोकप्रिय हैं। एक इस्लामिक देश में यदि यह सब संभव है तो भारत में ऐसे ही प्रतीकों पर अनावश्यक विवाद क्यों? कुछ समय पहले जब बिहार विधानसभा अध्यक्ष ने सार्थक पहल करते हुए यह निर्णय लिया कि सत्र की शुरुआत राष्ट्रगान और अंत राष्ट्रगीत से किया जाएगा, तो इस पर भी एआइएमआइएम के विधायकों को आपत्ति थी। न केवल आपत्ति थी, बल्कि उन्होंने शीतकालीन एवं बजट सत्र के समापन पर राष्ट्रगीत गाने से मना कर दिया। सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क भी राष्ट्रगीत का सार्वजनिक बहिष्कार एवं अपमान कर चुके हैं, जबकि स्वतंत्रता के लिए किए गए विभिन्न आंदोलनों में 'वंदे मातरम्' गीत की महती भूमिका थी।

'वंदे मातरम्' एवं 'भारत माता की जय' बोलने से नाक-भौं सिकोड़ने वाले नेताओं एवं कथित पंथनिरपेक्षतावादियों को सदैव स्मरण रखना चाहिए कि इन्हीं ध्येय-वाक्यों ने हजारों युवाओं के भीतर मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग की प्रेरणा जगाई थी। हद तो तब हो गई जब 2019 में मध्य प्रदेश के विनायक शाह द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर देश भर के केंद्रीय विद्यालयों की वंदना-सभा में प्रतिदिन गाए जाने वाले श्लोकों 'असतो मा सद्गमय...' और 'ऊं सहना भवतु...' पर अविलंब रोक लगाने की मांग की गई, जबकि इनमें ऐसे शाश्वत एवं सार्वभौमिक मूल्य हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति एवं संपूर्ण मनुष्यता के लिए उपयोगी हैं। इनके मूल या स्रोत के आधार पर इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या अल्पसंख्यक अधिकारों का हनन बताना निरी मूढ़ता है। वह सब कुछ, जो संस्कृत में है, वह प्रकृति में भी पांथिक (रिलीजियस) हो, यह धारणा ही एकांगी एवं निराधार है।

लगभग सभी शैक्षिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संस्थाओं के ध्येय-वाक्य संस्कृत में ही लिखे होते हैं। क्या केवल इसी आधार पर इन संस्थाओं को गैर-पंथनिरपेक्ष ठहराया-बताया जा सकता है? इस आधार पर तो कल को कोई यह भी दावा कर सकता है कि 'आनेस्टी इज द बेस्ट पालिसी' का सूत्र-वाक्य चूंकि अंग्रेजी में है, इसलिए यह ईसाइयत को आगे बढ़ाता है। क्या यह उचित होगा? अशोक स्तंभ के अनावरण-अनुष्ठान के सुअवसर पर सबसे पहला मंत्र 'ऊं वसुंधराय विद्महे भूतधत्राय धीमहि तन्नो भूमि: प्रचोदयात्' बोला गया। अब जो पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, उससे आशीर्वाद की कामना भी क्या संकीर्ण, अनुदार और सांप्रदायिक हो सकती है? वस्तुत: आवश्यकता इन प्रतीकों के पीछे की मूल भावना को समझने की है, न कि अन्यान्य कारणों से मीन-मेख निकालने या निरर्थक विवाद पैदा करने की। सच तो यह है कि राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक प्रतीकों पर छेड़ी गई निरर्थक एवं निराधार बहस अंतत: राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को कमजोर करती है और सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुंचाती है।

(लेखक शिक्षाविद एवं शिक्षा-सोपान संस्था के संस्थापक हैं)