[हर्षवर्धन त्रिपाठी]। नरेंद्र मोदी को हटाने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी अचानक चीखने की मुद्रा में आ गए हैं। वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि राहुल गांधी हैं। आपको आश्चर्य हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ भी कर जाने की मुद्रा में दिख रहे राहुल गांधी भला नरेंद्र मोदी को हटाने की इच्छा रखने वाले राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों को क्यों परेशान करने लगे हैं, तो इसकी वजह समझने के लिए इतना समझिए कि कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर क्षेत्रीय दलों के आगे झुकने से इन्कार कर रही है।

राहुल गांधी और अब पार्टी महासचिव के तौर पर शामिल प्रियंका गांधी क्षेत्रीय दलों के साथ थोड़ा झुककर समझौता नहीं कर लेना चाहते थे, ऐसा नहीं है, लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों के बाद कांग्रेस को एक बात समझ आ गई कि क्षेत्रीय दलों का उभार भाजपा से ज्यादा सिरदर्द कांग्रेस के लिए बन रहा है। इसीलिए ‘प्रियल कांग्रेस’ यानी राहुल-प्रियंका कांग्रेस सही रास्ते पर चलती दिख रही है। मजबूर सरकार की चाहत क्षेत्रीय दलों और उस स्थिति में ताकतवर, प्रासंगिक बने रहने की इच्छा रखने वाले बुद्धिजीवियों का तैयार किया हुआ शगूफा है।

कमाल की बात यह रही कि जब भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीनना शुरू किया तो कांग्रेस भी क्षेत्रीय दलों और उनसे सहानुभूति रखने वाले बुद्धिजीवियों के मजबूर सरकार वाले जुमले में फंस गई और इस तरह की वकालत करती दिखने लगी कि भाजपा को हराने के लिए वह किसी भी पार्टी से गठजोड़ करने के लिए तैयार है। इसके बाद क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया और क्षेत्रीय दलों से ज्यादा उनसे सहानुभूति रखने वाले और क्षेत्रीय दलों के उभार से ताकत पाने वाले बुद्धिजीवियों ने देश में भाजपा विरोधी गठजोड़ को तैयार करने का पूरा दायित्व कांग्रेस पर डाल दिया है।

लेखों में और टीवी की बहसों में ऐसे बुद्धिजीवी बताने लगे कि कांग्रेस ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाई, तो नरेंद्र मोदी को सब मिलकर हरा देंगे और इन्होंने ही कहा कि गठजोड़ की शक्ल हर राज्य के हिसाब से बनेगी। फिर धीरे-धीरे सभी महत्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस गठजोड़ से लगभग गायब हो गई। इसे ऐसे समझिए कि 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में मात्र दो सीटें, 40 लोकसभा सीटों वाले बिहार में करीब आठ सीटें और 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को लगभग शून्य सीटें जीतने लायक समझा गया। क्षेत्रीय दलों के उभार के भरोसे मोदी को हराने की इच्छा रखने वाले समूह ने पश्चिम बंगाल में मोदी से लड़ने के काबिल ममता और ओडिशा में नवीन पटनायक को ही समझा, इसीलिए बंगाल की तरह ओडिशा में भी कांग्रेस को लगभग शून्य सीटों पर समेट दिया।

सोचिए कि 543 सीटों वाली लोकसभा में सभी राज्यों में भाजपा मजबूती से लड़ रही है। क्षेत्रीय दलों के उभार की चाहत रखने वालों के जाल में फंसी कांग्रेस के लिए अपमानजनक स्थिति तब पैदा हो गई, जब यूपी में राष्ट्रीय लोकदल को भी तीन सीटें देने वाले सपा-बसपा गठजोड़ ने कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ीं। बिहार में भी आरजेडी कह रही है कि आठ से ज्यादा सीटें कांग्रेस को नहीं दी जा सकती हैं। कुल मिलाकर सत्ता में वापसी की कांग्रेस की इच्छा का फायदा क्षेत्रीय दल ऐसे उठा लेना चाहते हैं कि 2019 में बेहद मजबूर सरकार बने। एक ऐसी सरकार, जिसमें कांग्रेस का प्रधानमंत्री बन भी जाए तो उसकी सांस हर वक्त क्षेत्रीय दलों के समर्थन से रुकती-चलती रहे। उसका संकेत भी अभी से ही मिलने लगा है।

शरद पवार प्रधानमंत्री पद पर खुद की दावेदारी बीच-बीच में ठेलते रहते हैं। मायावती को प्रधानमंत्री बनाने को जीत का फॉर्मूला बताने वालों की कमी नहीं रही और सपा बसपा के बीच गठजोड़ खुद का अस्तित्व बचाने के साथ यूपी में अखिलेश भैया और केंद्र में बहन जी के अघोषित फॉर्मूले पर ही बना है। सब कांग्रेस को त्यागी बनाकर सारी ताकत क्षेत्रीय दलों के हाथ में दे देना चाह रहे हैं, लेकिन तीन राज्यों में सरकार बनाने के बाद शायद कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों और उसी आधार पर ताकत हासिल करने वाले बुद्धिजीवियों की साजिश समझ आ गई है। इसीलिए कांग्रेस अब बदली हुई नजर आ रही है।

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठजोड़ हो जाने के बाद प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश का जिम्मा सौंपा गया और प्रियंका गांधी वाड्रा जब पहली बार लखनऊ पहुंची और प्रतीकात्मक रोड शो के दौरान राहुल गांधी ने जो कहा, उसे ठीक से समझने की जरूरत है। राहुल गांधी ने कहा कि प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया लोकसभा चुनाव के बाद भी यहीं रहकर पार्टी को मजबूत करने वाले हैं और संगठन खड़ा करके 2022 की तैयारी करेंगे।

वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव की सांझ में 2022 की बात करके राहुल-प्रियंका की अगुवाई वाली ‘प्रियल कांग्रेस’ भले ही राजनीतिक विश्लेषकों की समझ में न आ रही हो, लेकिन रणनीतिक तौर पर इसे दूसरी तरह से देखना चाहिए। विकास के मुद्दे पर भाजपा मीलों आगे दिखती है। कांग्रेस के सामने अभी सबसे बड़ा संकट खुद की जमीन बचाना है। अब ‘प्रियल कांग्रेस’ इसी रणनीति पर काम कर रही है। राहुल-प्रियंका को अच्छे से ये बात पता है कि 2019 की लड़ाई में नरेंद्र मोदी बहुत आगे खड़े हैं, इसलिए 2022 का उत्तर प्रदेश और 2024 का देश, यही अब उनकी रणनीति है। प्रयागराज से काशी गंगा यात्रा से भी प्रियंका ने यही किया है कि टीवी पर भाजपा के सामने कांग्रेस दिख रही है।

‘प्रियल कांग्रेस’ और उनके रणनीतिकारों को शायद यह बात समझ आ गई है कि 2019 की लड़ाई जीतने के लिए अब उनके पास समय नहीं बचा है, इसीलिए 2024 की लड़ाई की तैयारी ‘प्रियल कांग्रेस’ 2019 के बहाने करने की कोशिश कर रही है और सबसे बड़ी बात कि कांग्रेस, मोदी को हराकर क्षेत्रीय दलों की मजबूर सरकार बनाने वाले लुभावने जाल से बाहर आती दिख रही है। राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा सबसे आगे आ जाने से राष्ट्रीय पार्टियों पर 2019 का चुनाव पूरी तरह से केंद्रित हो गया है, इसलिए राज्यों में भी कांग्रेस अब क्षेत्रीय दलों को जमीन देने को तैयार नहीं है।

[वरिष्ठ पत्रकार]